बुधवार, 13 अप्रैल 2011

आप सब की पॉलिटिक्स क्या है?

बात पते की

नंद कश्यप


वास्तव में, मैं इस मत का हूं कि जो राजनीति और सभी राजनीतिज्ञों के बारे में आम तौर पर घृणा का माहौल फैलाने में लगे हैं, वे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं कर रहे- लालकृष्ण अडवाणी, शीर्ष भाजपा नेता, 12 अप्रैल 2011 को अपने ब्लॉग पर.
अडवाणी और अन्ना हजारे

जो लोग राजनीतिज्ञों को गाली दे रहे हैं, उन्हें चुनाव जरूर लड़ना चाहिए. गैर सरकारी संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले धरना-प्रर्दशनों के लिए खर्च कहां से आता है, इसकी भी जांच होनी चाहिये -दिग्विजय सिंह, कांग्रेस नेता, 12 अप्रैल 2011 को एक पत्रकार वार्ता में.
लालकृष्ण अडवाणी और दिग्विजय सिंह के इन बयानों से एक बात स्पष्ट होकर उभर रही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा जनता को झकझोर गया है और इस बहाने जनता उस पर हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिये सड़कों पर उतरने के लिये आमादा दिख रही है. जनता के सडक़ों पर उतरने की प्रक्रिया राजसत्ता को हिलाती ही है. राजसत्ता से जुड़े राजनेताओं के सारे बयान इसी घबराहट का प्रतीक हैं.
जहां तक अन्ना के आंदोलन का प्रश्न है, आभास ऐसा होता है कि वह पूर्व निर्धारित था और उसके पीछे मार्केटिंग के बहुत मंझे हुए खिलाड़ी का दिमाग काम कर रहा था. और यदि ऐसा नहीं था तो सरकार ने बहुत चतुराई से विकसित हो रहे बड़े जनआंदोलन को उसकी भ्रूण अवस्था में खत्म करने में सफलता पा ली है. दोनों ही स्थितियां अन्ना हजारे के दूरगामी रणनीतिक सोच की कमजोरी को ही दर्शाती हैं.
देखा जाये तो महाराष्ट्र में भी वह बड़ी लड़ाई शुरू कर उसे निरंतरता प्रदान करने में असमर्थ रहे हैं. सामाजिक मुद्दों पर उनकी सांगठनिक क्षमता बहुत कमजोर रही है. रालेगांव सिद्धी में हरितका लाने वाले अन्ना अंग्रेजी मीडिया में जरूर छाये परंतु उसे बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने में असफल रहे.
जंतर-मंतर में भी जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में सार्थक और निरंतर संघर्ष की प्रतिबद्धता से आये थे, उन्हें अन्ना ने निराश ही किया. अन्ना को घोषणा करनी पड़ी कि वह सारे देश का दौरा कर व्यापक संघर्ष की शुरूवात करेंगे. यक्ष प्रश्न यही है कि क्या अन्ना ऐसा कर पायेंगे. क्योंकि अन्ना की राजनीति क्या है, यह कम से कम जनता को नहीं पता है. अन्ना की पहल ने जनता के भीतर की बेचैनी को हवा तो दी है और छोटी चिंगारी भड़क भी सकती है. लेकिन क्या अन्ना और उनके दायें-बायें के लोग ऐसा चाहेंगे?
भ्रष्टाचार के इसी शोर के बीच सरकारी बजट के कई आंकड़े आये हैं जो बतलाते हैं कि 2005-2006 के बजट से लेकर आज तक यानी बजट 2010-2011 तक केंद्र सरकार ने कारपोरेट जगत का 3,74,937 करोड़ रुपये का आयकर माफ किया है. 2005-2006 के बजट में 34618 करोड़ रुपये माफ किया था और 2011 के बजट में 88263 करोड़ रुपया माफ किया गया है.
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि हम प्रतिदिन 240 करोड़ रुपये पूंजीपतियों को कर माफी दे रहे हैं. उसके बदले ये पूंजीपति अपने ऐशो-आराम खरीद रहे हैं. कोई अपनी पत्नी को अरबों-खरबों के पानी जहाज उपहार में दे रहा है तो कोई 46 मंजिला घर बना रहा है. कोई और है जो इंग्लैंड की राजमहल वाली सड़क पर 10 गुना महंगा बंगला खरीद रहा है. ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी वाशिंगटन की रिपोर्ट अनुसार लगभग हर दिन भारत से तीनों तरह के कर भारत से कालेधन के रुप में बाहर जा रहा है.
एक तरफ जनता पर पानी, बिजली का टैक्स लगातार बढ़ता जा रहा है, दूसरी ओर सरकारी नीति के तहत कारपोरेट को लगातार छूट दी जा रही है. पिछले 6 सालों में सरकार ने 21,25,023 करोड़ रुपये की छूट कारपोरेट घरानों को दी है. इसी से संबंधित एक और मुद्दा स्थानीय स्तर पर चुने हुये प्रतिनिधियों का भी है, जिनके अधिकारों में लगातार कमी की जा रही है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियों की सरकार जिन राज्यों में है, वहां इसी नीति पर अमल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में तो स्वायत्तशासी संस्थाओं के प्रतिनिधियों के अधिकारों में कटौती के लिये तो बजाप्ता सरकार ने नियमों में भारी-भरकम संशोधन किये है. इसी तरह गुजरात में पिछले 3 सालों से लोकायुक्त ही नहीं है. कर्नाटक में भी यही हाल है. सरकार के लिये संतोष हेगड़े स्वीकार्य नहीं हैं.
इन सारी स्थितियों को देखें तो पता चलता है कि ये सारे उपक्रम वस्तुतः लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही कमजोर करते हैं. इन मुद्दों पर लालकृष्ण अडवाणी भी खामोशी की चादर ओढ़े रहते हैं और बड़बोले दिग्विजय सिंह भी. इन नेताओं की खामोशी दर्शाती है कि कारपोरेट हित में जनता और जनप्रतिनिधियों के अधिकारों की कटौती तो इन्हें स्वीकार है, लेकिन जनता को सशक्त करने वाले जन आंदोलन और उनकी पहल करने वाले इन्हें लोकतंत्र विरोधी नजर आते हैं. अपनी सारी खूबियों और कमियों को बावजूद अन्ना हजारे की पहल जनता को सशक्त करने की पहल है और इससे लोकतंत्र मजबूत ही होता है.
अपने दौर में हर समय संकटग्रस्त होता है और स्वयं जनता ही अपने को संकट से मुक्त कर आगे बढ़ती है. इसी जनता ने बड़े-बड़े साम्राज्य ध्वस्त किये हैं और आज के लोकतंत्र को स्थापित किया है. यही जनता फिर से आगे बढ़ेगी, बस उसे अपनी पक्षधरता पहचानने की जरुरत है.
मशहूर चित्रकार वॉन गॉग ने लगभग 130 साल पहले अपनी पक्षधरता के संबंध में जो कुछ कहा था, वह गौरतलब है- रहस्य तो बने रहते हैं और दुख और संताप भी. पर इस नकारात्मक ऊर्जा का निराकरण केवल सकारात्मक कार्यों से ही संभव है. अगर जीवन इतना ही सरल होता और स्थितियां उतनी ही सुलझी हुई होती, जितनी कि एक सुखांत कथा में या फिर एक पादरी के घिसे-पिटे प्रवचन में, तो अपनी राह खोजना उतना मुश्किल नहीं होता. सही-गलत वैसे ही अलग नहीं किये जा सकते, जैसे प्रकृति में काला-सफेद. हां, इसका पूरा ख्याल रखा जाना चाहिये कि हम पूरे काले या झूठ की तरफ न हो जायें. और उससे भी ज्यादा बचना चाहिये चुना पुती दीवार जैसी उस सफेदी से, जो एक दिखावा औऱ पाखंड होता है.

(raviwar.com से)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें