बुधवार, 20 अप्रैल 2011

जादूगर नहीं अन्ना


सुरेंद्र कुमार
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अन्ना हजारे का उपवास और उसका नतीजा भारत के संसदीय लोकतंत्र के पचास वर्षों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। हालांकि इसका ठोस परिणाम जनता की उच्च आकांक्षाओं से मेल खाता नहीं दिख रहा है। पखवाड़े भर पहले किसी को भी अन्ना के उपवास को इतने व्यापक समर्थन की उम्मीद नहीं थी। खुद अन्ना को भी नहीं। ठीक इसी तरह से कुछ ही लोग सरकार के इतनी जल्दी और इस तरह झुकने का कयास लगा रहे थे। इसे समझने के लिए कुछ बातों पर गहराई से विचार करना जरूरी होगा।
जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया दर्शाती है कि मौजूदा नेतृत्व से आमजन का भरोसा किस तरह टूट चुका है और वह किसी मुक्तिदाता की तलाश में है। अपनी स्पष्ट निष्ठा, ईमानदारी, गंभीरता और आज की राजनीति में दुर्लभ, बेदाग, सरल व निःस्वार्थ छवि वाले अन्ना अचानक ही देश के नेतृत्व में उपजे शून्य को भरने के लिए अनूठे नायक की तरह उभरे।
दूसरी ओर केंद्र सरकार पहले ही घोटालों से घिरी हुई है और उसे बार-बार सुप्रीम कोर्ट की आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। इससे यही संदेश गया कि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ या तो लड़ना नहीं चाहती या वह बुरी तरह विफल है। मगर सरकार को अतीत की बातें परेशान कर रही थी, जब 1989 में राजीव गांधी की सरकार को बोफोर्स मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते करारी चुनावी हार झेलनी पड़ी थी। लिहाजा, उसने यह जताने की कोशिश की कि वह कुछ भी नहीं छिपाना चाहती और भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी तरह अन्ना के साथ है।
ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह अन्ना हजारे को मिले समर्थन में प्रौद्योगिकी और मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही। इंटरनेट, संचार के नए माध्यम और मीडिया राष्ट्रीय मुद्दों को आगे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जो राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए एक चेतावनी है। इस सबके बावजूद अन्ना के प्रति पूरे आदर के साथ कहना पड़ रहा है कि वह कोई जादूगर नहीं हैं और भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी और मजबूत हैं कि उन्हें पूरी तरह जल्दी खत्म करना मुश्किल होगा। उनके अनशन से उपजे उन्माद के बावजूद किसी को भी सरल, अव्यावहारिक और अधकचरा समाधान नहीं सुझाना चाहिए और हमारे लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर नहीं करना चाहिए। ‘पकड़ो, जेल में डालो और फांसी दे दो’
जैसे फिल्मी सुझाव देने वाले सांविधानिक, सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थों से अनजान हैं। हमें भ्रष्टाचार से जरूर लड़ना चाहिए, दोषियों को दंड देना चाहिए। हमें प्रभावी, निष्पक्ष और समयबद्ध न्यायिक प्रणाली के लिए भी प्रयास करना चाहिए। मगर हम 1.21 अरब लोगों के देश को ‘बनाना गणराज्य’ के कंगारू कोर्ट में तबदील नहीं कर सकते। हमें कम से कम समय में दोषी को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए कानून के राज और लोगों के सांविधानिक अधिकारों की रक्षा के बीच एक संतुलन बनाना होगा।
हमें सोचना चाहिए कि क्या सरकार, संसद और न्यायपालिका के ऊपर बेलगाम शक्ति वाला ‘सुपरमैन’ जैसा लोकपाल 21वीं सदी में राष्ट्रहित को सुरक्षित रख पाएगा। उचित नियंत्रण और संतुलन लोकपाल पर भी लागू होना चाहिए, ताकि वह खुद को कानून से ऊपर न समझने लगे। भ्रष्टाचार के आरोपों को हिसाब बराबर करने या उत्पीड़न या ब्लैकमेल करने का औजार नहीं बनने देना चाहिए।
असल में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक दीर्घकालीन बहुआयामी प्रयास की जरूरत होगी। निश्चय ही राजनेताओं और अन्य बड़ी मछलियों की गिरफ्तारी और जेल में डालने के प्रावधान का प्रभावी असर होगा, लेकिन जमीनी वास्तविकताओं की वजह से भ्रष्टाचार विभिन्न स्तरों पर जारी रहेगा। मसलन, जंतर मंतर के निकट एक आइसक्रीम बेचने वाला अन्ना हजारे के समर्थकों की भारी उपस्थिति के कारण खूब बिक्री से काफी खुश था। उसने निःसंकोच बताया कि उसने आइसक्रीम बेचने देने के लिए वहां तैनात पुलिस वाले को घूस दी थी। वह अन्ना के भ्रष्टाचार रोकने का इंतजार नहीं कर सकता, क्योंकि उसे अपने परिवार का पेट भरना है। छोटे गांवों, कसबों और शहरों के लाखों भारतीय इसी तरह भ्रष्टाचार के साथ रोजमर्रा का जीवन जीने को विवश हैं। काश किसी ने जंतर-मंतर पर उन मूक पीड़ितों की आवाज उठाई होती।
राजनेता, नौकरशाह, डॉक्टर, इंजीनियर, रक्षाकर्मी, न्यायाधीश, पायलट, खेल निकायों के प्रमुख, मीडिया प्रतिनिधि, उद्योग घरानों के लोग, सभी एक ही समाज का हिस्सा हैं। भ्रष्टाचार के आरोपियों को जेल भेजना निश्चय ही भ्रष्टाचार को हतोत्साहित करेगा, लेकिन यह तब तक खत्म नहीं होने वाला, जब तक इसकी जड़ पर प्रहार नहीं किया जाएगा। ऐसा लगता है कि हर कोई सही-गलत का विचार किए बिना तेजी से पैसा बनाना चाहता है।
नैतिक मूल्यों को बचाने का काम घर से ही शुरू करना होगा और फिर उसे स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में मजबूत करने और सरकार, कॉरपोरेट क्षेत्र, संगठित व असंगठित नियोजकों और नागरिक समाज के संरक्षण और प्रोत्साहन की जरूरत होगी। अगर एक समाज धन के स्रोत की जांच किए बिना ही उसे मान-सम्मान देता है, तो दर्जनों अन्ना हजारे के बावजूद भ्रष्टाचार से पार नहीं पाया जा सकता। राज कपूर ने पांच दशक पहले श्री 420 और जागते रहो में जो दिखाया था, वह आज भी सच है। 
(अमर उजाला से साभार)

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