रविवार, 22 मई 2011

भारत की राजनीति का अनिवार्य हिस्‍सा है लेफ्ट

अजय राय
भारत की राजनीति में लेफ्ट की हमेशा से एक अहम भूमिका रही है. लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल विधानसभा चुनावों में हार से देश की राजनीति में पिछले 34 वर्षो में पहली बार ऐसा हुआ है, जब किसी भी बड़े राज्य में लेफ्ट सत्ता में नहीं है. यह स्थिति देश की राजनीति व्यवस्था में बड़े बदलाव के संकेत दे रही है. भारत की राजनीति का आज जो चेहरा है, उसके निर्माण में कम्युनिस्ट पार्टियों का बड़ा योगदान है. भारत के भविष्य की तसवीर काफ़ी हद तक कम्युनिस्ट राजनीति पर टिकी है. इस बात से किसी भी समझदार व्यक्ति को कोई ऐतराज नहीं होगा कि अगर भारत में कम्युनिस्ट राजनीति कमजोर होती है, तो यह देश के लिए शुभ नहीं होगा. देश में जनतांत्रिक किस्म के शासन और कल्याणकारी राज्य को जीवित रखने में कम्युनिस्ट पार्टियों ने जो भूमिका निभायी है, उसे देखते हुए उन्हें भारत के अच्छे भविष्य के लिए अनिवार्य माना जाना चाहिए. कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के बाद से गरीबों की आवाज रही है. सरकार को लोक-हितैषी नीतियां बनाने के लिए मजबूर करने में, लेफ्ट की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता. देश की लगभग 50 फ़ीसदी जनता गरीबी का जीवन बसर कर रही है. एक बड़ी आबादी अभी भी अनपढ़, कुपोषित, भूमिहीन और बेहाल है. इसीलिए उनकी आवाज बनने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का मजबूत होना निहायत ही जरूरी है.
लेफ्ट को छोड़कर गरीबों के कल्याण के बारे में किसी पार्टी के पास मुकम्मल सोच नहीं है. अन्य पार्टियां गरीबों के नाम पर अपनी रोटी सेंकने के जुगाड़ में लगी रहतीं हैं. इसलिए राजनीतिक शुचिता बढ़ाने और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए देश की राजनीति में कम्युनिस्ट विचारधारा की प्रासंगिकता बनी रहेगी.
किसी देश की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का वहां निवास करने वाली जनता पर प्रभाव पड़ता है. पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे भारत में नये मध्य वर्ग का उदय हुआ है. इसके अलावा इसी बीच चुपके से एक नयी पीढ़ी ने भी मुख्यधारा में अपनी जगह बना ली है. पिछले 34 वर्षो के दौरान लेफ्ट के शासन वाले राज्यों में क्रांतिकारी बदलाव देखे गये हैं. देश में सबसे पहले भूमि सुधार पश्चिम बंगाल और केरल में हुए. लेकिन अभी भी कई राज्यों में भूमि सुधार दूर की कौड़ी बनी है. इन दोनों राज्यों में न तो बिहार, यूपी ओद राज्यों जैसी गरीबी है और न ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश ओद राज्यों जैसी भुखमरी है. लेकिन लेफ्ट शासित राज्यों में इन सुधारों को अंजाम दिया जा चुका है. जनता को लंबे समय से इनका फ़ायदा भी मिल रहा है.
नयी पीढ़ी के लिए ये क्रांतिकारी सुधार कोई मायने नहीं रखते हैं. उनका मानना है कि ये तो हमें जन्मसिद्ध अधिकार के तौर पर प्राप्त हुआ है. नयी पीढ़ी नये सुधार की मांग करती है. जो उसकी आंखों के सामने से होकर गुजरे. इसी नयी मांग को, यानी ‘व्हाट नेक्स्ट’ की पूर्ति करने में कम्युनिस्ट पार्टी विफ़ल साबित हुई है. लेफ्ट को देश की राजनीति में वापसी करनी है तो इस मुद्दे पर गहराई से सोचना होगा. कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हमेशा से ही साथ-सुथरा रहा है. आज तक इसके किसी नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है. न ही करुणानिधि और मायावती की तरह किसी कम्युनिस्ट नेता के व्यक्ति‍गत व्यवहार में परिवर्तन आया है.
आज देश बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है. बढ़ती आबादी और शिक्षा के प्रसार से रोजगार की मांग में तेजी आयी है. लेकिन रोजगार उद्योगों के विकास पर निर्भर करता है. कम्युनिस्ट राजनीति यहीं मात खा गयी. सिंगूर और नंदीग्राम का भूत उसके सिर पर सवार हो गया. वामपंथियों को समझना होगा कि जो बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, वे अच्छी नौकरी की भी मांग करेंगे. और उनकी इस जरूरत को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार पर है. लेकिन जमीन कौन देगा? इसके लिए कोई कारगर नीति होनी चाहिए. भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह बहुत बड़ा मसला है. इसके लिए गहन सोच विचार और सहयोग करने की जरूरत होती है. कम्युनिस्ट कैडरों से यहीं चूक हुई और ममता एक विकल्प के तौर पर नजर आयीं. लोकतंत्र में मजबूत विकल्प के आने के बाद किसी दल का सत्ता पर बना रह पाना लंबे समय तक मुमकिन नहीं रहता. खासकर ऐसी स्थिति में जब कोई दल या सरकार अपनी नीतियों में समय के हिसाब से परिवर्तन करने में सफ़ल न हो पा रही हो. बंगाल में पार्टी कैडर को लोगों को विश्वास में लेकर पार्टी नेताओं को समझाना चाहिए था कि उद्योगों के लिए कृषि योग्य जमीन के बजाय उद्योग के लिए बंजर जमीन का इस्तेमाल किया जाये. अगर ऐसा होता तो स्थिति कुछ अलग हो सकती थी. लेकिन पार्टी कैडर में पिछले 34 वर्षो में भ्रष्टाचार और निकम्मापन व्याप्त हो गया. जिसे पार्टी ने भी सुधारने का प्रयास नहीं किया.
अब बंगाल की जनता ने लेफ्ट के टूटे वायदों को पूरा करने के लिए नया निजाम चुना है. ममता बनर्जी की यात्रा कितनी लंबी होगी यह तो आने वाला वक्त बतायेगा. लेफ्ट की इस हार को विचारधारा की नही बल्कि राजनीति की विफ़लता कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. लोकतंत्र में अपने साधन के अनुसार विचारों से तालमेल नहीं रखने से विचारधारा पर संकट आने लगता है. पार्टी इससे सीख लेकर इसमें सुधार कर सकती है. क्योंकि, पश्चिम बंगाल में नौ फ़ीसदी वोटों के अंतर से हार हुई है. इस अंतर को पाटना कोई बड़ी बात नहीं होती है. वहीं केरल में एक फ़ीसदी से भी कम वोटों के अंतर से पार्टी हारी है. यहां वोट धर्म के आधार पर बंटे हैं, जो चिंता की बात हो सकती है. पिछले तीन दशक से अधिक समय से पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को विपक्ष में रहने का अनुभव नहीं है. लेफ्ट के लिए बंगाल में विपक्ष में रहना आसान नहीं होगा. पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा से बचने की जरूरत है. लेकिन हिंसा का स्तर शासन के वातावरण पर निर्भर करेगा.
कभी भारत की राजनीति और बौद्धिक जीवन में कम्युनिस्ट विचारधारा का बोलबाला था. लेकिन आज मध्य वर्ग की युवा पीढ़ी को कम्युनिस्ट अपनी ओर आकर्षित करने में विफ़ल हैं. पहले समाज के हर स्तर पर, शहर, कस्बों, गांवों के पढ़े-लिखे लोगों का लेफ्ट के साथ भावनात्मक जुड़ाव रहता था. लेकिन आज के युवाओं की सोच में परिवर्तन आ गया है. एक लाख मासिक सौलरी पाने वाले युवाओं के रहन-सहन का तरीका तेजी से बदल रहा है. उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा आकर्षित नहीं कर रही है. कम्युनिस्टों से नयी पीढ़ी का अलगाव चिंता की बात है. पार्टी को इस मुद्दे पर गहन विचार करना होगा, नहीं तो बौद्धिक शक्ति‍ के केंद्र के तौर पर पहचाने जाने वाले दल की शक्ति‍ क्षीण होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.
www.prabhatkhabar.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें