शनिवार, 14 मई 2011

भूमि अधिग्रहण कानून बेहद खतरनाक है

भूमि अधिग्रहण कानून में सार्वजनिक हित के नाम पर भूमि अधिग्रहण करने का प्रावधान है। लेकिन सार्वजनिक हित को परिभाषित करने का काम कंपनियों के हवाले छोड़ दिया गया है। उद्योगों के लिए या फिर एक्सपे्रस-वे के लिए जमीन देने का फैसला जनता नहीं, बल्कि सरकार कर रही है। जबकि जनता की भागीदारी केबिना सार्वजनिक हित को परिभाषित करना सही नहीं है। यह कानून एवं अधिग्रहण का कृत्य बिल्कुल जनविरोधी है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने नोएडा में भूमि अधिग्रहण को रद्द करके एकदम उचित निर्णय लिया है।

फिलहाल जो नया कानून सरकार बनाने जा रही है, उसमें कहा जा रहा है कि 70 फीसदी जमीन कंपनियां स्वयं अधिगृहीत कर सकती हैं, जबकि 30 फीसदी सरकार अधिग्रहण करके देगी। पुराने कानून को खत्म करकेसबसे पहले यह देखना होगा कि भारत में कुल कितनी जमीन है, उसमें से कृषि भूमि कितनी है, अतिरिक्त जमीन में से किसको कितना बांटना है, आवासीय पट्टा किन लोगों को देना है इत्यादि। उसकेबाद सीलिंग में जमीन निकाल के भूमिहीनों को देने और अधबंटाई कानून को लागू करने की बात आती है। इस एजेंडे पर, जो काफी समय से लंबित है, सरकार कुछ नहीं कर रही, जबकि भूमि अधिग्रहण कानून की कमियों का दुरुपयोग करके भ्रष्ट एवं ताकतवर लोगों को अधिक मजबूत बना रही है।

नया कानून जो बनेगा, इससे कुछ उम्मीद नहीं की जा सकती। नए कानून में सरकार कंपनियों को कह रही है, आपको जितनी जमीन चाहिए खरीद लो, हम बीच में नहीं पड़ेंगे। यदि एक आदमी दूसरे आदमी का कुरता खींच रहा है और सरकार कह दे कि हम बीच में नहीं पड़ेंगे, तो ऐसे नहीं चलेगा। इस कानून में कई छेद हैं, इससे किसानों को कुछ मिलने वाला नहीं है। जमीन खरीदने का अधिकार कंपनियों को दे देंगे, तो वह धन, बल और शराब केबूते लोगों से दस्तख्त करा लेंगी। यदि इस देश के जल, जंगल और जमीन को कंपनियों केहवाले कर देंगे, तो गरीबों के पास आखिर क्या बचेगा!
(अमर उजाला से साभार)

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