शनिवार, 21 मई 2011

फासीवाद, फैज़ और गांधी

फतह मोहम्मद मलिक

अनुवाद और प्रस्तुति : शकील सिद्दीकी
दूसरे महायुद्ध के दौरान फासीवाद के बढ़ते खतरे के चलते ब्रिटिश औपनिवेशिक भारतीय सेना में कई लेखक व बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। प्रसिद्ध पाकिस्तानी कवि फैज अहमद फैज भी उनमें थे। फैज का यह कदम आज शताब्दी वर्ष में भी विवाद का विषय बना हुआ है। अज्ञेय के ब्रिटिश सेना में शामिल होने के संदर्भ में भी इस लेख को देखा जा सकता है। – संपादक

फैज की अपार लोकप्रियता व सम्मान के बावजूद उनके द्वारा लिखे गए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में ब्रिटिश सेना में शामिल होने का फैसला भी इनमें से एक है। सुप्रसिद्ध कथाकार तथा प्रगतिशील आंदोलन के सहभागी अहमद नदीम कसिमी ने खासी चर्चा का विषय बने अपने एक लेख में इस ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा है। फैज के ब्रिटिश सेना में शामिल होने के फैसले को लेकर कुछ अन्य लोगों ने भी आपत्तियां उठाई हैं। प्रस्तुत लेख इन आपत्तियों-आशंकाओं के उन्मूलन का उद्देश्य लेकर ही लिखा गया है। प्रोफेसर फतेह मुहम्मद मलिक पाकिस्तान के चर्चित वामपंथी विचारक व रचनाकार हैं। उनका यह लेख अखबारे उर्दू इस्लामाबाद के फरवरी, 2011 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आपत्तियों का उत्तर देते हुए मलिक ने फैज की विख्यात नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ का विशेष उल्लेख किया है, साथ ही लंदन से प्रकाशित वर्डिक्ट ऑफ इंडिया का भी। लेख में दावा किया गया है कि यह नज्म दूसरे महायुद्ध के दौरान हिटलर व जापान की आक्रामकता के प्रति महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को लक्षित करके लिखी गई है।
यह नज्म 1952-54 के बीच लिखी गई जब फैज रावलपिंडी साजिश केस में हैदराबाद तथा अन्य जेलों में बंद थे। यह नज्म दस्तेसबा में संकलित है। लेख में गांधीजी के हिटलर व जापान के प्रति उदार दृष्टिकोण से कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद की तीखी असहमति को रेखांकित करते हुए इस नज्म को मौलाना आजाद के दृष्टिकोण से प्रभावित बताया गया है। जाहिर सी बात है ऐसे में गांधी जी को व्यंग्य का निशाना बनना ही था। स्वयं प्रो. मलिक ने गांधीजी को फासिस्ट व तानाशाह प्रवृत्ति का इंगित करते हुए विमर्श को तीखा बनाने का प्रयास किया है। बहरहाल लेख फैज की एक महत्वपूर्ण नज्म के ऐतिहासिक संदर्भों को तो खोलता ही है साथ ही स्वतंत्रता पूर्व के एक अति गंभीर दौर के बारे में कुछ सवाल भी खड़े करता है। फैज के जन्म शताब्दी वर्ष में लेख की विशिष्ट प्रासंगिकता है। बावजूद इसके कि लेख में उल्लिखित कुछ तथ्यों को इतिहास ने गलत सिद्ध कर दिया है। लेख में उल्लिखित गांधी जी व कांग्रेस के चरित्र से भी असहमतियां हो सकती हैं। – श.सि.
पिछले दिनों इस्लामाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ के चंद शेष रह गए लोगों में इस प्रश्न पर गरमागरम बहस रही कि उनके रफीक व रहनुमा ने ब्रतानिवी फौज की मुलाजमत क्यों इख्तियार की थी। अहमद नदीम कसिमी ने मासिर (मार्च 2001) में प्रकाशित एक लेख में फैज पर यह इल्जाम लगाया था कि साम्राज्यवाद विरोधी होते हुए भी फैज ने साम्राजी सेना में शामिल होना स्वीकार कर लिया था, अब्दुलाह मलिक ने फैजको इस इल्जाम से बरी करने की इच्छा में ‘फैज और ब्रतानिवी फौज’ शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा। मैं सोचता हूं कि फैज आखिर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में क्यों शामिल हुए थे का जवाब एक-दूसरे सवाल में पोशीदा है कि फैज ने ब्रिटिश सेना का आला ओहदा क्यों छोड़ दिया था? कर्नल फैज अहमद फैज ने अपनी जिंदगी ही में इन दोनों सवालों का तसल्ली बख़्श जवाब दे रखा था। ब्रतानिवी हिंद फौज में ऊंचे पद से त्यागपत्र देने के फैसले पर रोशनी डालते हुए फैज बताते हैं:
”जब जंग खात्मे को पहुंची और आजादी की मंजिल करीब आने लगी तो इधर ब्रतानिवी हुकूमत ने हिंदुस्तान के संवैधानिक भविष्य के मंसूबे बनाने शुरू किए और उधर पाकिस्तान और मुस्लिम लीग की तहरीक उरूज पर पहुंची। मैं उन दिनों रावलपिंडी में था, जो उत्तरी कमान का मुख्यालय था। मैं उस इलाके के जनसंपर्क की निगरानी कर रहा था और उनकी खुफिया बैठकों में भी मुझे और चंद हिंदुस्तानी अफसरों को शामिल कर लिया जाता था। इससे दो-तीन बातें सामने आईं:
एक, इस जंग के बाद अंग्रेज और अमेरिकी अब उत्तरी खतरे या सोवियत रूस से जंग की पेश कदमियां कर रहे थे।
दो, उन्हें एक आजाद और स्वतंत्र पाकिस्तान का वजूद में आना गंवारा नहीं।
तीन, अगर हिंदुस्तान को आजादी मिल भी जाए या हिंदुस्तान तक्सीम भी हो जाए तो फौज किसी सूरत तक्सीम नहीं होगी और उसकी कमान अंग्रेजों के हाथ में ही रहेगी।
इसका सबसे बड़ा सुबूत उस वक्त मिला जब वायसराय लार्ड वेवेल 1946 के मार्च या अप्रैल में पिंडी अपना फौजी दरबार करने आए। उत्तरी खतरे के काल्पनिक भय की बिना पर साम्राज्यवादी हिंदुस्तान को रूस के खिलाफ ठिकाना बनाने की फिक्र में थे। रूस का समाजवादी राष्ट्र उनके दिल में कांटे की तरह खटक रहा था। उन्होंने उसे मटियामेट करने के मंसूबे बनाने शुरू कर दिए थे। लिहाजा हिंदुस्तान को मुकम्मल तौर पर आजाद करने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
हमने जब यह सूरते हाल देखी और सुनी तो भौंचक्के रह गए। तोता चश्मी का मुहावरा सुना था मगर उसका अमली रूप देखकर हमारे पांव तले से जमीन खिसक गई। कल तक अंग्रेज और अमेरिका रूस के साथ शाना ब शाना हिटलर, टोजो और मुसोलिनी के खिलाफ मैदान में थे और आज ये रूस के खिलाफ साजिशों में मशगूल हो गए। हमने ठान ली कि हमारी जंग अब नए दौर में दाखिल हो गई है। हिंदुस्तान की मुकम्मल आजादी और पाकिस्तान के कयाम की जद्दोजहद में हमारा ईमान ज्यादा पुख़्ता हो गया। समाजवादी रूस के खिलाफ नाहंजारों की साजिशों को नंगा करना भी जरूरी हो गया था। हमारे लिए संघर्ष का अर्थ तो नहीं बदला मगर मैदाने अमल और हमारी मंजिल बदल चुकी थी। हम अपने वतन, अपने उसूलों और विश्व समाजवाद से गद्दारी नहीं कर सकते थे। मैंने पूछा, फिर?
फैज साहब घड़ी की सुई घुमाते हुए बोले, ”फिर फौज से कूच का वक्त आ पहुंचा।’’ (हम कि ठहरे अजनबी—पृ.77-79) फैज के इस बयान से यह हकीकत रो$जे रौशन की तरह साफ हो जाती है कि उन्होंने ब्रतानिवी हिंद में फौज के ऊंचे ओहदे को छोडऩे का फैसला नजरियाती बुनियादों पर किया था। जब उन पर यह बात साबित हो गई कि अंग्रेज हुकूमत पाकिस्तान के कय़ाम की मखालिफ है और वह कयामे पाकिस्तान को रोकने के लिए सर तोड़ कोशिशों में मसरूफ है, कल के दोस्त आज दुश्मन बन गए हैं और सरमायापरस्त दुनिया और समाजवादी दुनिया के बीच एक सर्द जंग की सूरते हाल यकीनी होकर रह गई है तो उन्होंने अपने सुख सुविधा का ख्याल किए बगैर फौजी ओहदे से त्यागपत्र देकर पाकिस्तान टाइम्स दैनिक का संपादक होना स्वीकार कर लिया। यह वह जमाना था जब कायदे आज़म के हुक्म पर मियां इफ्तिखार उद्दीन कयामे पाकिस्तान से पहले ही पाकिस्तान टाइम्स शुरू करने के प्रबंध में व्यस्त थे। यों फैज अहमद फैज ने अपने राष्ट्रीय विचार तथा अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लक्ष्यों की खातिर फौजी कर्नल की जिंदगी की सुविधाओं को तज दिया और एक पत्रकार की कठिनाइयों भरी गरीब दुनिया में रहना स्वीकार किया। ब्रतानिवी हिंद की फौज में सम्मिलित होने की वजह भी सिर्फ यही थी। डॉक्टर अयूब मिर्जा ने एक गुफ्तगू के दौरान जब अपनी इस उलझन का बयान किया जिसमें अहमद नदीम कासमी भी शामिल थे, तो फैज ने कहा था:
”भई इसमें कोई उलझन की बात नहीं है, हमने फौज इसलिए ज्वायन की थी कि फासिस्ट ताकतों के खिलाफ सरगर्मेअमल हों।’’
यह वह जमाना था जब जापानी फासीवाद के तारीक साये पूरे एशिया को अपनी लपेट में लेने को बेताब थे और जर्मनी फासीवाद ने योरोप से बढ़ और फैलकर साम्यवादी रूस पर अपना प्रभुत्व कायम करने के स्वप्न को पाने की दिशा में व्यावहारिक कोशिशें शुरू कर दी थीं। ज्यों ही हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया समाजवाद समर्थक हिंदुस्तानी बुद्धिजीवियों ने फासीवाद के खिलाफ पूंजीवाद समर्थकों के युद्ध को ‘यह जंग है, जंगे आजादी’ कहकर अपनी जंग मान लिया तो फैज भी इन बुद्धिजीवियों में से एक थे।
फौजी सेवा के दौरान फैज का दृष्टिकोण और कार्यपद्धति सैद्धांतिक थे, लाभपरक हर्गिज नहीं। अगर हम उस काल में कही गई फैज की नज्मों को अंदरूनी शहादत (साक्ष्य) के तौर पर पढ़ें तो बात बहुत साफ हो जाती है।
”तीरगी है कि उमड़ती ही चली आती है’’
”फिर नूरे सहर दस्ते गरीबाँ है सहर से’’
”मेरे हम दम मेरे दोस्त’’
और इन सबसे बढ़कर नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ में फैज का न$जरियाती ईमान आईने की मानिंद रौशन है। खुद फैज ने एक जगह लिखा है कि नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ सियासी लीडर से मुराद महात्मा गांधी है। अगर हम इस नज्म को मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम के छठे अध्याय ‘अनइजी इंटरवल’ में बयान की गई ऐतिहासिक सच्चाइयों की रौशनी में समझने की कोशिश करें तो उस दौर में फैज के इंकिलाबी, सियासी दृष्टिकोण से बखूबी वाकिफ हो सकेंगे। उचित यह है कि हम इस सियासी नज्म को एक बार फिर पढ़ें और ऐतिहासिक सच्चाइयों की रौशनी में समझें:
सियासी लीडर के नाम
सालहासाल यह बे आसरा जकड़े हुए हाथ
रात के सख्त व स्याह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समंदर से हो सरगर्म सते$ज
जिस तरह तीतरी कुहसार पे यलगार करे
और जब रात के संगीन व स्याह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नजर आती है
जा बजा नूर ने एक जाल सा बुन रखा है
दूर से सुबह की धड़कन की सदा आती है
और कुछ भी तो नहीं पास, यही हाथ तो है
तेरा सरमाया, तेरी आस यही हाथ तो है
तुझको मंजूर नहीं गल्बा-ए-जुल्मत, लेकिन
तुझको मंजूर है ये हाथ कलम हो जाए
और मशरिक की कमींगह में धड़कता हुआ दिन
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए
यह नज्म एक ऐसे जमाने में वजूद में आई जब हिटलर ने पूरे योरोप पर प्रभुत्व पाने के संकल्पों की खातिर समाजवादी रूस पर हमला कर दिया था।
हिटलर के इस कदम ने पूंजीवादी पश्चिमी जगत और समाजवादी रूस को फासीवाद का रास्ता रोकने के उद्देश्य में संगठित कर दिया था। हिटलर का पल्ला भारी नजर आने लगा था और उधर दक्षिणी एशिया पर जापानी फासीवाद का आतंक फैलता व बढ़ता नजर आ रहा था। कुल हिंद कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद यह जानकर हैरान ओ परेशान थे कि गांधीजी की कियादत में कांग्रेस की कार्यसमिति खुलकर फासीवाद की हिमायत में सक्रिय थी। मौलाना अबुल कलाम आजाद फासीवाद के विरोध में एकदम अकेले थे। जवाहर लाल नेहरू एक हद तक मौलाना के दृष्टिकोण से सहमत थे मगर गांधीजी के प्रभाव में आकर मौलाना की हिमायत में जबान खोलते डरते थे।
यह बात मौलाना आजाद की सत्य प्रियता, संवेदनशीलता और अपनी बात कहने की साहसिकता का मुंह बोलता सुबूत है कि उन्होंने गांधी जी की फासीवाद परस्ती के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। कुल हिंद कांग्रेस कमेटी के इलाहाबाद अधिवेशन (29 अप्रैल से 2 मई, 1942) की रूदाद का हवाला देते हुए मौलाना ने अपनी आत्मकथा इंडिया विंस फ्रीडम में लिखा है:
”मैंने उन लोगों को सख्त आलोचना का शिकार बनाया जो इस खाम ख्याली में मुब्तिला थे कि जापान हिंदुस्तान को अंग्रेजों से छीनकर आजाद कर देगा।
कौमी हित का पहला तकाजा यह है कि हम मौजूदा गैर मुल्की आकाओं को नए गैर मुल्की आकाओं से बदलने का ख्याल अपने दिल से निकाल दें, ब्रतानिया से अपने तमामतर मतभेदों के बावजूद महाद्वीप पर जापान की संभावित आक्रामकता का डट कर मुकाबला करें और जापानी फासिसिज्म का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वागत हरगिज न करें।’’
महात्मा गांधी को इस तर्क पद्धति से कड़ी असहमति थी, उनके प्रभाव में कांग्रेस के बड़े नेता फासीवाद की हिमायत में सक्रिय थे। चुनांचे मौलाना आजाद व्यक्तिगत तौर पर गांधीजी की सेवा में हाजिर हुए और उन्हें अपना हमनवा बनाने की यों कोशिश की:
”यह मेरे ईमान का हिस्सा है कि जापानियों को सरजमीने हिंद पर कदम रखने से रोकूं। यह हमारा पवित्र कत्र्तव्य है कि हम तमाम साधनों को उपयोग में लाकर जापानी आक्रामकता का हर मुमकिन विरोध करें। मैं ब्रितानवी साम्राज्य की जगह जापानी फासीवाद को ला बिठाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। यह जानकर मैं हैरत व ताज्जुब में पड़ गया कि गांधीजी पर मेरे तर्कों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ा। महात्मा जी ने बड़े निश्चय व स्पष्टता के साथ ऐलान किया कि जापानी हिंदुस्तान में हमारे दुश्मन बन कर नहीं आएंगे। मुझे जापानियों के वायदों पर बिल्कुल एतबार नहीं आया। इसके बरक्स मैं इन अंदेशों में मुब्तिला हो गया कि अगर खुदा ना ख़्वास्ता जापानियों ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से निकाल कर यहां खुद अपने कदम जमा लिए तो फिर हमारी तहरीके आजादी का हश्र क्या होगा?’’
अपने इन अंदेशों को मौलाना आजाद ने कुल हिंद कांग्रेस कमेटी के सम्मेलन में उत्तेजक सवालों के रूप में पेश किया मगर यह जानकर हैरत$जदा रह गए कि:
”लंबे चौड़े बहस-मुबाहिसे के बाद मेम्बरान इस नतीजे पर पहुंचे कि हमें गांधीजी की समझदारी (मत) पर मुकम्मल भरोसा करना चाहिए। अगर गांधीजी के नेतृत्व पर हमारा पुख्ता यकीन कायम रहा तो वह मौजूदा और आइंदा मुश्किलात का कोई न कोई हल जरूर निकाल लेंगे…गांधीजी के दृष्टिकोण से मेेरे इस भरपूर मतभेद का नतीजा उस वक्त सामने आया जब महात्मा जी ने मुझे एक खत के जरिए यह पैगाम दिया कि अगर कांग्रेस यह चाहती है कि मैं (गांधी) तहरीके आजादी का नेतृत्व करूं तो फिर आप कांग्रेस की सदारत से त्याग पत्र देने के साथ-साथ कार्यसमिति की सदस्यता से भी मुक्त हो जाएं।’’ (पृ.स.72-78)
महात्मा गांधी का यह खत सात जुलाई सन् 42 को सुबह सवेरे मौलाना आजाद को पहुंचाया गया। इस नादिर शाही हुक्म पर मुझे वर्डिक्ट ऑफ इंडिया के ब्रितानिवी लेखक ब्योरिली निकल्सन याद आते हैं जिन्होंने अपनी किताब में पहली बार गांधीजी और हिटलर के चिंतन व व्यवहार में और कांग्रेस व नाजी पार्टियों की रणनीति व रणनीतिक व्यवहार में गहरी समानता की निशानदेही की थी। पहली बार 1944 में लंदन से प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने महात्मा गांधी और इंडियन नेशनल कांग्रेस पर जो अध्याय लिखा है उसका शीर्षक ‘हेल हिंदू’ है। यहां नाजियों के लोकप्रिय नारे से अर्थ की समानता ही नहीं बल्कि लेखक ने निश्चयपूर्वक लिखा है: ”यहां हमें गांधी से बतौर व्यक्ति कोई सरोकार नहीं है। यहां हम उनकी पैदा करदा फासिस्ट संस्था कांग्रेस के चरित्र से बहस कर रहे हैं। यह संगठन अपने तानाशाह महात्मा गांधी के कोड़े के जरा से कंपन पर निष्ठापूर्वक सक्रिय हो जाता है। कांग्रेस हमारे समय की उन्नत और सौ फीसद खालिस फासिस्ट संगठन है। पहला, यह कि यह सैद्धांतिक तौर पर एक फासिस्ट संगठन है, दूसरा, यह कि व्यवहारिक रूप से यह फासिस्ट संस्था है। यह कि गांधी तानाशाही का दूसरा नाम है। तीसरा, यह कि यह संस्था अपने फासिस्ट होने का खुला ऐलान करने से संकोच नहीं करती… 1941 में जर्मन रेडियो ने हिंदुस्तान के लिए एक विशेष प्रसारण में घोषणा की थी कि जर्मन जनता महात्मा गांधी का उतना ही सम्मान करती है जितना कि एडाल्फ हिटलर का। महान नेता हिटलर के भी वही सिद्धांत हैं जो महात्मा गांधी के। एक निष्पक्ष ब्रितानिवी बुद्धिजीवी की यह टिप्पणी महात्मा गांधी की फासीवादी दोस्ती और इंडियन नेशनल कांग्रेस पर उनकी तानाशाही के प्रभाव में कांग्रेस की फासिस्ट कार्य पद्धति का खुला सुबूत है।’’ (पृ.सं.161-165)
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कालांतर में महात्मा गांधी के फासिस्ट ख्यालात और एकाधिकारवादी कार्य पद्धति को निशाना बनाया है, वह फैज की नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ में भी बड़े हसीन और दिलनशीं अंदाज में मौजूद है। पहले बंद में शायर ने गुलाम, दमित और बंदी अवाम की सालहासाल पर फैली हुई जद्दोजहद को जिस अनुभूति परकता और संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है, वह आधुनिक शायरी में अपनी मिसाल आप है।
सल्हा साल ये बे आसरा जकड़े हुए हाथ
रात के सख्त व स्याह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समंदर से हो सरगर्म सतेज
जिस तरह तीतरी कुहसार पे यलगार करे
और अब रात के संगीन व स्याह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नजर जाती है
जा-ब-जा नूर ने एक जाल सा बुन रखा है
दूर से सुबह की धड़कन की सदा आती है
तिनकों की समंदर से जंग में साबित कदमी और तीतरियों की राहत की परवाह किए बगैर अवाम की दृढ़ निश्चयता डेढ़ सदी का किस्सा है, दो-चार बरस की बात नहीं। इस इंकिलाबी जद्दोजहद के नतीजे में रात की सेना पराजित होती नजर आती है। रात का लिबास फट चुका है और जा-ब-जा सुबह-सवेरे का नूर अपनी झलक दिखा रहा है और सुबहे आजादी की धड़कन की सदाएं सुनाई देने लगी हैं। मगर त्रासदी यह है कि महात्मा गांधी आजादी की भोर की राह हमवार करने की बजाए ‘आकाओं की तब्दीली’ का उसूल अपना कर थक हार कर पसपा होते हुए ब्रितानिवी साम्राज्य की जगह एक नए ताजा दम जापानी साम्राज्य का स्वागत करने की तैयारियों में मसरूफ हैं। नज्म के दूसरे और आखिरी बन्द में फैज बड़ी दर्दमंदी व गहरे दुख के साथ महात्मा गांधी को संबोधित करते हैं:
तुझको मंजूर नहीं गल्बाए-जुल्मत लेकिन
तुझको मंजूर है ये हाथ कलम हो जाएं
और मशरि$क की कमीं गह में धड़कता हुआ दिल
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए।
यह अजीब संयोग है कि महात्मा गांधी को संबोधित करके फैज ने जो अटल और आतशी सवाल उठाया था, आधी सदी बाद उद्घाटित होने वाले तथ्यों के मुताबिक यही सवाल मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ऑल इंडिया कांग्रेस की वर्किंग कमेटी के सदस्यों के सामने भी उठाया था। उनसे मायूस होकर महात्मा गांधी ने इस सवाल पर तर्कों को दरकिनार करते हुए बहस करने से इंकार कर दिया था और वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने बुद्धि व तर्क से काम लेने के बजाए गांधीजी की तानाशाही के सामने सर झुका दिए थे।
फैज की इस नज्म को हमारे प्रगतिशील और रौशन ख्याल बुद्धिजीवियों ने इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश कभी नहीं की। यही वजह है कि अहमद नदीम कासिमी ब्रितानिवी फौज में फैज के शामिल होने को सही संदर्भों में नहीं देख पाए। तथ्य यह है कि फैज एक सैद्धांतिक जंग में बहादुरी की दाद देने के जज़्बे से ब्रिटिश फौज में शामिल हुए थे और सूरज की रौशनी-सी सच्चाई से वाकिफ होते ही सैद्धांतिक आधार पर ही इस फौज के आला ओहदे से त्याग पत्र दे दिया था।
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