बुधवार, 3 अगस्त 2011

लोकपाल से आगे


विनीत नारायण::
अन्ना हजारे और उनके आंदोलन से जुड़े अरविंद केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश और किरण बेदी ने पिछले दिनों कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इससे यह स्पष्ट हुआ कि इस विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं। प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के खिलाफ तो बेशक कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती।  भ्रष्टाचार बढ़ाने में कुछ औद्योगिक घरानों की भी बड़ी भूमिका है, जो समय-समय पर राजनीतिक पार्टियों की मदद करते हैं और समय आने पर इसका लाभ लेते हैं। लिहाजा जब तक तमाम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। फिर यह भी याद रखना होगा कि लोकपाल सभी मर्ज की दवा नहीं है। हमने जैन हवाला कांड में 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और बड़े अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट दाखिल करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोड़ा, ए राजा और सुरेश कलमाडी जैसे राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं।  अगर इन्हें सजा नहीं मिली, तो हमें सीबीआई की जांच प्रक्रिया की रुकावटों को दूर करने के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्तता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से तमाम पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज कर एक नई व्यवस्था खड़ी करना बुद्धिमानी नहीं होगा, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है। बेशक न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, लेकिन न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना भी सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अलग से ‘न्यायपाल’ जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि उसकी और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अंतर होता है।  प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपने लोकतंत्र में ‘चैक और बैलेंस’ की जो व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब न्यायपालिका ही विवादों से मुक्त नहीं है, तो फिर दूसरे की बात भला क्या करें! ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका पर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया गया, तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा और कहीं बचने का रास्ता भी नहीं मिलेगा।  भूलना नहीं चाहिए कि भ्रष्टाचार का तंत्र बड़ा विशाल है। मसलन, जो स्वयंसेवी संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। ऐसे सभी मामलों को जांच के दायरे में लेना चाहिए। पर इस विधेयक में अभी तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।  भ्रष्टाचार से आम हिंदुस्तानी दुखी है और इससे निजात पाना चाहता है। इसलिए अन्ना हजारे का अनशन शहरी मध्यवर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इस आंदोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण विवादों में घिरे हैं, फिर भी अन्ना उन्हें उस समिति में बनाए हुए हैं, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति को चुनौती देने वाली प्रशांत भूषण की जनहित याचिका में तर्क दिया गया था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। वही तर्क शांति और प्रशांत भूषण पर भी लागू होना चाहिए।  फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें, तब भी यह सवाल अपनी जगह है ही कि इस ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घंटे का भी समय नहीं दिया और अपने स्तर पर चयन कर विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट ऑफ इंडिया सोसाइटी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने ‘लोकपाल विधेयक’ पर उनका अरसे से चल रहा आंदोलन यह कहकर बंद करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे, फिर उनको ठेंगा दिखा दिया।  योगगुरु बाबा रामदेव का भी क्षोभ है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टीवी चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर जंतर-मंतर पर धरना शुरू होते ही अन्ना हजारे के लोगों ने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वह इन्हें साथ लिए बिना लड़ना चाहते हैं।
www.amarujala.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें