मंगलवार, 16 अगस्त 2011

बीमारी नहीं, लक्षण है भ्रष्टाचार

मार्क टुली


किसी भी मुल्क के लिए चौंसठ वर्ष का सफर कम नहीं होता। जिस दौर में भारत ने आजादी हासिल की थी, वह संक्रमण का दौर था। देश में गरीबी थी, बेरोजगारी थी, अशिक्षा थी, स्वास्थ्य क्षेत्र का बुरा हाल था, चारों ओर अनिश्चितता का माहौल था। इन सभी मोरचों पर बीते छह दशकों में काफी प्रगति हुई है, रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं, साक्षरता की दर बढ़ी है, औसत उम्र 65 वर्ष से ज्यादा हो चुकी है। लेकिन जैसी प्रगति होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई, खास तौर से गरीबी कम नहीं हो सकी है। मैं बार-बार इस बात को रेखांकित करता हूं कि सरकारी प्रणाली आज भी अंगरेजी राज की छाया से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है। यह इस देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी है।
दरअसल स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना तो लिया, लेकिन उसका लाभ आम आदमी तक ठीक से नहीं पहुंचा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि औपनिवेशिक प्रणाली में जो खामियां थीं, उन्हें दूर नहीं किया गया। जो संशोधन और सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हुए। मसलन भारत में आज भी अंगरेजों के जमाने के अनेक कानून लागू हैं। देश की तरक्की और भविष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि जब तक लोकतंत्र के पाए मजबूत नहीं होंगे, देश मजबूत नहीं हो सकता। संसद, नौकरशाही और न्यायपालिका लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ हैं। इन्हें एक-दूसरे के क्षेत्र में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। भारत में मुश्किल यह है कि राजनीतिक वर्ग अपने को सर्वोच्च समझने लगता है। राजनेताओं को लगता है कि चूंकि संसद सर्वोच्च है, इसलिए वह लोकतंत्र की दूसरी संस्थाओं के कामकाज में भी दखल दे सकते हैं। जबकि संसद की सर्वोच्चता का कतई यह मतलब नहीं है। दूसरी बात, आज भी देश में बाबू राज चल रहा है। नतीजतन कोई भी सरकारी काम करवाने में काफी वक्त लगता है, फाइलें अटकी रह जाती हैं। कंप्यूटर भी इस सुस्ती और अक्षमता को दूर नहीं कर सका है।
जाहिर है, भारत के सामने प्रशासनिक सुधार और सुशासन दो बड़ी चुनौतियां हैं। आज भ्रष्टाचार का मुद्दा गरम है, वह इनसे ही जुड़ा हुआ है। भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हजारे का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार आज एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि देश की बड़ी आबादी का इससे रोज सामना होता है। सवाल यह है कि इससे कैसे निपटा जाए। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन हुआ था, उस आंदोलन को काफी हद तक सफलता भी मिली। लेकिन अंत में कुछ नहीं हुआ और देश फिर उसी ढर्रे पर आ गया। भ्रष्टाचार कोई बीमारी नहीं है, यह बीमारी का लक्षण है, इसलिए यह सोचना पड़ेगा कि आगे क्या किया जाए।
इसलिए कई बार भ्रष्टाचार और प्रशासनिक सुधार के मुद्दों की चर्चा करते हुए राजनीतिक व्यवस्था पर भी सवाल उठाए जाते हैं। मगर हम इसे लोकतंत्र की खामी नहीं कह सकते। भारत के लोकतंत्र ने तो एक मिसाल ही कायम की है। भारत के साथ ही बने पाकिस्तान और फिर उससे अलग होकर नया राष्ट्र बने बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों की ओर हम देखें, तो पता चलता है कि भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत है। बांग्लादेश ने जब लोकतंत्र को छोड़कर फौजी हुकूमत की राह पकड़ी, तो उसकी दुर्दशा हो गई। मगर अब वह फिर लोकतंत्र की राह पर है और तरक्की कर रहा है।
लोग आज भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की बात करने लगे हैं, जबकि देश की एक बड़ी आबादी 20 रुपये से कम में जीने को मजबूर है। हमारी सबसे बड़ी चिंता यही होनी चाहिए। वर्तमान का ठीक से सामना किया जाए, तभी भविष्य अच्छा हो सकता है। नहीं तो आनेवाले कल में मुश्किल ज्यादा बड़ी हो सकती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें