बुधवार, 14 सितंबर 2011

केंद्र लाचार, असहाय या अक्षम!

।। हरिवंश ।।
खुद सरकार के कर्ता-धर्ता लोगों के बयानों से ही आतंकवाद के प्रति सरकार की भूमिका, लापरवाही या विफलता जाहिर है. इसी तरह आतंकवाद के बाद दूसरा सबसे बड़ा मामला भ्रष्टाचार का है. उसके प्रति भी केंद्र का रुख समझ लें. प्रशासनिक भ्रष्टाचार से निबटने में बिहार ने वह काम कर कर दिखाया है, जो पूरे देश के लिए प्रेरक, सबक और अनुसरण करने योग्य है. भ्रष्टाचार से बने आइएएस के घर में स्कूल खोल कर. यह कहना सही होगा कि नौकरशाहों (जिसे लोहिया असली व स्थायी राजा कहते थे) के भ्रष्टाचार से निबटने की दिशा में बिहार ने देश को रोशनी दिखायी है. अगुवाई की है.
चंद्रशेखर जी की कही एक बात याद आती है. जेबी कृपलानी के प्रसंग में. पर देश और भविष्य से जुड़ी. कांग्रेस बंटवारे (1969) के पहले की बात है. युवा तुर्क के रूप में चंद्रशेखर और उनकी टोली, वाम कदमों की ओर कांग्रेस को ले जाना चाहते थे. वैचारिक संघर्ष तेज हो गया था. कांग्रेस के अंदर. विभिन्न सवालों पर ध्रुवीकरण. मुंबई कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक में, एक शब्द को लेकर 12 घंटे बहस चली. चंद्रशेखर अकेले. अन्य एक तरफ़. इंदिरा जी के हस्तक्षेप से रात्रि भोजन के लिए बैठक खत्म हुई. ये बातें, उन दिनों मीडिया में सुर्खियों में थीं. कांग्रेस के अंदर ‘सिंडिकेट’ गुट ताकतवर था.
चंद्रशेखर व उनके युवा साथी, इसके खिलाफ़ थे. उन्हीं दिनों की बात है. दादा (आदर से कृपलानी जी इसी विशेषण से जाने जाते थे) ‘सेंट्रल हाल’ (संसद) में बैठे थे. चंद्रशेखर जी को देखा, तो बुलवाया. कहा, तुम जो कर रहे हो, उसका परिणाम जानते हो? कांग्रेस टूट जायेगी. यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा. यह बात आजादी की लड़ाई का कद्दावर, विलक्षण, विद्वान, तेजस्वी और अनोखा नेता कह रहा था, जो आजादी के बाद ही कांग्रेस का रंग-ढंग देख, उसे त्याग दिया था. उनका कहना था कि यही एकमात्र पार्टी देश को जोड़नेवाली है. मध्य मार्गी है.
साझा संस्कृति और हर समूह को साथ लेकर चलने की बात करनेवाली. इसका स्वर्णिम अतीत रहा है, इसका विकल्प अब तक नहीं उभरा-बना है. अगर यह खत्म हो गयी, तो देश के हित में नहीं होगा.पर हाल के दिनों के इसके कामकाज, प्रवृत्ति और पहल को देख कर लगता है कि यह दल आत्मघात या आत्महत्या पर उतारू है. शायद इस दल के नेता नहीं जानते कि देश के लिए इस दल का क्या महत्व है? राज सत्ता का इकबाल, प्रताप, धमक, कानूनी डर और गलत करनेवालों के बीच भय खत्म हो जाये, तो फ़िर सरकार या संसद का क्या महत्व रह जायेगा?
हाल के देश के बड़े सात विस्फ़ोटों को लीजिए. इनमें से एक का भी सुराग नहीं मिल सका. 2010 में पुणे (17 मरे, 56 घायल) विस्फ़ोट, 2010 में ही बेंगलुरु स्टेडियम में विस्फ़ोट (17 घायल), 2010 में जामा मसजिद (2 मरे), 2010 में बनारस (2 मरे, 37 घायल), 2011 में मुंबई (26 मरे, 123 घायल ), 2010 में फ़िर से महरौली में विस्फ़ोट, अब 2011 में दिल्ली (12 मरे,76 घायल) में हुए विस्फ़ोटों की तह तक सरकार न पहुंच पाये, उसे आप क्या कहेंगे? यह विफ़लता नहीं, शासन के प्रताप, पहुंच और असर का जनाजा निकालना है. कांग्रेस यह आत्म मंथन भी भूल गयी कि वह गद्दी पर क्यों बैठी है?
शासन करने के लिए ही न ! वह शासन कहां है? ‘67 में गैर कांग्रेसी सरकारें जब विभिन्न राज्यों में शासन करने में नाकाम रहीं, तो विपक्ष में बैठी कांग्रेस का नारा था ’शासन करो या गद्दी छोड़ो’. आज यह नारा कांग्रेस के लिए लागू है या नहीं? इन सातों घटनाओं के वक्त प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या कांग्रेस के बड़े नेताओं के बयान देख कर विश्‍लेषण करें, अद्भुत निष्कर्ष मिलेंगे. हर बार इनके बयान में कुछ समान बातें-विचार मिलेंगे कि यह कायराना हमला है. कि यह विस्फ़ोट आतंकवादियों के फ़स्ट्रेशन (निराशा) को दिखाता है. वगैरह-वगैरह. कायर कौन है? मारनेवाले या हत्यारों का कुछ न कर पानेवाले? हाल के एक भी संगीन मामले के दोषी को न पकड़पाने वाले अक्षम हैं या इतने बड़े देश की कथित बड़ी सुरक्षा ताकत को लगातार चुनौती देनेवाले? कौन कायर है, बहादुर है, सक्षम या अक्षम या असहाय है? क्या कांग्रेस या शासक दल इसकी नयी परिभाषा गढ़ने में लगे हैं?
शीर्ष पर शासन की क्या स्थिति है? यह की बड़े पदों पर बैठे लोगों के बयानों से ही समझ व जान लें? दिल्ली विस्फ़ोट के बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था में खामियां हैं, आतंकवादी इसका लाभ उठा रहे हैं. विस्फ़ोट के तुरंत बाद गृहमंत्री चिदंबरम ने लोकसभा में कहा कि विस्फ़ोटों या खतरों की जो सूचना इंटेलिजेंस ने दी थी, उसकी सूचना जुलाई में दिल्ली पुलिस को दे दी गयी थी. उसी दिन भारत सरकार के आंतरिक सुरक्षा के विशेष सचिव यू के बंसल ने टीवी पर बार-बार बयान दिया कि जुलाई में मिली सूचनाएं (जिसके संबंध में गृहमंत्री ने संसद में कहा) साफ़ और स्पष्ट नहीं थीं. अब आप इन तीनों बयानों को पढ़ कर इनके अंतर को समझ लें. ये तीन वे व्यक्ति हैं, जिनके हाथ में हमारी आपकी नियति, भाग्य और जीवन है. तीनों बयान परस्पर विरोधी. ऊपर में अगर एक स्वर नहीं है, तो नीचे क्या होगा?
इसी तरह बनारस में विस्फ़ोट हो गये, तो गृह मंत्रालय ने कहा कि हमें सूचनाएं थी, हमने यूपी पुलिस को सचेत किया था. इसी तरह मुंबई विस्फ़ोटों के बाद भी गृह मंत्रालय ने कहा हमने महाराष्ट्र-मुंबई पुलिस को भी आगाह कर दिया था. ऊपर से भारत सरकार के एक मंत्री ने फ़रमाया कि अब तो लोग इन विस्फ़ोटों के आदी हो गये हैं. और जीवन रुकता नहीं है. जले या कटे पर नमक. क्या ऐसे ही सरकारें चलती हैं? हर बार विस्फ़ोट के पहले सूचना मिल जाती है फिर भी विस्फोट हो जाते हैं? क्या बताना चाहती है सरकार, ऐसे बयानों से? अपनी अक्षमता.
दिल्ली की एक महिला (जिसके पति मारे गये) ने प्रधानमंत्री से कहा, आप हमें दो लाख सरकारी मुआवजा न दें, हमसे चार लाख ले लें, मेरे जीवित पति को लौटा दें. यह सत्ता के प्रति एक पीड़ित व्यक्ति का दर्द-आह है, जिसे ऊपर बैठे लोग समझ नहीं पा रहे या समझ कर भी अपनी सुरक्षित दुनिया में हैं. खुद सरकार के कर्ता-धर्ता लोगों के बयानों से ही आतंकवाद के प्रति सरकार की भूमिका, लापरवाही या विफलता जाहिर है. इसी तरह आतंकवाद के बाद दूसरा सबसे बड़ा मामला भ्रष्टाचार का है. उसके प्रति भी केंद्र का रुख समझ लें. प्रशासनिक भ्रष्टाचार से निबटने में बिहार ने वह काम कर कर दिखाया है, जो पूरे देश के लिए प्रेरक, सबक और अनुसरण करने योग्य है. भ्रष्टाचार से बने आइएएस के घर में स्कूल खोल कर. यह कहना सही होगा कि नौकरशाहों (जिसे लोहिया असली व स्थायी राजा कहते थे) के भ्रष्टाचार से निबटने की दिशा में बिहार ने देश को रोशनी दिखायी है. अगुवाई की है. पर केंद्र का रुख?
बिहार सरकार द्वारा उक्‍त आइएएस की जमीन-घर जब्त होने के बाद भी केंद्र ने उस अफसर के खिलाफ मुकदमे की अनुमति नहीं दी है. साथ में बिहार के दो अन्य आइएएस अफसरों के खिलाफ भी भ्रष्टाचार से जुड़े मुकदमे चलाने की अनुमति भी केंद्र ने नहीं दी है. केंद्रीय सेवाओं की पहली श्रेणी के अफसरों के भ्रष्टाचार से जुड़े बिहार के तीन सौ मामले अनुमति के लिए प्रधानमंत्री सचिवालय में अटके हैं (पढ़ें, दागी अफसरों को सजा दिलाने में केंद्र की दिलचस्पी नहीं, सुरेंद्र किशोर, जनसत्ता 6 सितंबर 2011). इसी तरह बिहार सरकार ने 2009 में बिहार विशेष अदालत अधिनियम 2009 विधायिका से पास करवा कर केंद्र को भेजा, उस पर भी राष्ट्रपति मुहर लगवाने में एक साल लगा.
क्या इसी लेट लतीफी के रास्ते केंद्र भ्रष्टाचार से भी निबटना चाहता है?आज आतंकवाद या भ्रष्टाचार पर केंद्र या शासक दल का यही एप्रोच (रवैया) है, तो कांग्रेस का भविष्य क्या होगा? कैग की लगातार आती रपटों में जिन भ्रष्टाचारों का उल्लेख या खुलासा हुआ है, वे देश को कहां ले जायेंगे? कांग्रेस भ्रष्टाचार और आतंकवाद का प्रकोप रोक पाने में इतनी लचर, असहाय या अक्षम क्यों साबित हो रही है? कहां हैं कांग्रेस की नयी पीढ़ी और उसके नेता?

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