बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

उदारीकरण से मिलते सबक

।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत के बीस साल पूरे होने के मौके पर इससे हुए नफ़े-नुकसान का आकलन करना जरूरी है. दुनिया की एक ’उभरती शक्ति’बनने की होड़ में भारत को जो नुकसान हुआ है, उससे काफ़ी सबक सीखे जा सकते हैं.
ठीक दो दशक पहले तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत की. इसकी 20वीं सालगिरह के मौके पर नव उदारवाद से जुड़ा भाई-भतीजावाद, अपराधीकरण और सार्वजनिक धन की लूट-खसोट पूरे शबाब पर है. नव उदारवाद के पैरोकार हालांकि घोटालों के साथ इसके किसी भी तरह के जुड़ाव से इनकार करते हैं और दावा करते हैं कि ’क्रोनी कैपटलिज्म’ जैसी कोई चीज होती ही नहीं.
यह ठीक उसी तरह है जैसे हम कहें कि 1990 का एनरॉन घोटाला, 2000 के तीन टेलीकॉम घोटाले या फ़िर हाल के टू जी, पॉस्को, कृष्णा-गोदावरी या गैस मूल्यों के घोटाले हुए ही नहीं. कुछ नवउदारवादी कहते हैं कि इसे अब अमेरिका की सहमति भी हासिल नहीं है. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का मसौदा अमेरिकी सरकार ने ही विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ मिलकर तैयार किया था. हालांकि इन नीतियों पर व्यापक सहमति अब भी है. यह न केवल ग्रीस और आयरलैंड जैसे देशों में क्रूरता के साथ अपनाया जा रहा है, वरन सौ से अधिक विकासशील देशों में इसे उसी बेरहमी के साथ थोपा जा चुका है. यह सही समय है, जब हमें भारत में नव उदारवाद के नफ़े-नुकसान का आकलन करना चाहिए.
इसका सबसे बड़ा गुण यह बताया जा रहा है कि इससे तेज विकास संभव हो सका है. यह दावा सकल घरेलू उत्पाद के विकास के आइने में किया जा रहा है, लेकिन ऐसा करने वाले इससे हुए सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय नुकसान को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं. भारत आज एक ’उभरती हुई शक्ति’ है, क्योंकि इसका कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वैश्विक स्तर पर 12 वें से बढ़कर 10 वें स्थान पर पहुंच गया है, खरीदारी की क्षमता के मामले में यह 9 वें से बढ़कर चौथे स्थान पर पहुंच गया है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत आज भी दुनिया में कुछ सबसे पिछड़े देशों में शामिल है.
हालांकि नीतियों और विकास के बीच रिश्ता इतना सरल भी नहीं होता है. 1980 के दशक में नव उदारवाद के बिना भी भारत में जीडीपी की विकास दर ऊंची थी. विकास की रफ्तार बढ़ाने में अधिक निवेश, बचत दर और बेहतर बुनियादी सुविधाओं जैसे कुछ अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. फ़िर भी विकास और इसके लाभ का वितरण दोनों अलग-अलग चीजें हैं. खासकर सेवा क्षेत्र, जिसकी राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी आधे से अधिक है, के मामले में भारत का विकास अत्यंत कम और पूरी तरह असमान है.
कृषि क्षेत्र, जिस पर देश के पांच में से तीन लोग ओश्रत हैं, का विकास करीब 20 फ़ीसदी कम हो गया है. औद्योगिक क्षेत्र का विकास इतना कम हुआ है कि कृषि क्षेत्र से खाली हुए श्रमिकों को इसमें खपाना संभव नहीं है. भारत के कृषि क्षेत्र का संकट अत्यंत गंभीर हो चुका है. इस कारण पिछले 12 वर्षो में दो लाख से अधिक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो चुके हैं. यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है.
इस दौरान हुए विकास का लाभ मुख्यत: अमीर लोगों को ही मिल पाया है, जिनकी संख्या कुल आबादी का 10 से 15 प्रतिशत है. इस विकास से न तो बहुसंख्य आबादी की आमदनी बढ़ पायी है और न ही गरीबी कम हुई है. आधिकारिक आशावादी अनुमानों के मुताबिक ग्रामीण गरीबी 1993-94 में 50.1 फ़ीसदी से घटकर 2004-05 में 41.8 फ़ीसदी, जबकि शहरी गरीबी 32.6 फ़ीसदी से घट कर 25.7 फ़ीसदी हुई है. बहुत से अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि इन आंकड़ों पर भी यकीन करें तो गरीबी में यह कमी अत्यंत मामूली है. अब भी करीब 40 करोड़ भारतीयों का जीवन जानवरों से भी बदतर है. वे शरीर के लिए जरूरी पोषण से काफ़ी कम का उपभोग कर पा रहे हैं. यही कारण है कि कथित तेज विकास के दो दशक के बाद भी भारत में गंदे और गरीब लोगों की तादाद दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है.
इन आंकड़ों में गरीबी और अभाव के गैर आय रूप, मसलन भूमि से बेदखली, पर्यावरणीय विनाश, व्यापक कुपोषण, लिंग आधारित गरीबी, दूषित पानी पीने और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में जिंदा रहने की मजबूरी छिप जाती है. देश के आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, पांच में से दो वयस्कों के शरीर का विकास अत्यंत कम हो पाया है. ऐसे में यह कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती कि आज देश में जितने लोगों के पास शौचालय हैं, उससे कहीं ज्यादा के पास मोबाइल फ़ोन हैं.
तीव्र अभाव प्राथमिक मानवीय क्षमता विकसित करने की लोगों की योग्यता को नष्ट कर देता है. सम्मानजनक जीवन जीना और मनुष्य को जानवरों की अन्य प्रजातियों से अलग करने वाली क्षमता हासिल करना करोड़ों भारतीयों के लिए असंभव बना हुआ है. अर्थव्यवस्था के प्राकृतिक आधार और सार्वजनिक संसाधनों के बढ़ते निजीकरण के कारण पिछले दो दशक में अभावग्रस्त लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है. कुल मिलाकर आय और संपत्ति के असमान वितरण और क्षेत्रीय असमानताओं ने दो तरह के भारत का निर्माण किया है. एक तरफ़ मध्य भारत में व्यापक गरीबी है, सामाजिक पिछड़ापन है, दूसरी तरफ़ दक्षिण से पश्चिम तक तेज विकास के बूते पनपा अमीरों का नया कुनबा है. यह असमानता जीवन के हर क्षेत्र में साफ़ परिलक्षित है. यदि आप गरीब हैं तो आपके पास पोषण पाने के लिए अमीरों की तुलना में काफ़ी कम साधन हैं. इलाज, शिक्षा, रोजगार और अन्य सेवाओं के मामले में भी यही असमानता है.
कुल मिलाकर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चलने से भारत की अमूल्य मानवीय क्षमता का व्यापक स्तर पर ह्रास हो रहा है, सामाजिक सहिष्णुता कम हो रही है, लिंग भेद बढ़ रहा है और इन सबसे आगे व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम हो रहा है, जिससे राजनीतिक लोकतंत्र की नींव कमजोर हो रही है. दूसरी ओर पर्यावरणीय नुकसान हो रहा है, कीमती जंगलों का नाश हो रहा है, खनन गतिविधियां बढ़ने से प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है. भारत और उसके पड़ोसी देशों के लिए ’उभरती शक्ति’ बनने की इस होड़ में काफ़ी सबक छिपे हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

जन ऊर्जा बनाम परमाणु ऊर्जा

।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जान-माल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अपने दक्षिण भारत के दौरे के दौरान कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों के तिरस्कार का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था. वे आंदोलकारियों के प्रतिनिधियों से 7 अक्तूबर को बात करने के लिए राजी तो हो गये, लेकिन इस दौरान परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव श्रीकुमार बनर्जी ने प्रतिनिधियों को सिर्फ़ परमाणु ऊर्जा के फ़ायदों का लेक्चर सुना दिया. यह बैठक परियोजना को रद करने की मुख्य मांग के संबंध में विचार के लिए हुई थी. इस मांग को सौ से अधिक लोगों ने 12 दिन तक अनशन कर अपना नैतिक समर्थन दिया था, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार परियोजना के निर्माण कार्य को स्थगित करने पर मजबूर हो गयी थी.
आंदोलन के प्रतिनिधियों को मुखर्जी का भाषण झेलना पड़ा, जिन्होंने हाल में भारतीय वैज्ञानिक समुदाय को शर्मिदा किया था. जापान में मार्च में भीषण तबाही मचाने वाली फ़ुकुशिमा संयंत्र की दुर्घटना के बाद उन्होंने इसकी गंभीरता को खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि यह कोई परमाणु आपातकाल नहीं, केवल एक रासायनिक प्रतिक्रिया है!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहले कुडनकुलम में रूस निर्मित दोनों परमाणु रियेक्टरों का काम रोकने का वादा किया, लेकिन तत्काल बाद अपनी बात से मुकर गये. तब प्रदर्शनकारियों ने फ़िर से अनशन शुरू कर दिया और परियोजना स्थल पर उनके समर्थन में करीब दस हजार लोग पहुंच गये.
आंदोलनकारियों के साथ उपेक्षित और दिग्भ्रमित बच्चों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है, जिन्हें अनुशासन सिखाने के लिए एक कोच की जरूरत होती है. उनके नेता जाने-माने पेशेवर लोग हैं. मसलन एसपी उदयकुमार अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं. एम पुष्पआर्यन जाने-माने वकील हैं. उनके तर्क विचारणीय हैं. यहां हजार मेगावाट के दो रियेक्टर निर्माणाधीन हैं, जिनसे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन नहीं किया गया है. इन्हें पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी इआइए (इन्वायर्नमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट) की प्रक्रिया शुरू होने से पांच साल पहले मिली थी. इसमें परमाणु रियेक्टर के आंतरिक खतरों का ख्याल नहीं रखा गया था. ये रियेक्टर रोजाना लाखों लीटर ताजे पानी का उपयोग करेंगे और गर्म पानी को समुद्र में छोड़ेगे. इससे मछलियों का जीवन संकट में पड़ जायेगा, जिस पर तटीय इलाकों के लाखों लोग आश्रित हैं. ये घनी आबादी वाले क्षेत्र के एक किलोमीटर के दायरे में बन रहे हैं, जबकि नियम कहता है कि परमाणु संयंत्र के 1.6 किलोमीटर के दायरे में आबादी नहीं होनी चाहिए. इन रियेक्टरों से नियमित रूप से अपशिष्ट पदार्थ निकलेंगे. रेडियोधर्मिता युक्त उत्सर्जन भी होगा, जो एक ऐसा जहर है जिसे न तो आंखों से देखा जा सकेगा और न ही इसका गंध महसूस होगा.
सात देशों के 136 परमाणु संयंत्र स्थलों के वैज्ञानिक अध्ययनों में इसके आसपास के बच्चों में ल्यूकेमिया (एक प्रकार का रक्त कैंसर) की दर काफ़ी अधिक पायी गयी है. यहां जन्मजात विकृति, अंग क्षति और वयस्कों में भी कैंसर के मामले अधिक पाये गये हैं. परमाणु गतिविधियों से ऐसे अपशिष्ट पदार्थ पैदा होते हैं, जो हजारों साल तक नष्ट नहीं होते. विज्ञान अब तक इनके सुरक्षित निपटान के तरीके नहीं तलाश पाया है. इसके अलावा चेनरेबिल और फ़ुकुशिमा जैसी प्रलयंकारी दुर्घटनाओं की आशंका दुनिया के सभी परमाणु रियेक्टरों में बनी रहती है. चेनरेबिल में अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक 34 से 95 हजार लोग मारे जा चुके हैं और यह संख्या अब भी बढ़ रही है. रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण दुर्घटना के 25 साल बाद भी करीब तीन लाख लोग अपने घर नहीं लौट सकते हैं. इसी तरह फ़ुकुशिमा में संकट अब भी नहीं टला है, जबकि 50 अरब डॉलर खर्च किये जा चुके हैं.
इस तरह हम कह सकते हैं कि परमाणु रियेक्टर मुश्किल से नियंत्रित होने वाले परमाणु बम हैं, जहां लगातार होने वाली श्रंखलाबद्ध परमाणु प्रतिक्रियाओं को पानी डालकर और सुरक्षा उपकरणों की मदद से काबू किया जाता है. लेकिन ये उपाय विफ़ल भी हो सकते हैं. इन्हें किसी कारण से पर्याप्त ठंडक नहीं मिलने पर इंधन लगातार गर्म होते चले जाते हैं और ये तबाही मचाने लगते हैं. यही फ़ुकुशिमा में हुआ. इसके संचालकों का कहना है कि रिक्टर पैमाने पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप को यह रियेक्टर सहन नहीं कर पाया. बाद में आयी सुनामी ने खतरे को और बढ़ा दिया, जिससे यह भीषण दुर्घटना हुई. कारण चाहे जो भी रहे हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि परमाणु रियेक्टर कभी भी तबाही मचा सकते हैं.
कुडनकुलम में स्थानीय पंचायत, चर्च और धार्मिक संस्थाओं को मिलाकर बना संगठन इस खतरे को समझता है. वे संभवत: रूस निर्मित परमाणु संयंत्रों के बारे में भी काफ़ी कुछ जानते हैं. नार्वे के एक प्रमुख संगठन ने रूस के परमाणु सुरक्षा विशेषज्ञों से बातचीत के बाद एक स्पेशल रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि रूसी रियेक्टर आपदा प्रबंधन के लिए काफ़ी कम तैयार होते हैं. इस रिपोर्ट को तैयार करने में अनेक अन्य स्र्ोतों से सूचनाएं जुटायी गयी हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि रूसी रियेक्टरों में 31 गंभीर खामियां हैं. खासकर इनमें भूकंप के खतरों से बचने के पर्याप्त उपाय नहीं हैं. ये खुलासे सचेत करने वाले हैं. भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जानमाल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं. भविष्य भी अक्षय ऊर्जा का ही है.
।। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।।

’कब्जा करो’ की चपेट में दुनिया


।। पुष्परंजन ।।
भारत में इस समय 29 विदेशी बैंक काम कर रहे हैं. इनमें से कई के विरुद्ध यूरोप-अमेरिका में बवाल मचा हुआ है. ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ के आंदोलनकारी यदि यहां भी सड़कों पर उतरे, तब क्या होगा?
कल तक कैरो के तहरीर चौक के फ़ेसबुकिया आंदोलन से आनंद उठाने वाले अमेरिकी-यूरोपीय नेता अब अपने घर में लगी आग से अक-बक हैं. कर्ज और बेरोजगारी से बेहाल यहां के शहरी गरीबों और मध्यवर्ग के लिए अब यह बर्दाश्त से बाहर है कि सरकारें दिवालिया बैंकों और कारपोरेट्स को ’बेल आउट पैकेज‘ दे-देकर उनके हितों की रक्षा कर रही हैं. इसी के खिलाफ़ इन लोगों ने न्यूयार्क के जूकोटी पार्क से गत 17 सितंबर को शुरू किया था ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ आंदोलन.
जूकोटी पार्क, जिसे कभी ’लिबर्टी पार्क‘ भी कहते थे, उसी सड़क पर है जहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर था. यह जगह अमेरिकी शेयर बाजार ’वॉल स्ट्रीट‘ से कोई चार किलोमीटर दूर निचले मैनहट्टन वाले इलाके में है. अब अमेरिका के 70 शहर इस आंदोलन की चपेट में हैं. आंदोलन का असर पूरे यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी दिख रहा है. कई जगहों पर दंगे भी हुए हैं. एशिया के बिजनेस हब हांगकांग, ताइपे, टोक्यो में आंदोलनकारी सड़कों पर उतर चुके हैं, इसलिए भारत में ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ वाले नजारे देखने को तैयार रहिए.
कनाडा में बाजारवाद और उपभोक्तावाद के विरोध में ’एब्स्टर्स‘ नाम से एक पत्रिका निकलती है. इसकी एक लाख 20 हजार प्रतियां छपती हैं और इसमें कोई विज्ञापन नहीं होता. इसे प्रकाशित करने वाली संस्था ’एब्स्टर्स मीडिया फ़ाउंडेशन‘ ने इस साल जुलाई में सुझाव दिया था कि कॉरपोरेट और बैकों को संरक्षण देनेवाली सरकारों के खिलाफ़ हल्ला बोला जाना चाहिए. इसके लिए ’एब्स्टर्स मीडिया फ़ाउंडेशन‘ ने इमेल, ट्विटर, ब्लॉगिंग, फ़ेसबुक पर लाखों लोगों के विचार लिये, उन्हें संगठित किया और शुरू करा दिया आंदोलन. इस समय ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ पेज के कोई एक लाख 70 हजार फ़ैंस हैं. दुनिया के 1300 शहरों में ’राइटिंग शो इवेंट‘ चला कर 82 देशों की सरकारों की नींद हराम करने की इनकी योजना है.
अमेरिकी सत्ता को चला रहे डेमोक्रेट, जिनकी विचारधारा को हम अधिक उदार मानते हैं, में भी ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ को लेकर घबराहट है. कारण 2012 का आम चुनाव है. दूसरी ओर, कंजर्वेटिव कहे जानेवाले रिपब्लिकन नेता अमेरिकी पूंजीपतियों और बैंक चलाने वाले कॉरपोरेट्स को कहीं से नाराज नहीं करना चाहते. 2012 के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति प्रत्याशी हर्मन कैन ने इसे ’एंटी कैपिटलिस्ट’ यानी पूंजीपतियों के विरुद्ध खड़ा किया गया आंदोलन कहा है. कैन कहते हैं, ’वॉल स्ट्रीट को क्यों कोसते हो. न ही बड़े बैंकों को दोष दो. यदि तुम अमीर नहीं हो और तुम्हारे पास काम-धंधा नहीं है, तो खुद को क्यों नहीं कोसते.‘ कैन के इस बयान से अमेरिकी राजनेताओं की संवेदनहीनता का अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं. यह व्यक्ति यदि अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया, तो दुनिया में गरीबी का क्या होगा?
अमेरिका समेत पूंजीवादी सरकारों के विरुद्ध जो ताकतें हैं, उनकी टिप्पणियां भी बहती गंगा में हाथ धोने के बराबर हैं. कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था में कई बार न्यूज एजेंसियों के माध्यम से सरकार का पक्ष रख दिया जाता है. इसी तर्ज पर चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी ’शिन्ह्वा‘ की टिप्पणी थी, ’अमेरिका अब अपने घर को दुरुस्त करे, जो गलत राजनीतिक-आर्थिक नीतियों से खराब हुआ है.‘ उत्तर कोरिया ने न्यूज एजेंसी ‘डीपीआरके‘ के माध्यम से कमेंट किया कि यह शोषण और पूंजीपतियों के दमन के खिलाफ़ आंदोलन है.
रूस के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव इसे ’पेरस्त्रोइका‘ की वापसी और सुपर पावर का भरभरा कर गिरना मानते हैं. ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई कहते हैं कि भ्रष्ट बुनियाद को अमेरिकी जनता भुगत रही है. पोलैंड के पूर्व राष्ट्रपति लेख वालेसा ने आंदोलन को पूर्ण समर्थन दिया है. बेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चाव़ेज ने वॉल स्ट्रीट आंदोलनकारियों को समर्थन देते हुए ’भीषण दमन‘ की भर्त्सना की है. दुनिया भर के मजदूर संगठनों के इसके समर्थन में उतर जाने से यही संदेश जा रहा है कि बैंकिंग व्यवस्था और कॉरपोरेट्स के विरुद्ध बड़े पैमाने पर लामबंदी हो रही है.
यूरोप भी इस बार बैंकों को बख्शने के मूड में नहीं दिख रहा है. यूरोपियन कमीशन के अध्यक्ष खोसे मानुअल बारेसो ने तो मांग कर दी है कि जो ’रफ़ बैंकर्स‘ हैं, जो बैंक नियमों को नहीं मानते, उन पर आपराधिक मामले चलने चाहिए. खोसे मानुअल बारेसो ’फ़ोस्र्ड कैपिटलाइजेशन‘ यानी ’बाध्यकारी पूंजीकरण‘ की नकेल फ़िर से बैंकों पर कसना चाहते हैं. इसका अर्थ यह होता है कि प्राइवेट बैंक सरकारी अनुदान लेंगे और उनके कामकाज में सरकारी दखल रहेगा. डॉयचे बैंक के प्रमुख जोसेफ़ आकरमान ने कहा कि ’फ़ोस्र्ड कैपिटलाइजेशन‘ को टालने की हर संभव कोशिश करूंगा. करेंसी और कर्ज संकट के लिए यूरोप के नेता जिम्मेदार हैं, हम नहीं.
ब्रिटिश विदेश मंत्री विलियम हेग मानते हैं कि बैंकिंग प्रणाली में बहत्तर छेद हैं. यूरोपियन सेंट्रल बैंक के भावी प्रमुख मारियो द्रागी ने स्वीकार किया कि युवाओं का आक्रोश बिल्कुल सही है. जर्मनी के हेम्बर्ग में ’एचएसएस नोर्डबांक‘ को पिछले हफ्ते प्रदर्शनकारियों ने घेर लिया था. फ्रेंकफ़र्ट में यूरोपियन सेंट्रल बैंक के आगे तो आंदोलकारियों ने टेंट गाड़ दिये. ऐसा नजारा यूरोप के कई बड़े शहरों में दिख रहा है. जर्मनी की मैर्केल सरकार में जूनियर गंठबंधन पार्टनर ’फ्री डेमोक्रेट‘ पूंजीपतियों की समर्थक पार्टी मानी जाती है. ’फ्री डेमोक्रेट‘ नेता राइने ब्रूडरले ने कहा कि सदियों पहले बैंक जैसे थे, आज भी उसी र्ढे पर हैं. यदि उन्होंने अपना ’होमवर्क‘ नहीं किया, तो उनके हाथ पकड़ने से हम हिचकेंगे नहीं.

भारत में इस समय 29 विदेशी बैंक काम कर रहे हैं. इनमें से कई ऐसे विदेशी बैंक और कॉरपोरेट हाउसेज हैं, जिनकी बेईमान नीतियों के विरुद्ध यूरोप-अमेरिका में बवाल मचा हुआ है. सवाल यह है कि ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ के आंदोलनकारी यदि यहां भी सड़कों पर उतरे, तब क्या तसवीर होगी?
।। ईयू-ऐशया न्यूज के नयी दिल्ली स्थित संपादक हैं ।।

गरीबी का दुश्चक्र

सुधांशु रंजन

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गरीबी रेखा पर भड़के विवाद ने योजना आयोग की भूमिका के साथ शासन की नीतियों और उद्देश्यों के बारे में भी सवाल खड़ा किया है। संविधान के चौथे अध्याय में राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों का उल्लेख है, जो अदालतों द्वारा लागू तो नहीं किए जा सकते, किंतु यह स्पष्ट किया गया है कि वे शासन के लिए मूलभूत सिद्धांत के रूप में काम करेंगे। अनुच्छेद 38 में कल्याणकारी राज्य की बात कही गई है। वर्ष 1978 में 44वां संविधान संशोधन कर इस अनुच्छेद में यह जोड़ा गया कि सरकार विभिन्न गुटों के बीच असमानता दूर करने का प्रयास करेगी।

सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक पॉवर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया के जरिये गरीबी का मुद्दा उठाया था। आजादी के बाद जब योजनाबद्ध तरीके से आर्थिक विकास की संरचना बनाई गई, तो योजना आयोग का उद्देश्य गरीबी उन्मूलन न होकर देश को उद्योग एवं उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था। गरीबी पर कई वर्षों तक कोई व्यापक चर्चा देश में नहीं हुई। संविधान की छठी अनुसूची में भी ग्रामीण विकास, श्रम आदि की तो चर्चा है, किंतु गरीबी की नहीं। गरीबी के सवाल को डॉ राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में 1963-67 के दौरान मजबूती से उठाया। और 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।

फिलहाल गरीबी का मुद्दा बड़ा मुद्दा बना हुआ है। योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर गरीबी रेखा के बारे में हलफनामे को लेकर पूरा देश उद्वेलित हो गया, जिसमें कहा गया था कि शहरों में 32 और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले गरीब नहीं है। 2004-05 में गरीबी रेखा और कम रखी गई थी, जो शहरों के लिए साढ़े सत्तरह एवं गांवों के लिए 12 रुपये थी। सुखद है कि राष्ट्रीय विरोध के बाद योजना आयोग ने अपना पक्ष बदल दिया है।

वर्ष 2001 में सर्वोच्च न्यायालय में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने एक जनहित याचिका दायर कर यह निर्देश जारी करने की प्रार्थना की थी कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों की कमी के कारण जो खाद्यान्न सड़ रहे हैं, उन्हें गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाए। केंद्र सरकार ने आपत्ति की कि यह नीतिगत मसला है, जिस पर अदालत निर्देश नहीं दे सकती। यह मामला अब तक चल रहा है। योजना आयोग अब भी मानता है कि ऐसे निर्देश देकर न्यायपालिका अपनी सीमा से बाहर जा रही है। यह अदालत नहीं तय कर सकती कि गरीबों की पहचान कैसे हो।

गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या की गणना हर पंचवर्षीय योजना के पहले की जाती है। वर्ष 1992 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आठवीं पंचवर्षीय योजना 1992-97 के लिए यह गणना करवाते हुए सुझाव दिया था कि 11,000 रुपये की वार्षिक आय को गरीबी रेखा माना जाना चाहिए। इसे बहुत अधिक बताते हुए योजना आयोग ने खारिज कर दिया। यही वह समय था, जब ग्रामीण विकास मंत्रालय के कार्यक्षेत्र पर योजना आयोग का कब्जा हो गया। गौरतलब है कि 1992 में जो पैमाना तय किया गया था, वह आज से ज्यादा है। इस तरह की गणना 1997 तथा 2002 में भी करवाई गई, लेकिन विभिन्न कारणों से 2007 में ऐसी गणना नहीं हो पाई। 11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए ऐसी गणना करवाने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 2008 में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। एन सी सक्सेना की अध्यक्षता वाली इस समिति ने अगस्त, 2009 में रिपोर्ट सौंप दी, जिसे राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों और केंद्र सरकार के संबद्ध मंत्रालयों को उनकी टिप्पणी के लिए भेज दिया गया।

समस्या की शुरुआत दरअसल 1993 में हो गई थी, जब सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली को लक्षित जन वितरण प्रणाली में बदल दिया गया। इसके कार्यकलाप की जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी पी वाधवा की अध्यक्षता में गठित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार तथा लूट-खसोट है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जन वितरण प्रणाली में कई तरह के भ्रष्टाचार और खामियां हैं। इसका खाद्यान्न अन्यत्र चला जाता है, क्योंकि इसमें नौकरशाहों, राशन दुकान के मालिकों और बिचैलियों का घृणित तंत्र कार्य करता है। आयोग ने लिखा भी कि फरीदाबाद की एक महिला के पास 925 कार्ड पाए गए।

गरीबों की पहचान का काम 1972 में प्रारंभ हुआ, जब दो रुपये प्रतिदिन की आमदनी गरीबी रेखा के रूप में निर्धारित की गई थी। इस पैमाने को बदला नहीं गया, क्योंकि इससे कई जटिलताएं पैदा होतीं। उस दो रुपये का मूल्य आज 32 रुपये हो गया है। प्रसिद्ध पोषण वैज्ञानिक सुखात्मे ने पहली बार यह अवधारणा दी कि शहरों में 2,400 तथा गांवों में 2,100 कैलोरी का उपभोग जीने के लिए आवश्यक है। उस समय गरीबी का अर्थ था, भुखमरी। और गरीबी से बचने के लिए नियत कैलोरी ग्रहण करना आवश्यक था। वाई के अलघ आयोग ने सुखात्मे के पैमाने को सही माना। पर योजना आयोग का समर्थन करने वाले मानते हैं कि कैलोरी को पैमाना बहुत पुराना हो चुका है।

योजना आयोग का उद्देश्य है गरीबी कम करना। आजादी के समय देश की आबादी 32 करोड़ थी। अभी उससे कहीं ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की है, जबकि गरीबी रेखा बहुत नीचे रखी गई है। इसकी तुलना अमेरिका से करें, तो फर्क पता चलेगा, जहां 11,139 डॉलर से कम वार्षिक आय वालों को गरीब माना जाता है। 
(अमर उजाला से साभार)

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

बापू के साथ किया था सत्याग्रह

- 99 की उम्र में डॉ शीलवती राठौर के इरादे चट्टान की तरह मजबूत -
ग्वालियरः डॉक्टर शीलवती राठौर चार जनवरी 2012 को 99 साल की हो जायेंगी. आज भी वह बड़ी से बड़ी मुश्किल का डट कर मुकाबला करने का हौसला रखती हैं. गुलाम भारत के समय के आंदोलन की बात हो या भारत विभाजन की, इन्होंने हर समय अपने साहस का परिचय दिया है.
अंग्रेजों के खिलाफ़ नमक आंदोलन में वे महात्मा गांधी के साथ कदम से कदम मिला कर चलीं. स्वदेशी आंदोलन में भी वे बिना किसी की परवाह किये नाम बदल कर शामिल हईं और विदेशी वस्तुओं की होली जलायी. इसी तरह भारत विभाजन के समय जब मुसलिम परिवार पर विपदा आयी, तो बंदूक लेकर उनकी रक्षा के लिए भी वे आगे आ गयीं.
नाम बदल-बदल कर शामिल हुईं आजादी के आंदोलन में
सन् 1942 में महात्मा गांधी ने विदेशी वस्तुओं को जलाने का आह्वान किया था. मेरे पति आरके सिंह शासकीय सेवा में थे. इसलिए सीधे तौर पर मैं इस आंदोलन में शामिल नहीं हो सकती थीं. मैंने अपना नाम बदला और अपनी कई सहेलियों को भी नाम बदल कर इस आंदोलन में शामिल करवाया. इससे पहले गांधी जी के नमक आंदोलन में भी मैं अपनी मां के साथ शामिल हई थी.
मैंने जब उठा ली थी बंदूक
भारत-पाक विभाजन के बाद देशभर में दंगे हए थे. ग्वालियर में भी दंगा हआ. दंगाइयों से बचती हई एक मुसलिम महिला मेरे घर आ गयी, उसके पीछे दंगाई भी थे. मैंने अपने घर में उस महिला को शरण दी और उसे बचाने के लिए बंदूक लेकर छत पर पहंच गयी. मैंने दंगाइयों को ललकारा तो दंगाई चले गये और वह महिला बच गयी.
सब प्रभु की देन
मैंने कुछ नहीं किया है, सब प्रभु ने करवाया. आज जब उस समय के बारे में सोचती हं, तो ताज्जुब होता है कि इतना सब मैंने कैसे कर लिया. अब भी ऐसी कोई स्थिति निर्मित होती है, तो मैं संघर्ष करने में पीछे नहीं हटूंगी.
शीलवती का संदेशः महिलाओं में इतनी शक्ति होती है कि वह घर, समाज और देश के लिए प्रगति के द्वार खोल सकती हैं. महिला विनम्र, सहनशील हो तो वह परिवार को एक डोर में बांध सकती है. यही भूमिका उसकी समाज और देश के विकास में भी सहायक होती है. आज की पीढ़ी ज्यादा पढ़ी-लिखी है, लेकिन स्वार्थी हो गयी है. उसका समाज से कोई लेना-देना नहीं है.
(प्रभात खबर से साभार)