बुधवार, 9 नवंबर 2011

अमेरिका का खेल

:: प्रकाश करात ::


पश्चिम एशिया में अमेरिका-नाटो की दखलंदाजी एक महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंच गई है। गद्दाफी निजाम को पलटकर और गद्दाफी की नृशंसतापूर्वक हत्या कर उन्होंने लीबिया को ‘मुक्त’ करा लिया है। लीबिया अब नाटो का संरक्षित क्षेत्र बन गया है। नाटो के हस्तक्षेप पर जन विद्रोह का जो झीना अवरण डाला जा रहा था, वह पूरी तरह से उतर गया है। सचाई यही है कि भीषण बमबारी के अलावा भी ब्रिटिश व अन्य नाटो देशों के विशेष बल बागियों की मदद करने में जुटे रहे थे। अमेरिका के वफादार सहयोगी और कतर की सेना बागी सेना के साथ लीबिया में लड़ रही थी। गद्दाफी निजाम के पतन के बाद भी लीबियाई संक्रमणकालीन परिषद् ने नाटो से आग्रह किया है कि दिसंबर के आखिर तक हवाई गश्त की अपनी व्यवस्था जारी रखे।

लीबिया को नाटो के नियंत्रण के अंतर्गत लाए जाने के बहुत गंभीर निहितार्थ हैं। अमेरिका अब अपने अफ्रीकी मिलिटरी कमांड (एफ्रीकॉम) के लिए अड्डा हासिल कर सकता है। लीबिया पर हमले में आगे रहने वाले फ्रांसीसी अब चैन की सांस ले सकेंगे, क्योंकि अफ्रीका में फ्रांस के परंपरागत प्रभाव के लिए गद्दाफी की चुनौती खत्म की जा चुकी है। नाटो अब साम्राज्यवाद का विश्व सैन्य बाजू बन गया है, जिसके हाथ अब अफ्रीका, एशिया तथा दुनिया के दूसरे तमाम हिस्सों तक फैल चुके हैं।

अमेरिका तथा नाटो अब अपना पूरा ध्यान सीरिया पर लगा सकते हैं। सीरिया एक ऐसा अरब देश है, जो अमेरिकी छतरी के नीचे आने से हठपूर्वक इनकार करता आया है। रूस तथा चीन के वीटो के चलते संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से सीरिया के खिलाफ पाबंदियां लगाने का प्रस्ताव पारित कराने और इस तरह उसके खिलाफ दखलंदाजी का रास्ता खोलने में विफल रहने के बाद अमेरिका अब सीरिया में सत्ता-बदल कराने के रास्ते निकाल रहा है। वह तुर्की अब सीरिया-विरोधी ताकतों का केंद्र बनता जा रहा है, जो नाटो का सदस्य है और जिसके सीरिया के साथ अच्छे रिश्ते रहे हैं।

अमेरिका का प्रमुख अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में पहली बार यह खबर आई है कि एक ‘मुक्त सीरियाई सेना’ तुर्की से अपनी कार्रवाइयां संचालित कर रही है। इससे पहले इस्तांबुल में वर्तमान सीरियाई शासन के खिलाफ खड़े विभिन्न विरोधी गुटों को लेकर एक सीरियाई राष्ट्रीय परिषद् का गठन किया गया था। अमेरिका के घनिष्ठतम सहयोगी, सऊदी अरब ने सीरिया की सरकार की भर्त्सना की है और दमिश्क से अपने राजदूत को वापस बुला लिया है। कुवैत तथा बहरीन ने उसके पीछे-पीछे चलते हुए ऐसा ही किया है।

नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गद्दाफी की मौत पर गाल बजाने और सीरिया को अस्थिर करने के लिए चालें चलने के बाद अब ईरान के खिलाफ तनाव बढ़ाने में ध्यान लगाया है। पिछले ही दिनों अमेरिकी प्रशासन ने यह ऐलान किया है कि उसने अमेरिका में सऊदी अरब के राजदूत की हत्या कराने के ईरानी रेवोल्यूशनरी गार्ड्स के एक षड्यंत्र का पता लगा लिया है। उसके बाद से फारस की खाड़ी में नौसैनिक जमावड़े और कुवैत जैसी जगहों में अपनी सेना की तैनाती बढ़ाने की अमेरिकी योजनाओं की खबरें आई हैं। इस साल के आखिर तक इराक से अमेरिकी सेना हट जाने वाली हैं। इसी पृष्ठभूमि में ईरान से बढ़ते खतरे का हौवा खड़ा कर ओबामा प्रशासन खाड़ी क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाने में जुटा है।

जिस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति की हैसियत से बुश ने आखिरकार इराक पर हमला करने से पहले कई साल तक इराक में सद्दाम हुसैन के शासन से खतरे का प्रचार किया था और उसके पास मानव संहारक हथियार होने संबंधी दावे किए थे, उसी प्रकार शांति लाने के लिए सम्मानित ओबामा अब ईरान के खिलाफ युद्ध की जमीन तैयार करने के खतरनाक रास्ते पर चल रहे हैं। सीरिया को अस्थिर करना, ईरान को अलग-थलग करने के लिए एक साथ कई ओर से आगे बढ़ने की योजना का हिस्सा है। हालांकि ईरान के खिलाफ युद्ध अमेरिका को आसानी से हजम होने वाला नहीं है, फिर भी ओबामा अपने ही राजनीतिक गणित को सामने रखकर इस तरह के आक्रामक पैंतरों का सहारा ले रहे हैं।

दरअसल ओबामा की लोकप्रियता का ग्राफ गिरावट पर है और अगले ही साल उन्हें राष्ट्रपति चुनाव का सामना करना है। ऐसे में वह ईरान के खिलाफ शत्रुतापूर्ण पैंतरेबाजी करने के जरिये इस्राइलपरस्त लॉबी के बीच से अपने लिए समर्थन जुटाने की कोशिशों में लगे दिख रहे हैं। लीबियाई दुस्साहस का मकसद अरब जन-उभार का अपहरण करना ही था। जब ट्यूनीशिया तथा मिस्र में जन-विद्रोहों ने निरंकुश सरकारों व तानाशाहों का तख्ता पलट दिया, तब इस्राइल खुद को ज्यादा से ज्यादा अलग-थलग पड़ता महसूस कर रहा था। इसलिए जन-उभार के दूसरे चरण में अमेरिका तथा उसके सहयोगियों ने जनतंत्र के बहाने तथा जन-विद्रोहों को समर्थन देने के नाम पर लीबिया में अपने ऑपरेशन को सफलता से अंजाम दे दिया। उनका अगला निशाना सीरिया है और अंत में ईरान का नंबर आना है।

आज हमारा सामना पश्चिम एशिया में साम्राज्यवाद की बढ़ी हुई आक्रामकता और उन ताकतों की तिकड़मों से हो रहा है। वे तेल और प्राकृतिक गैस संसाधनों तक पहुंच तथा उन पर नियंत्रण हासिल करने के पहलू से प्रभुत्व का दरजा हासिल करने की कोशिश में लगे हैं। अमेरिका तथा यूरोप की बहुत कमजोर हो गई अर्थव्यवस्थाएं पश्चिम एशिया के संसाधनों पर कब्जा करने जैसे उपहार को आसानी से हाथ से कैसे निकल जाने दे सकती हैं? कहने की जरूरत नहीं कि यह अपनी नियति खुद तय करने के प्रयासों में लगे अरब अवाम की आकांक्षाओं का बेशर्मी से मजाक उड़ाए जाने के सिवा और कुछ नहीं है।

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