सोमवार, 21 नवंबर 2011

पेट्रोल के बढ़ते दाम- सच और मिथक

सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
पेट्रोल की कीमतों में ताजातरीन बढ़ोतरी के बाद पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता पर इस नए बोझ को डाले जाने को न सिर्फ उचित ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि ‘ज्यादातर उत्पादों’ की कीमतों को विनियंत्रित किए जाने की जरूरत है। इस तरह, उन्होंने साफ तौर पर यह बता दिया है कि आम जनता पर आगे और भी बोझ थोपे जाने वाले हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि खाने-पीने की चीजों के दाम में लगातार तेजी का मतलब है कि इन चीजों की मांग पहले के मुकाबले अधिक बढ़ी है और मांग अगर ज्यादा है, तो यह खुशहाली का लक्षण है!
अगर अर्थव्यवस्था आठ फीसदी की दर से वृद्धि कर रही है और आबादी 1.6 फीसदी की दर से, तो इसका मतलब यह हुआ कि प्रति व्यक्ति आय 6.5 से 6.7 फीसदी की दर से बढ़ रही होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि यह वृद्धि-दर ‘शाइनिंग इंडिया’ के ही चेहरे की चमक बढ़ा रही है, जबकि भारत की जनता का विराट बहुमत बढ़ते आर्थिक बोझ के तले पिसता ही जा रहा है।
वैसे भी इकोनॉमिक सर्वे (2010-11) के हिसाब से निजी अंतिम उपभोग खर्च की वृद्धि-दर, जो साल 2005-06 में 8.6 फीसदी पर चल रही थी, वर्ष 2010-11 तक घटकर 7.3 फीसदी रह गई थी। प्रधानमंत्रीजी, आपकी वह खुशहाली कहां गई?
तेल के दाम में बढ़ोतरी का अतिरिक्त बोझ जनता पर डाले जाने को मंजूर नहीं किया जा सकता। यह भी एक झूठा प्रचार है कि पेट्रोल सिर्फ धनी लोगों के उपयोग की चीज है। सच्चई यह है कि पेट्रोल की खपत मध्य व निम्न-मध्य वर्ग में भी बड़ी मात्र में होती है। आखिर इन वर्गो के लोग दो-पहिया वाहनों का इस्तेमाल करते ही हैं। इसके अलावा पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी का चौतरफा महंगाई पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा।
हकीकत यह है कि पेट्रोल के दाम में इस ताजातरीन बढ़ोतरी से सबसे ज्यादा फायदा सरकारी खजाने को ही होने जा रहा है। इस बढ़े हुए दाम का 40 फीसदी हिस्सा तो विभिन्न करों व शुल्कों के रूप में सरकारी खजाने में ही पहुंचने जा रहा है। इस मूल्य बढ़ोतरी को मिलाकर वित्तीय वर्ष 2011-12 में केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क के रूप में करीब 82,000 करोड़ रुपये बटोर लेगी। अनुमान यह है कि वर्ष 2010-11 में सभी करों व शुल्कों को मिलाकर पेट्रोलियम क्षेत्र से केंद्र सरकार का कुल राजस्व 1,20,000 करोड़ रुपये से ऊपर रहा होगा। मिसाल के तौर पर, हालिया मूल्य बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में पेट्रोल का दाम 69 रुपये प्रति लीटर के करीब हो गया है। इसमें से करीब 30 रुपये तो विभिन्न तरह के करों व शुल्कों के जरिये सरकारी खजाने में चले जाएंगे। साफ है, यह तो जनता की कीमत पर सरकार द्वारा अपने राजस्व को बढ़ाने का ही मामला है। दूसरे शब्दों में, सरकार द्वारा जनता को कोई सब्सिडी देना तो दूर रहा, उलटे जनता ही सरकार को सब्सिडी दे रही है।
तेल के दाम में इस तरह की बढ़ोतरी को सही ठहराने के लिए दो दलीलें दी जाती हैं और वास्तव में ये दलीलें तमाम पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के विनियंत्रण के जरिये दाम और बढ़ाए जाने की ओर ही इशारा करती हैं। पहली दलील तो यही है कि तेल कंपनियों को भारी ‘घाटा’ हो रहा है और उनकी अंडर-रिकवरी वर्ष 2011-12 में 1.32 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच जाने वाली है, जबकि 2010-11 में यह 78,000 करोड़ रुपये के स्तर पर ही थी। आखिर यह अंडर-रिकवरी क्या बला है? स्वतंत्रता के बाद जब हमारे देश में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया था, तो उससे पहले तक देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतों के आधार पर तय होती थीं। कुख्यात ‘आयात तुल्यता मूल्य प्रणाली’ इसी का दूसरा नाम था। 1976 में इस व्यवस्था को खत्म कर पेट्रोलियम उत्पादों के लिए नियंत्रित मूल्य व्यवस्था शुरू की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत आयातित कच्चे तेल की वास्तविक कीमत तथा शोधन की लागत में तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़कर पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय किए जाते थे।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आज भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से जो कच्चा तेल खरीद रहा है, उसकी औसत कीमत 110 डॉलर या 5,280 रुपये प्रति बैरल है। बैरल चूंकि करीब 160 लीटर का होता है, तो इसका मतलब हुआ कि एक लीटर कच्चे तेल पर खर्च हुए करीब 33 रुपये। इसमें तेल शोधन की लागत तथा तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़ दिया जाए, तब भी तेल डिपो पर तेल की कीमत 40-41 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा किसी भी तरह से नहीं होगी। लेकिन दिल्ली में पेट्रोल का दाम है 69 रुपये प्रति लीटर के करीब। देश के दूसरे हिस्सों में तो यह दाम और भी ज्यादा है।
नव-उदारवादी निजाम में कथित नई आर्थिक नीतियों के तहत सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के नियंत्रित मूल्य की व्यवस्था को खत्म कर दिया और आयात तुल्यता प्रणाली को फिर से ले आया गया, कच्चे तेल के लिए भी और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों के लिए भी। इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि अब घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें इन उत्पादों की विश्व बाजार की कीमतों से तय होंगी, फिर चाहे भारत में इन उत्पादों की वास्तविक उत्पादन लागत कितनी ही भिन्न क्यों न हो। अंडर रिकवरी इस आयात तुल्यता मूल्य और पेट्रोलियम उत्पादों के घरेलू बाजार के मूल्य के बीच के अंतर से ही निकाली जाती है। इस तरह, यह शुद्ध रूप से एक काल्पनिक घाटे का मामला है, जो घरेलू बाजार में तेल उत्पादों की लागत से नहीं, बल्कि उनकी अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर आधारित होता है। इस तरह, वास्तव में यह एक मिथक है, जिसे नव-उदारवादी सुधारवादियों ने  कॉरपोरेट मीडिया की मदद से प्रचारित किया है।
सच्चाई यह है कि हमारे देश की प्रमुख तेल कंपनियां किसी तरह के घाटे में हैं ही नहीं। 31 मार्च, 2010 को समाप्त वित्तीय वर्ष के लिए ऑडिटशुदा वित्तीय परिणाम दिखाते हैं कि इंडियन ऑइल कंपनी का शुद्ध मुनाफा 10,998 करोड़ रुपये रहा था। इसी तरह इंडियन ऑइल कॉरपोरेशन का संचित लाभ, 49,472 करोड़ रुपये का था। साल 2009 के अप्रैल-दिसंबर के दौरान ही, सार्वजनिक क्षेत्र की दो अन्य तेल कंपनियों, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन तथा भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन ने क्रमश: 5,444 करोड़ रुपये और 834 करोड़ रुपये का मुनाफा बटोरा था। इसलिए प्रधानमंत्रीजी, निरीह जनता पर बोझ लादने के लिए मिथकों का आविष्कार तो मत ही कीजिए!

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