गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

जाना एक स्टाइल आइकॉन का

- प्रो जवरीमल्ल पारख -
हिंदी सिनेमा की वह पीढ़ी जो आजादी से पहले या उसके थोड़े ही बाद में सामने आयी, उनमें सबसे लोकप्रिय और लंबे समय तक नायक के रूप में रहने वालों में देव आनंद का नाम लिया जाता रहा है. उन्हें ’एवरग्रीन‘ या ’सदाबहार‘ नायक कहा जाता था. अपने समकालीनों, राजकपूर व दिलीप कुमार की तुलना में वे लंबे समय तक नायक के रूप में सिनेमा में आते रहे. एक अभिनेता के रूप में उन्होंने अपने दोनों समकालीन अभिनेताओं से बिल्कुल अलग किस्म की छवि निर्मित की. इसे हम उनका सकारात्मक पक्ष मानें या नकारात्मक, इस पर विवाद हो सकता है.
लेकिन वे ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अभिनय की कलात्मक ऊंचाईयों से ज्यादा महत्व उसकी लोकप्रियता को दिया. वो इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ चुके थे कि सिनेमा एक शहरी मध्यवर्ग का माध्यम है और इसलिए उन्होंने हमेशा उन फ़िल्मों को चुना जिसका नायक शहरी होता था.उन्होंने हमेशा अपने नायक की एक ऐसी छवि निर्मित की, जो अपने समय से जुड़ा हुआ है, समकालीन है. आज की समस्याओं से जूझता हुआ, आज की जिंदगी के सवालों से टकराता हुआ और उसी का हल खोजता हुआ. अपने बड़े भाई चेतन आनंद और अपने छोटे भाई विजय आनंद के बीच वे हमेशा अपनी एक अलग छवि बनाने में कामयाब रहे. बड़े भाई चेतन आनंद ने अपने फ़िल्मी कॅरियर की शुरुआत ’नीचा नगर‘ से की थी, जो पश्चिम के यथार्थवादी सिनेमा से प्रभावित था और उस प्रगतिशील आंदोलन से उसका संबंध था, जो साहित्य और अन्य कला विधाओं के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त कर रहा था.
अपने बड़े भाई का वैचारिक असर देव आनंद और विजय आनंद पर भी दिखाई देता रहा है. इसके बावजूद देव आनंद ने जितना मुमकिन हो सका, अपने को राजनीतिक दृष्टिकोणों से अलग रखा. कभी-कभार उन्होंने राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे मुद्दे भी उठाये, लेकिन ऐसे मुद्दों में उनकी दिलचस्पी बहुत अधिक नहीं थी. देव आनंद को जब शहर या महानर से जोड़ा जाता है, तो यह महज उनकी फ़िल्मों की लंबी सूची से ही तय नहीं होता है, बल्कि उनकी एक अभिनेता के रूप में उस छवि से भी तय होता है, जिसमें वैसी विविधता नहीं है जैसी विविधता हम राजकपूर, दिलीप कुमार, गुरुदत्त आदि में देखते है.
आश्चर्य की बात जरूर है कि दिलीप कुमार की तरह वे अभिनय-कला के उत्कर्ष पर दिखाई न देते रहे हों, लेकिन वे हिंदी के वे पहले ऐसे अभिनेता और फ़िल्मकार हैं, जो कई दशकों तक अपने दर्शकों के बीच लोकप्रिय बने रहे. उनकी इस लोकप्रियता को शायद अमिताभ बच्चन ही चुनौती दे पाये. देव आनंद की लोकप्रियता की बात जब की जाती है, तो यह अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता से एक अलग किस्म की लोकप्रियता है. एक अभिनेता के रूप में युवाओं के बीच देव आनंद की छवि एक सदाबहार अभिनेता की है. एक रोमांटिक, खुशमिजाज और जिंदगी को भरपूर जीने की चाह रखने वाला नायक की. लेकिन वे केवल अभिनेता ही नहीं थे, वे निर्माता और निर्देशक भी थे.
उन्होंने लगभग 35 फ़िल्मों का निर्माण किया और कमोबेश इतनी ही फ़िल्मों का निर्देशन भी किया. वे फ़िल्म अभिनेताओं के बीच में अपनी निर्माता की छवि के कारण भी उस संकट से नहीं गुजरे, जो अन्य अभिनेताओं को ङोलना पड़ता है. देव आनंद की शुरुआती फ़िल्में भी महानगर से ही जुड़ी थी, लेकिन उनको एक अभिनेता के रूप में स्थापित किया ’टैक्सी ड्राइवर‘ जैसी फ़िल्मों ने. इसमें उन्होंने एक निम्न मध्यवर्ग के नायक की भूमिका निभायी. अगर ध्यान दें तो वे शुरू से अंत तक मध्यवर्ग के दायरे में ही रहे. चाहे वह ’टैक्सी ड्राइवर‘ हो, ’तेरे घर के सामने‘ हो, ’गाइड‘ हो, ’तेरे मेरे सपने‘ हो, ’काला बाजार‘ या ’कालापानी‘ हो या ’ज्वेल थीफ़‘. हालांकि नायक के रूप में फ़िल्में तो वे बाद में भी करते रहे और निर्माता-निर्देशक के रूप में अपने अंतिम क्षणों तक करते रहे. इसके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि एक फ़िल्मकार के रूप में वे अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे. अपनी बेहतरीन फ़िल्मों के माध्यम से वे आज भी लोकप्रिय हैं और आगे आने वाले लंबे समय में भी वे लोकप्रिय बने रहेंगे. ऐसे में निश्चय ही देव आनंद का जाना हिंदी सिनेमा में एक युग का खत्म होना है.
(लेखक फ़िल्म विशेषज्ञ हैं)

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