सोमवार, 2 जनवरी 2012

जबाबी गदर थे मुक्‍ति‍बोध

चंचल चौहान
मुक्तिबोध को कला को सिर्फ कला तक सीमित करके देखना उन्हें पसंद नहीं था । कला की सामाजिक पक्षधरताका उदघोष उन्होंने किया और इसी नजरिये से उन्होंने अपने समय के सभी साहित्यिक मसलों पर लिखा । कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के हर नारे का तर्कसंगत जवाब मुक्तिबोध के लेखन में ही मिलता है । 'एक साहित्यिक की डायरी' के लेखों में मुक्तिबोध ने कथात्मक शैली में आधुनिकतावादियों की हर अवधारणा, जैसे-अकेलापन,भीड़ में अस्मि‍ता का विलय,ऊब,संत्रास आदि या व्यक्ति-स्वातंत्र्य,लघु मानव,की अवधारणा का जैसा सटीक जवाब दिया है वह उस दौर के लेखन में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । आठवें दशक में जब जनवादी समीक्षा का नया उभार आया तभी उन सूत्रों को आगे बढ़ाया जा सका । कला और रचना के महीन रग रेशों के भीतर पैठ कर मुक्तिबोध ने हिंदी को वश्वसाहित्य को जो मौलिक सूझबूझ दी है वह अदभुत है । 'नयी कविता का आत्मसंघर्ष'और 'नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' के निबंधों को गहराई से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि रचना-प्रक्रिया, वस्तु और रूप, सौंदर्यानुभूति आदि तमाम उन विषयों पर मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी नजरिये से लिखा जो साहित्य सृजन के दायरे में आते थे । उन्होंने अपने समकालीन आधुनिकतावादियों के साथ लगातार एक बहस की। उन्हीं का एक शब्द उधार लें तो वे सचमुच 'जवाबी गदर' थे । मुक्तिबोध ने अपने समकालीन रचनाकारों की कृतियों की व्यावहारिक समीक्षा भी लिखी और 'कामायनी: एक पुनर्विचार' जैसा पूरा आलोचनात्मक ग्रंथ भी लिखा जो इस महाकाव्य का वर्गीय वैचारिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है ।

मुक्तिबोध का एक योगदान और गौरतलब है,वह है प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को गहराई में उतरकर पहचानना । प्रगतिवाद की विचारधारात्मक शक्ति का बहुत ही तर्कसंगत आकलन उन्होंने 'प्रगतिवाद: एक दृष्टि'लेख में किया और प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को उन्होंने बेलाग तरीके से 'समीक्षा की समस्याएं'निबंध में दर्शाया । मुक्तिबोध द्वारा किये गये विश्लेषण से आज भी जनवादी समीक्षकों को सीखने की जरूरत है । मगर दुखद पहलू यह है कि वे कमजोरियां आज भी उन आलोचकों में जड़ जमाये बैठी हैं जो अपने को 'मार्क्सवादी' मानते हैं । ऐसा लगता है मानों हमारे ऐसे समीक्षकों से वे शायद आज ही यह कह रहे हों।

'ध्यान में रखने की बात है कि लेखकों से कलह करके, ऐसे लेखकों से जिन्हें पूरा का पूरा विपक्षी नहीं कहा जा सकता,जो अभी अपनी विकास-यात्रा पर आगे बढ़ रहे हैं,आप अपने उन प्रभावशाली विपक्षियों के हाथ ही मजबूत बना रहे हैं,जिनका एकमात्र उद्देश्य आपकी विचारधारा को और आपको
पूर्णत: समाप्त कर देना है -- ऐसे विपक्षियों के,जो आपसे अधिक एकताबद्ध, साधनसंपन्न ओर क्रियाशील हैं,और जो अपने वास्तविक कार्य-व्यवहार द्वारा विकासमान लेखकवर्ग से घनिष्ठ संपर्क बनाये हुए हैं । ऐसी स्थिति में भी यदि वे पूर्णत: साहित्य क्षेत्र पर अपना प्रभावाधिकार नहीं जमा पा रहे हैं तो इसका एक कारण है,लेखकवर्ग की अपनी उद्बुद्धता और चेतना । संक्षेप में आपको स्थिति-परिस्थिति का,सामाजिक-राष्ट्रीय अवस्था कापरिप्रेक्ष्य रखना आवश्यक है ।

क्या आज के सांप्रदायिक फासीवादी दौर में मुक्तिबोध की इस सलाह पर हमारे समीक्षकों को गौर नहीं करना चाहिए ?
(लेखक जनवादी लेखक संघ के राष्‍ट्रीय महासचि‍व और प्रख्‍यात आलोचक हैं)

इस युग के सबसे बड़े वि‍चारक हैं मुक्‍ति‍बोध


शि‍वकुमार मि‍श्र
स्‍वतंत्र भारत के सबसे बड़ वि‍चारक हैं मुक्‍ति‍बोध। उन्‍हें न तो देवता बनाने जरूरत है और न पूजने की जरूरत है। व्‍यक्‍ति‍गत और साहि‍त्‍यि‍क ईमानदारी में उनका कोई जबाव नहीं है। उन्‍होंने अपनी आलोचना से हि‍न्‍दी आलोचना का इकहरापन तोड़ा है। आलोचना में समाजशास्‍त्रीय,ऐति‍हासि‍क और मनोवैज्ञानि‍क दृष्‍टि‍कोण की हि‍मायत की है। उनका मानना था कि प्रगति‍शील आलोचना को समग्र आलोचना होना चाहि‍ए। उसे आलोचना के एकांगी प्रयोगों से बचना चाहि‍ए।

मुक्‍ति‍बोध पर वि‍मर्श करते समय यह बात हमेशा ध्‍यान में रखनी होगी कि उनके भी अन्‍तविर्‍रोध हैं। ये ऐसे अन्‍तर्विरोध हैं जि‍नकी उनके भक्‍त अनदेखी करते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि मुक्‍ति‍बोध ने आरोप में सि‍द्धान्‍त के धरातल पर जो बातें रेखांकि‍त की हैं उन्‍हें 'कामायनी एक पुनर्विचार ' नामक आलोचना ग्रंथ में वे स्‍वयं उनका पालन नहीं कर पाए। उन्‍होंने व्‍यवहारि‍क समीक्षा के जो आरोप दूसरों पर लगाए हैं। उन आरोपों का वे भी स्‍वयं जबाव नहीं दे पाए हैं।

मुक्‍ति‍बोध की खूबी है कि उन्‍होंने अपने समय को बड़ी ही गंभीरता के साथ समझा था। वे हमारे समय के जरूरी कवि हैं। उनकी कवि‍ता समय से सीधा साक्षात्‍कार करती है। उसमें गहरा आत्‍मसंघर्ष है। उनकी कवि‍ता मध्‍यवर्ग केन्‍द्रि‍त है। भारतीय मध्‍यवर्ग में वि‍वेक और संस्‍कार की जंग चलती रहती है। वर्गीय वि‍वेक आगे की और ठेलता है और संस्‍कार पीछे की ओर ठेलते हैं। वि‍वेक और संस्‍कार की कशकमश में भारतीय मध्‍वर्ग सारी जिंदगी गुजार देता है। मध्‍यवर्ग का भवि‍ष्‍य तब ही सुरक्षि‍त है जब वह व्‍यक्‍ति‍त्‍वान्‍तरण करे। अपने को डि-क्‍लास करे। मध्‍यवर्ग अपने संस्‍कारों से सारी जिंदगी संघर्ष करता रहता है। वह जाना चाहता है ऊपर वाले वर्ग में लेकि‍न परि‍स्‍थि‍ति‍यां उसे नि‍चले वर्ग की ओर ठेलती हैं। मुक्‍ति‍बोध का सारा रचना संघर्ष इसी व्‍यक्‍ति‍त्‍वान्‍तरण से अभि‍न्‍न रूप में जुड़ा है।

मुक्‍ति‍बोध पक्‍के मारक्‍सवादी थे। वे मार्क्‍सवाद के जरि‍ए पूर्ण ज्ञान पाना चाहते थे। लेकि‍न उन्‍हें मार्क्सवाद से यह नहीं मि‍ला यही वजह है कि वे अन्‍य वि‍चारधाराओं की ओर गए। इसके बावजूद उन्‍होंने मार्क्‍सवाद के प्रति अपनी आस्‍थाओं को बनाए रखा,अन्‍य वि‍चारधाराओं के साथ समझौता नहीं कि‍या। जबकि उनके अनेक दोस्‍त मार्क्‍सवाद का रास्‍ता त्‍यागकर जा चुके थे। उनके दोस्‍तों ने अन्‍य वि‍चारधाराओं के साथ समझौते भी कि‍ए। लेकि‍न मुक्‍ति‍बोध ने मार्क्‍सवाद का रास्‍ता नहीं छोड़ा। उन्‍होंने मजदूरों की जिंदगी जी। असल बात यह थी वे मार्क्‍सवाद को जीना चाहते थे। मार्क्‍सवाद उनके लि‍ए कि‍ताबी दर्शन नहीं था।

हमें मुक्‍ति‍बोध को अन्‍तर्विरोधों के साथ देखना चाहि‍ए। हम उन्‍हें पूजें नहीं। जब भी कि‍सी वि‍चारक को पूजने की कोशि‍श हुई है उस वि‍चारक का नुकसान ही हुआ है। मुक्‍ति‍बोध बड़े ईमानदार थे। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्‍होंने फंतासी को यथार्थवादी कवि‍ता का हि‍स्‍सा बनाया। उल्‍लेखनीय है फंतासी को रोमैंटि‍क कवि‍ता की चीज माना जाता था। फंतासी को उन्‍होंने यथार्थ के जोड़ा। फंतासी में अपने समय के यथार्थ को पेश कि‍या। मार्क्‍सवादी होते हुए नयी कवि‍ता में जाकर वि‍चारधारात्‍मक संघर्ष कि‍या,नयी कवि‍ता को उन लोगों से बचाया जो उसे अस्‍ति‍त्‍वाद और व्‍यक्‍ति‍वाद की दि‍शा में ले जाना चाहते थे।
मुक्‍ति‍बोध लेखकीय ईमानदारी का आईना है उनकी आलोचना। उन्‍होंने स्‍वयं माना कि कामायनी लि‍खी उनकी समीक्षा अधूरी है। कामायनी संबंध मूल्‍यांकन की सबसे बड़ी कमजोरी है उनका व्‍यावहारि‍क धरातल पर समीक्षा सि‍द्धान्‍तों को लागू न कर पाना।

मुक्‍तबोध पूर्ण समीक्षा के पक्षधर थे। सवाल उठता है कि मुक्‍ति‍बोध को अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा अशोक बाजपेयी भी पसंद करते हैं उनके यहां अपने भावों और वि‍चारों की खोज कर लकते हैं। उसी तरह प्रगति‍शील लेखक और आलोचक भी अपने लि‍ए चीजें ढूंढ़ लेते हैं। अज्ञेय के यहां मुक्‍ति‍‍बोध की जो समझ है वही समझ प्रगति‍शीलों के यहां नहीं है। इसका अर्थ है कि उनके नजरि‍ए में कहीं न कहीं अन्‍तर्विरोध हैं। हमें उन अन्‍तर्वि‍रोधों को भी देखना चाहि‍ए।
मैं नि‍जी तौर पर मुक्‍ति‍बोध से कई बार मि‍ला हूँ। उनके साथ एक दो बार गोष्‍ठि‍यों में भी भाषण दि‍या है। आप लोगों को जानकर अच्‍छा लगेगा कि एक बार सागर में एक गोष्‍ठी थी जि‍समें मुक्‍ति‍बोध ने अपना महत्‍वपूर्ण आलेख 'काव्‍य के तीन क्षण' नि‍बंध पढ़ा था। वहां पर मैंने उनसे यह बात कही थी कि इस आलेख की बहुत सारी धारणाएं आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल की आलोचना धारणाओं से ली गई हैं। इसके जबाव में उन्‍होंने माना कि उनके इस लेख में रामचन्‍द्र शुक्‍ल की अनेक धारणाओं का इस्‍तेमाल कि‍या गया है। मुक्‍ति‍बोध इस अर्थ में बड़े आलोचक हैं कि उन्‍होंने हि‍न्‍दी आलोचना की परंपरा को तोड़ा नहीं, बल्‍कि परंपरा से अपने को जोड़ा उसे आगे बढ़ाया। उन्‍होंने परंपरा के सबल तत्‍वों को आगे बढ़ाया।कवि‍ता की प्रकृति ,उसके स्‍वरूप उसकी नि‍र्मिति और उसके प्रयोजनादि के बारे में शुक्‍लजी और मुक्‍ति‍बोध के वि‍चार दूर तक एक दूसरे के अवि‍रोधी हैं। बातें मुक्‍ति‍बोध ने अपने ढ़ग से कही हैं ,और शुक्‍ल जी ने अपने ढ़ंग से, अपने अपने युग संदर्भों के अनुरूप कि‍न्‍तु उनमें जि‍तना एकात्‍म है उतना पार्थक्‍य नहीं है।

मुक्‍ति‍बोध इतनी दूर तक आधुनि‍कतावादी नहीं हैं कि पारंपरि‍क शब्‍दावली की छाया तक से बचने का उपक्रम करें। वे तो तादात्‍म्‍य,ताटस्‍थ्‍य,रसदशा,रसमग्‍नता आदि का,आनन्‍दानुभूति और हृदय की मुक्‍त और बद्ध दशा की नि‍स्‍संकोच चर्चा करते हैं। उन्‍हें रस और रस की शब्‍दावली का अपने ढ़ंग से इस्‍तेमाल करने में कोई परहेज नहीं है। कवि‍ता की रचना प्रक्रि‍या का वि‍श्‍लेषण करते हुए वे शुक्‍लजी के चिंतन के अनेक बिंदुओं के बहुत नि‍कट पहुँच जाते हैं। कवि‍ता में भावना और बुद्धि के अंतराबलम्‍बन की बात मुक्‍ति‍बोध ने गंभीरता से उठाई है और आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने भी जोर देकर इस तथ्‍य का प्रति‍पादन कि‍या है कि ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है। शुक्‍लजी रसवादी जरूर हैं किंतु ऐसे रसवादी नहीं कि भावना की जगह भावुकता को तरजीह दें और भावना की शक्‍ति को मुक्‍ति‍बोध भी स्‍वीकार करते हैं।

आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल और मुक्‍ति‍बोध दोनों ने ही काव्‍यानुभूति और सौंदर्यानुभूति को सामान्‍य जीवनानुभूति से भि‍न्‍न नहीं माना। रसानुभव या सौंदर्यानुभव के क्षण राह चलते सामान्‍य जीवन में भी होते हैं, या हो सकते हैं,यह दोनों ही जोर देकर कहते हैं।
मुझे इस बात की खुशी है कि हि‍न्‍दी के वि‍श्‍ववि‍द्यालयों के कोर्स में मुक्‍ति‍बोध को एमए के छात्रों में पढ़ाने का सि‍लसि‍ला सागर वि‍श्‍ववि‍द्यालय से ही शुरू हुआ। पहलीबार मुक्‍ति‍बोध को सागर वि‍श्‍ववि‍द्यालय में एमए में आचार्य नन्‍ददुलारे बाजपेयी ने ही आरंभ कि‍या। जबकि उनके बारे में यह प्रसि‍द्ध था कि वे नई कवि‍ता के वि‍रोधी हैं। बाजपेयी जी के आदेश पर ही मैंने नई कवि‍ता का पहला काव्‍य संकलन 'सप्‍तपर्णी के नाम से सन् 1960-61 में तैयार कि‍या था। 'सप्‍तपर्णी' के दूसरे संस्‍करण में मुक्‍ति‍बोध की कवि‍ताएं भी शामि‍ल की गयीं। यह सन् 1967 में प्रकाशि‍त हुआ था। सन् 1967 में यह संभवत: नई कवि‍ता का पहला कोर्स संकलन था, जि‍समें मुक्‍ति‍बोध शामि‍ल कि‍ए गए थे। यह एमए के छात्रों के लि‍ए तैयार कि‍या गया था। बाद में इस संकलन को आचार्य हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी ने चंडीगढ़ में और आचार्य नलि‍नवि‍लोचन शर्मा ने पटना वि‍श्‍ववि‍द्यालय के कोर्स में लगाया। इस तरह मुक्‍ति‍बोध का हमारे वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में प्रवेश हुआ।

( लेखक ,वरि‍ष्‍ठतम हि‍न्‍दी आलोचक और मार्क्‍सवादी चि‍न्‍तक हैं। इन्‍होंने 33 साल तक वि‍भि‍न्‍न वि‍श्‍ववहद्यालयों में अध्‍यापन कार्य कि‍या है। तकरीबन दो दर्जन से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण आलोचना ग्रंथ लि‍खें हैं। यह आलेख डा;सुधासिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित है। वे दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में 'मीडि‍या,अनुवाद और पत्रकारि‍ता' की एसोसि‍एट प्रोफेसर हैं )।

नई सदी में कबीर

रचनाकार: शिवकुमार मिश्र         
तमाम सारी चुनौतियों और सवालों से घिरे, टूटे और फिर से बन रहे सपनों तथा वर्तमान और भविष्य की ढेर सारी आशाओं-आशंकाओं के साथ आज हम २१ वीं सदी की दहलीज पर हैं। पिछली सदी और सदियों का बहुत कुछ हम छोड़ आए हैं, उस सदी और पहले की सदियों के खाते में। किन्तु पिछली सदी और पहले की सदियों का तमाम कुछ हमारे साथ नई सदी में आया भी है, लाया गया है। यह जो हमसे बहुत कुछ छूटा या छोड़ा गया है, अथवा हमारे साथ आया अथवा लाया गया है, वह हमारे जाने भी हुआ है और अनजाने भी। इस नई सदी में हमारे विचार का मुद्दा-महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हम इस आना-जाना की परख और पहचान करें। जो कुछ नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुकूल है उसे हम सहेजें, छूट गया हो तो उसे लाएँ तथा जो नई सदी के हमारे सरोकारों से मेल नहीं खाता, उससे सावधान रहें, नई सदी के दायरे में उसे आने से रोकें।
एक पूरी सदी की यात्रा हमारे सामने है। जरूरी हो जाता है कि हम अपने विवेक के तहत ग्रहण और त्याग से जुड़ी अपनी उक्त चिन्ताओं का हल खोजें।
संप्रति हम ग्रहण और त्याग के इस परिप्रेक्ष्य को मध्यकाल और खासतौर से कबीर के अध्ययन तक सीमित रखना चाहेंगे। वस्तुतः विरासत या परंपरा से हमें जो कुछ मिलता है, उसके ग्रहण या त्याग का निर्णय हम अपने उस विवेक के तहत ही करते हैं, जो हम अपने पूरे जीवन अर्जित करते हैं। तमाम सारी सजगता और परिपक्व विवेक-चेतना के बावजूद विरासत या परंपरा का बहुत कुछ अवांछित और अहेतुक भी, हमारे संस्कारों का हिस्सा बनकर या समय में आ जाता है। फलतः समूचे जीवन हमारी विवेक-चेतना तथा संस्कारों के बीच एक समर चलता रहता है। इस समर में कभी जीतते, कभी हारते, हम अपनी जीवन-यात्रा पूरी करते हैं।
जहाँ तक कबीर का सवाल है, कबीर का सच भी वस्तुतः यही है। कबीर को उनकी समग्रता में जानने समझने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में ही जानें-समझें। कबीर से संबंधित, इस नई सदी में हमारी चिन्ता इस बात को लेकर है कि कबीर का कितना कुछ इस नई सदी में हम अपने साथ लेकर चलें, और कितना कुछ, जो नई सदी के हमारे सरोकारों की संगति में नहीं हैं, उनके जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनाकर उनकी सोच में मौजूद है, उसे पुरानी सदी या उनकी अपनी सदी के खाते में ही रहने दें। कबीर को इस बिन्दु पर न केवल हमें समग्रता में पढ़ने की जरूरत है, उन्हें उनकी अंतर्विरोधी जटिलता में भी जानने-समझने की जरूरत है। कबीर की देवमूर्ति गढ़ने के बजाय, भावुकता या अंध-श्रद्धा से उन्हें देखने-समझने के बजाय, बेहतर होगा कि हम उन्हें अपने उस विवेक की कसौटी पर देखें-परखें-जो हमने अर्जित की है-नई सदी के हमारे सरोकार जिसके तहत ही तय और निश्चिय किए गए हैं।
कबीर में उनके कहे हुए में, जब हम अंतर्विरोधों की बात करते हैं, तो उस कहे हुए के साक्ष्य पर ही करते हैं। हम सब जानते हैं कि कबीर को जो विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़ आदि कहा जाता है, तो इस नाते कि कबीर ने अपने समय में परंपरा से चले आते हुए तमाम-कुछ को नकार दिया था, छोड़ दिया था। बावजूद इसके, परंपरा से आया हुआ तमाम कुछ जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनकर उनकी सोच में मौजूद भी था। इसी नाते कबीर अंतर्विरोध के शिकार हुए। इसीलिए हमने कबीर को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और समझने की बात की है। हम न तो उस ब्राह्मणवादी सवर्ण मानसिकता के साथ हैं, जो पूरे के पूरे कबीर को नकारती है और उस अंध आस्थावादी दलित-सोच के साथ, जो कबीर के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर उन्हें उनके पूरेपन में ढोने की हिमायत करती हैं। कबीर स्वयं देवमूर्तियों के खिलाफ थे और हम भी इसी नाते कबीर की किसी देवमूर्ति गढ़ने के पक्ष में है। कबीर को समग्रता में, वस्तुनिष्ठता में और अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और उनके बीच में उनके तेजस्वी अंश को स्वीकार करने में ही हमारी रुचि है।
आइए, पहले कबीर को उनके व्यक्तित्व के पूरेपन में पहचानने का प्रयास करें। कबीर को विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़, आक्रामक, न जाने क्या-क्या कहा गया है, जिसके साक्ष्य उनकी बानियों में हैं किन्तु यह कबीर के व्यक्तित्व का एक पहलू है। कबीर के व्यक्तित्व का दूसरा पहल वह है, जिसके तहत वे एक नितांत, सौम्य, कातर, आर्त्त, विनीत, मृदु और तरल रूप में हमारे सामने आते हैं-खासतौर से अपनी भक्ति के स्तर पर जहाँ वे कभी राम के 'कूता' हैं, कभी अपने हरि के बालक, या फिर जब वे यह कहते है कि सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै। कबीर के इन दोनों व्यक्तित्वों में अंतर्विरोध नहीं है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। कबीर अपने जिन बेधक व्यंग्यों के लिए ख्यात हैं-वे व्यंग्य हों या व्यंग्य का कोई अन्य रूप-व्यंग्य का बीज भाव हमेशा हमारी मानवीय करुणा ही होता है। कबीर रात-रात भर जागकर-जो रोते हैं, उसका कारण यही है कि रात-रात भर जागकर वे जो कुछ देख रहे थे, उसे देखकर वे रो ही सकते थे। खा-पीकर सुख से सोने वाले सपने देखते हैं जागने वाला यथार्थ देखता है। कबीर का देखा भोगा यथार्थ उन्हें रूला ही सकता था। यही कबीर इस रूदन के नाते ही संतृप्त मनुष्यता के यथार्थ जीवन को देखकर उपजे इस रूदन के नाते-जब सुख से सोने वालों पर वज्र बरसाता है, अपने व्यंग्यों से उन्हें छलनी करता है, तब उसका आक्रामक-विद्रोही रूप सामने आता है। वाल्मीकि पहले क्रौंच-मिथुन में से एक की हत्या पर पसीजे थे, अनंतर उनकी करुणा ही बहेलिए पर शाप बनकर फूटी थी। हमारी गुजारिश है कि कबीर को पूरेपन में समझने के लिए उनके व्यक्तित्व के इन दोनों रूपों को समझा जाये। ये दो रूप एक-दूसरे के पूरक हैं, अंतर्विरोधी नहीं, अब आइए कबीर के दो अंतर्विरोधी रूपों का जायजा लें।
कबीर को हम जब भी वस्तुनिष्ठता से और समग्रता से देखने का प्रयास करते हैं, हमें कबीर की बानियों के भीतर से दो कबीर दिखाई पड़ते हैं। कबीर को जिस तरह सृष्टा के-दो रूपों ने परेशान किया था-हिन्दू-मुसलमानों द्वारा अपने-अपने ढंग से रखे गए उनके नाम के नाते-और परेशान होकर झुंझलाते हुए कबीर को पूछना पड़ा था कि 'दुइ जगदीश कहाँ से आए?'-उसी तरह कबीर में ही कबीर के ये दो रूप हमें परेशान करते हैं। अंतर यह है कि वहाँ स्रष्टा के वे दोनों रूप एक और तत्त्वतः अभिन्न हैं, कबीर के ये दो रूप एक और अविरोधी नहीं हैं। उनका एक रूप दूसरे के विरोध में है-हमारी परेशानी का कारण यही है।
कबीर के इन दो रूपों में उनका एक रूप 'अस्वीकार' के कबीर के रूप हैं-जिसके तहत कबीर परंपरा से चले आ रहे तमाम कुछ को अस्वीकार करते हैं, विद्रोही के रूप में सामने आते हैं। कबीर के इसी रूप को लक्ष्य करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब में लिखा था कि 'कबीर अपने समय में 'अस्वीकार' का बहुत बड़ा साहस लेकर सामने आए थे।'
कबीर का दूसरा रूप, इसके विपरीत 'स्वीकार' के कबीर का रूप है, जिसके तहत परंपरा से चले आते तमाम कुछ का जाने-अनजाने उनके द्वारा किया गया स्वीकार है-जो उनके व्यक्तित्व में संस्कारों के रूप में मौजूद है, उनकी सोच को, पहले रूप की सोच के बरकस क्षतिग्रस्त करता है, अंतर्विरोधों की सृष्टि करता है।
हमारे सामने सवाल है कि नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप कबीर का कौन सा रूप है, जिसे लेकर इस सदी में हम आगे बढ़ें। दिलचस्प तथ्य है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनकी स्थापनाओं के प्रबल विरोधी, कबीर के दलित-दावेदार, डॉ० धर्मवीर, इस बिन्दु पर एक ही जमीन पर खड़े हैं। दोनों कबीर को-उनके दोनों रूपों के साथ-साथ चलना चाहते हैं-अपने-अपने तर्कों के आधार पर दोनों ही कबीर के अंतर्विरोध को नजरअंदाज करते हैं। दोनों ही आस्था और श्रद्धा की निगाह से ही कबीर को देखते हैं - आलोचनात्मक विवेक के तहत नहीं। कहना न होगा कि हमारी दृष्टि इन दोनों से भिन्न है।
हम जिस बात को कहना चाहते हैं, पूरे जोर और पूरे वजन के साथ, वह यह कि कबीर के इन दोनों रूपों में जहाँ-'अस्वीकार' के कबीर का रूप उन्हें अपने समय से बहुत आगे उन्हें समकालीन हमारे अपने समय में हमारा हमसफर, नई सदी के सरोकारों की दृष्टि से हमारा मार्गदर्शक बनाता है, उनका जाग्रत और तेजस्वी रूप है, वहाँ उनका दूसरा 'स्वीकार' वाला रूप उन्हें अपनी शक्ति और सीमाओं के साथ उन्हें मध्ययुग में उनके अपने समय तक सीमित रखता है, उससे आगे उन्हें नहीं ले जा पाता। उन्हें मध्य युग के सगुण भक्तों के साथ, कुछ भिन्नताओं के बावजूद विवेच्य बनाता है-उन्हें कोई खास पहचान नहीं देता। यही कारण है कि कबीर के निर्गुण-पंथ की अपनी कुछ खास विशिष्टताओं के बावजूद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनमें और सुगण भक्तों में कुछ ऐसे समान अंतः सूत्र खोज लिए हैं जो दोनों को एक करते हैं।
डॉ० धर्मवीर के यहाँ तो कबीर के 'अस्वीकार' और 'स्वीकार' का सवाल ही नहीं उठा। उन्हें कबीर में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ा। कबीर में जो कुछ उन्हें अपने प्रतिकूल लगा, उसे उन्होंने ब्राह्मणवाद की साजिश या प्रक्षिप्त कहकर खारिज कर दिया और जो कुछ अनुकूल मिला उसे उन्होंने प्रामाणिक करार दिया। अध्ययन का यह वैज्ञानिक तरीका नहीं है। बेहतर होता कि कबीर की चर्चा करने के पहले, डॉ. धर्मवीर मेहनत करके कबीर का प्रामाणिक पाठ लाते और उसके आधार पर बात करते। ऐसा न करके-कबीर का जो कुछ है उसी को मनोनुकूल स्वीकार या अस्वीकार करते हुए वे आगे बढ़े हैं।
बहरहाल, हम अपनी बात पर आएँ।
क्या है, कबीर का 'अस्वीकार'-जिसके नाते वे आधुनिक और समकालीन हैं, नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप हमारे मार्गदर्शक कबीर के इस अस्वीकार में है-धर्म और धर्मशास्त्रा आधारित निहायत अमानवीय और आदमी और आदमी में वर्ण और जात के स्तर पर भेद करने वाली, हमारी सामाजिक संरचना का विरोध धर्म के बाह्याचारों और उससे जुड़े अंध श्रद्धावाद की भर्त्सना, सामाजिक-धार्मिक पाखण्ड पर कबीर का व्रज प्रहार। ऊँच-नीच, छूत-अछूत, हिन्दू-मुसलमान के स्तर पर आदमीयत में फर्क करने वाली मानसिकता के खिलाफ बगावत। सारे धर्मों को हाशिए पर डालते हुए-एक-मानव धर्म की बात जहाँ आदमी की शिनाख्त का पैमाना उसकी आदमीयत हों। एक ही खाल से सबके रचे सिरिजे जाने की बात। बहुत कुछ है कबीर के इस अस्वीकार में जो हमारे समय में उन्हें जोड़ता है।
और क्या है, कबीर का 'स्वीकार' जो उन्हें मध्ययुग में सीमित किए हुए है-उससे आगे नहीं आने देता।
कबीर के इस स्वीकार में शामिल है-ब्रह्म, जीव, माया का प्रपंच, उनका रहस्य चिंतन, गगन-गुहा, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना, सृष्ट दल, सहस्र दल कमल और नाना-चारों का उनका हठ योग, उनका अध्यात्म, उनकी उलटबाँसियाँ, पूवर्जन्म-पुनर्जन्म पर उनका विश्वास, भाग्य-नियति पर उनकी आस्था, जीवन की क्षणभंगुरता पर उनका विश्वास, उनकी भक्ति, आदि का अपनी भक्ति में निःसंदेह कबीर बहुत ऊँचे और बहुत मार्मिक है, परन्तु है वह परंपरा से चले आज का स्वीकार ही। इस 'स्वीकार' के बिन्दु पर कबीर मध्यकाल के सगुण भक्तों से तुलनीय बनते हैं-मध्ययुग के दायरे में विवेच्य बनते हैं। अपनी कोई खास पहचान नहीं बना पाते।
यह एक अस्वीकार है, उससे जुड़ी उनकी सामाजिक सोच हैं, जो उन्हें सगुण भक्तों से अलग, मध्ययुग में भी एक खास पहचान देती है और उन्हें आधुनिक और समकालीन भी बनाती है।
व्यवस्था और शासन सत्ता ने हमेशा कबीर की उपेक्षा की। समय के बदले माहौल में वही व्यवस्था और वही सत्ता अपने स्वार्थ के लिए कबीर का इस्तेमाल करना चाहती है उनकी जयैंतियां आयोजित हो रही हैं, कबीर मेले हो रहे है-ताकि अपनी राजनीतिक पकड़ को उस वर्ग में मजबूत किया जाये, जो कबीर का अपना वर्ग है।
परन्तु व्यवस्था कबीर के 'अस्वीकार' वाले पहलू से घबराती है। इस नाते उसे हाशिए पर डालकर उनके 'स्वीकार' वाले पहलू को गौरवान्वित कर रही हैं, जो उसके हितों के अनुरूप हैं। 'अस्वीकार' वाले पहलू को वह हाशिए पर तो डाले ही हुए है। उसे भी विरूद्ध और डाइल्यूट करने का प्रयास कर रही है। व्यवस्था चाहती है कि सारे कवि ब्रह्म, जीव, माया के प्रपंच में उलझे रहें और उसका रथ आगे बढ़ता रहे। कुमार गंधर्व कबीर के निर्गुण गा रहे हैं-अवकाश भोगी मध्यवर्ग खा पीकर उनके संगीत का आस्वाद कर रहा है। किसे फुरसत है यह जानने-सोचने की कि वो कुछ गाया जा रहा है। वह है क्या? गगन-मंडल में गाये-बगाएँ उससे समाज और दलितों का कोई हित नहीं होता, परन्तु यही निर्गुण गाए जा रहे है। डॉ० धर्मवीर तक की निगाह व्यवस्था के इस पहलू पर नहीं है, यही विडम्बना है।
सवाल यही है, हमारे सामने कि व्यवस्था की इस साजिश को कैसे बेनकाब करें। दायित्व यही है कि हमारा कि नई सदी के अनुरूप हम 'अस्वीकार' के कबीर के तेज को मद्धिम न होने दें। नई सदी के हमारे सफर में 'अस्वीकार' के ये कबीर ही हमारे मार्गदर्शक हैं। हम उन्हें लेकर आगे बढ़ें। 'स्वीकार' के कबीर को हम अकादमिक चर्चाओं के लिए, शोध के लिए, मध्ययुग के खाते में विवेच्य होने के लिए छोड़ दें। कबीर होते तो यही चाहते भी। कबीर ने भी अपने समय में बहुत कुछ छोड़ा था। उन्हीं के मार्गदर्शन में यदि हम कबीर का एक पहलू छोड़ते हैं, तो कबीर के किए घरे का ही अनुसरण करते हैं।