शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

एटमी अप्रसार के बहाने

पुष्परंजन
(जनसत्ता 8 जनवरी, 2012) सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियां ‘ठुकरा दो, या प्यार करो’ का प्रयोग भारत ने अब कूटनीति में भी करना प्रारंभ कर दिया है। यूरोपीय संघ ने सोचा नहीं था कि ईरान के खिलाफ प्रतिबंध में भारत उसका साथ देने से मना कर देगा। अमेरिका और यूरोपीय संघ को संदेह है कि ईरान नाभिकीय हथियार विकसित कर चुका है। पश्चिम के दुश्मन पर प्रतिबंध के लिए संदेह ही काफी है। ईरान के सैन्य नाभिकीय कार्यक्रमों के लिए पैसे आना बंद हो, यह सोच कर अमेरिका ने ईरान के सेंट्रल बैंक समेत कोई सवा सौ फर्मों और वित्तीय संस्थाओं को काली सूची में डाल दिया है। इसकी देखादेखी सत्ताईस सदस्यों वाले यूरोपीय संघ ने भी एक प्रस्ताव द्वारा यह तय कर लिया कि ईरान के सेंट्रल बैंक पर प्रतिबंध के साथ-साथ हम उससे तेल लेना बंद कर देंगे।
ईरान इस प्रतिबंध का जवाब, प्रतिबंध से देते हुए कह चुका है कि होरमुज की खाड़ी से यूरोप-अमेरिका और उनके साथ खड़े देशों के लिए तेल की एक बूंद नहीं जाने देंगे। चौवन किलोमीटर वाली होरमुज की खाड़ी से ईरान, इराक, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान जैसे देश जुडेÞ हैं। ईरान-ओमान और संयुक्त अरब अमीरात के दस किलोमीटर संकरे मुहाने ‘तंगि-ए होरमुज’ से प्रतिदिन एक करोड़ साठ लाख बैरल तेल की निकासी जहाजों द्वारा होती है। तेल रोकने-निकालने को लेकर यहां कभी भी कुछ हो सकता है।
तेल पर रोक तो पंगे लेने का एक बहाना है। असल मुद््दा परमाणु अप्रसार है। विएना स्थित आईएईए (अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी) के अधिकारी ईरान जाकर क्या करते हैं, यह भी देख लेना चाहिए। उसके लिए हमें इक्कीस-बाईस फरवरी तक इंतजार करना होगा। तेहरान में इक्कीस फरवरी को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण का एक दल जाएगा। इस दल को ईरान के नाभिकीय प्रतिष्ठानों को किस हद तक देखने की अनुमति मिलती है, बहुत कुछ उस समय की परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। आईएईए के अतीत को देखने से यही लगता है कि खाड़ी में यह अंतरराष्ट्रीय संस्था आग में घी जैसा काम करती रही है। तीसरा खाड़ी युद्ध, जिसे इराक में लड़ा गया, उसमें आईएईए की लचर भूमिका को दुनिया अभी भूली नहीं है।
आईएईए के मुख्य निरीक्षक हर्मन नेकर्ट ने अब तक ईरान के किसी भी नाभिकीय प्रतिष्ठान का निरीक्षण नहीं किया है। क्या ईरान पर प्रतिबंध पश्चिम की धौंसपट््टी नहीं है? जब वाशिंगटन के कैपिटल हिल से लेकर ब्रसेल्स तक ही सारी बातें तय कर लेनी हैं, तो फिर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अधिकरण जैसी संस्था बनाने का औचित्य क्या है? अमेरिका और उसकी राह पर चलने वाला यूरोपीय संघ प्रतिबंध पहले लगाता है, जांच के लिए आईएईए का निरीक्षक बाद में भेजता है। इस अंधी व्यवस्था को कोई चुनौती क्यों नहीं देता? एक सचाई तो हमें स्वीकार करनी होगी कि होरमुज की खाड़ी में जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं, कभी भी खबर आ सकती है कि यहां से ‘चौथा खाड़ी युद्ध’ आरंभ हो चुका है। वहां बस माचिस की एक तीली दिखानी बाकी है।
इस पूरे बवाल की जड़ इजराइल अभी नेपथ्य में है। इजराइल के उप प्रधानमंत्री मोशे यालोन ने एक बार फिर अमेरिका को डराया है कि ईरान दस हजार किलोमीटर तक मार करने वाले परमाणु प्रक्षेपास्त्र विकसित कर चुका है। यानी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा जान लें कि उनका देश भी सुरक्षित नहीं है। इजराइली प्रतिरक्षा मंत्री एहुद बराक पहली फरवरी को ईरान पर प्रतिबंध के लिए जर्मनी का आभार प्रकट करने बर्लिन पहुंच गए। इजराइल के पास दो सौ से अधिक परमाणु हथियार हैं। इस पर न तो अमेरिका को आपत्ति है, न ही यूरोपीय संघ को। इजराइल ने नाभिकीय अप्रसार की किसी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है। लेकिन ईरान का परमाणु कार्यक्रम उसे सबसे अधिक नागवार गुजरता है। इनके तर्क अजीब से हैं कि एक मुसलिम देश के पास परमाणु बम नहीं होना चाहिए। तो क्या परमाणु बम रखने का एकाधिकार सिर्फ गैर-मुसलिम देशों को है? हमारी नहीं, तो आने वाली पीढ़ी को इसका जवाब देना होगा।
ईरान हर रोज कोई पचीस लाख बैरल तेल का निर्यात करता है, जो पूरी दुनिया की तेल आपूर्ति का तीन प्रतिशत है। इस पचीस लाख बैरल में से पांच लाख बैरल कच्चा तेल यूरोप को जाता है, बाकी तेल चीन, जापान, भारत और दक्षिण कोरिया आयात कर लिया करते हैं। चीन पूरे यूरोप से कहीं अधिक, प्रतिदिन पांच लाख सत्तावन हजार बैरल कच्चे तेल का आयात ईरान से करता है। फिर मामला तेल आयात तक सीमित नहीं है, बल्कि ईरान के तेल-गैस दोहन और प्रसंस्करण परियोजनाओं में चीन का जबर्दस्त निवेश है।
पिछले दो दशक में चीन-ईरान के बीच व्यापार में एक सौ पचास प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। चीन-ईरान के बीच बीस करोड़ डॉलर से शुरू हुआ व्यापार आज की तारीख में तीस अरब डॉलर को छूने लगा है, जिसमें से 4.6 अरब डॉलर कीमत वाली वस्तुएं गैर-पेट्रोलियम पदार्थ हैं। मतलब यह कि साढ़े पचीस अरब डॉलर का तेल-गैस व्यापार चीन और ईरान के बीच है। अब चीन, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के कहने से ईरान से तेल मंगाना छोड़ दे, यह कैसे संभव है? स्पष्ट है कि चीन ‘यू टर्न’ नहीं ले सकता। जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल पिछले दिनों चीन के दौरे पर गर्इं। उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा   परिषद संभवत: ईरान के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पास कर दे। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि सुरक्षा परिषद के दो स्थायी सदस्यों यानी रूस और चीन के बिना यह संभव है। कम से कम चीन के बिना तो बिल्कुल नहीं।
भारत में चुनाव के कारण अभी इस पर व्यापक चर्चा रुकी हुई है। फिर भी तय मानिए कि चुनाव परिणाम के अगले चरण में ही तेल को लेकर अपने देश में हाहाकार मचने वाला है। दो हफ्तों में ही कच्चे तेल की कीमत नब्बे डॉलर प्रति बैरल से उछल कर एक सौ बारह डॉलर पर पहुंच चुकी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष बता चुका है कि ईरान पर प्रतिबंध प्रकरण से कच्चे तेल की कीमत एक सौ पचास डॉलर पार कर जाएगी।
भारत और चीन पर पिछले दो महीनों से इसका जबर्दस्त दबाव था कि वे भी अमेरिका और उसके मित्रों की इस जंग में शामिल हो जाएं। भारत प्रतिदिन ईरान से चार लाख बैरल कच्चा तेल मंगाता है। साल में ईरान को 12. 68 अरब डॉलर का भुगतान भेजा जाती है, जिसमें से बीस प्रतिशत रुपए में, और बाकी तुर्की का बैंक ‘तुर्कीए हाल्क बंकासी’ के जरिए यूरो में। यह डर बना हुआ था कि यूरोपीय संघ शायद तुर्की पर दबाव बनाए, इससे ईरान को भारत द्वारा भुगतान में बाधा खड़ी हो सकती है। हालांकि तुर्की यूरोपीय संघ का सदस्य देश नहीं है, लेकिन नाटो का सदस्य होने के कारण तुर्की वही करता है, जो अमेरिका और उसके मित्र चाहते हैं। यह सब देखते हुए, भारत और ईरान ने नया रास्ता यही निकाला है कि कोलकाता के यूको बैंक के माध्यम से ईरान के दो निजी बैंकों ‘बैंक पर्शियन’ और ‘कराफारिन बैंक’ को पैंतालीस प्रतिशत भुगतान रुपए में किए जाएं। बाकी के पचपन प्रतिशत का कैसे भुगतान करना है, भारत सरकार यह ‘कार्ड’ नहीं खोल रही है। अगर ‘बैंक पर्शियन’ और ‘कराफारिन बैंक’ को भी ‘काली सूची’ में डाल दिया गया, तब क्या होगा?
पिछले साल ही चीन और ईरान ने तय कर लिया था कि डॉलर या बैंकों के माध्यम से भुगतान में बाधा आती है, तो चीनी माल के बदले तेल लेने वाली, वस्तु ‘विनिमय प्रणाली’ ( बार्टर सिस्टम ) को लागू कर देंगे। वैसे भी चीन-ईरान के बीच यह प्रणाली लागू है। भारत को चाहिए कि भुगतान करने के चीनी तरीके से वह ईरान और दूसरे तेल निर्यातक देशों से कच्चा तेल मंगाए।
इस महीने की दस तारीख को नई दिल्ली में बारहवां भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन होना है। इस शिखर सम्मेलन में आने वाले यूरोपीय नेताओं को इसका मलाल तो रहेगा कि भारत ने ईरान पर उसकी बात मानने से मना किया है। इसे देखते हुए, संभव है कि भारत-यूरोपीय संघ के बीच मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) ‘ईरान प्रतिबंध प्रकरण’ के कारण आगे बढ़ जाए। हालांकि यूरोपीय संघ कार और शराब व्यापार में जिस तरह की छूट भारत से चाहता था, उस पर बातचीत बहुत हद तक आपसी सहमति के मुकाम पर पहुंचने लगी है। यह बातचीत 2007 से चल रही थी।
सबके बावजूद, एक बात की शाबाशी देनी होगी कि इस बार ईरान पर प्रतिबंध प्रकरण से भारत-चीन ने पश्चिम का यह भ्रम तोड़ा है कि वे दुनिया के आका हैं। पाकिस्तान ने भी अमेरिकी धौंस मानने से इनकार किया है कि वह ईरान से तेल-गैस पाइपलाइन (आईपीआई या पीस पाइपलाइन) परियोजना रद्द कर दे। पाकिस्तान ने यह भी पलट कर कह दिया कि ईरान से तेल-गैस पाइपलाइन परियोजना प्रतिबंध की श्रेणी में नहीं आती।
अट्ठाईस हजार पांच सौ अमेरिकी सैनिकों की निगरानी में रह रहे दक्षिण कोरिया के बारे में यह आम धारणा बनी हुई थी कि यह बिना रीढ़ वाला देश है। ऐसा देश भी ईरान पर प्रतिबंध लगाने के मामले में अमेरिका के सामने बहाने बना रहा है। दक्षिण कोरिया ने बड़े भोलेपन से पूछा है कि अमेरिका ही बताए कि हम कितना तेल मंगाएं? अमेरिका का दूसरा मित्र जापान भी ईरान के चक्कर से खुद को दूर रखना चाहता है। जापान और दक्षिण कोरिया, दोनों देशों के नेताओं ने तो कह दिया है कि अमेरिका, ईरान पर प्रतिबंध वाले मामले में हमें बख्श दे। इससे पहले जापान के प्रधानमंत्री योशिहीको नोदा बोल चुके हैं कि ईरान से तेल मंगाने पर रोक से हमारी अर्थव्यवस्था की चूलें हिल जाएंगी।
अगर ऐसा है, तो अमेरिका और यूरोप की नीतियों के कारण एशिया के देश अपनी फजीहत क्यों करा रहे हैं? क्यों नहीं एशिया के सारे देश यूरोपीय संघ की तरह ‘एशियाई संघ’ बनाने की बात कर रहे हैं? कब तक एशिया के देश अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए अमेरिका-यूरोप के तय मानदंडों पर चलते रहेंगे? जबकि तेल निर्यातक संगठन ‘ओपेक’ के बारह सदस्यों में से सात एशिया से हैं, और बाकी पांच भी यूरोप-अमेरिका से बाहर के देश हैं। खैर, भारत ने राह दिखाई है कि ऐसे विकट समय में कूटनीति को किस दिशा में ले जाना है। क्या एशिया के अन्य देश इससे सबक लेंगे?

नाटककार और रंगमंच

-मोहन राकेश
और लोगों की बात मैं नहीं जानता, केवल अपने लिए कह सकता हूँ कि आज की रंगमंचीय गतिविधि में गहरी दिलचस्पी रखते हुए भी मैं अब तक अपने को उसका एक हिस्सा महसूस नहीं करता। कारण अपने मन की कोई बाधा नहीं, अपने से बाहर की परिस्थितियाँ हैं। एक तो अपने यहाँ, विशेष रूप से हिन्दी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की जा सके, दूसरे उस तरह की कल्पना के लिए मानसिक पृष्ठभूमि भी अब तक बहुत कम तैयार हो पायी है।

रंगमंच का जो स्वरूप हमारे सामने है, उसकी पूरी कल्पना परिचालक और उसकी अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। नाटककार का प्रतिनिधित्व होता है एक मुद्रित या अमुद्रित पांडुलिपि द्वारा, जिसकी अपनी रचना-प्रक्रिया मंचीकरण की प्रक्रिया से अलग नाटककार के अकेले कक्ष और अकेले व्यक्तित्व तक सीमित रहती है। इसीलिए मंचीकरण की प्रक्रिया में परिचालक को कई तरह की असुविधा का सामना करना पड़ता है—नाटककार से उसे कई तरह की शिकायत भी रहती है। ऐसे में यदि नाटककार समझौता करने के लिए तैयार हो, तो उसकी पांडुलिपि की मनमानी शल्य-चिकित्सा की जाने लगती है—संवाद बदल दिये जाते हैं, स्थितियों में कुछ हेर-फेर कर दिया जाता है और चरित्रों तक में हस्तक्षेप किया जाने लगता है। पर यदि नाटककार का अहं इसमें आड़े आता हो, तो उस पर रंगमंच के ‘सीमित ज्ञान’ का अभियोग लगाते हुए जैसे मजबूरी में नाटक को ‘ज्यों का त्यों’ भी प्रस्तुत कर दिया जाता है।

नाटककार की स्थिति एक ऐसे ‘अजनबी’ की रहती है जो केवल इसलिए कि पांडुलिपि उसकी है, एक नाटक के सफल अभिनय के रास्ते में खामखाह अड़ंगा लगा रहा हो। वैसे यह असुविधा भी तभी होती है जब नाटककार दुर्भाग्यवश उसी शहर में रहता हो जहाँ पर कि नाटक खेला जा रहा हो। अन्यथा नाटक को चाहे जिस रूप में खेलकर केवल उसे सूचना-भर दे देने से काम चल जाता है।
कुछ वर्ष पहले मेरा नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ इलाहाबाद में खेला गया था, तो उसमें से अम्बिका की भूमिका हटाकर उसकी जगह बाबा की भूमिका रख दी गयी थी। मुझे इसकी सूचना मिली थी नाटक के अभिनय के दो महीने बाद। कुछ परिचालकों की दृष्टि में एक नाटककार को अपने नाटक के साथ इतना ही सम्बन्ध रखना चाहिए कि वह अभिनय की जो थोड़ी-बहुत रायल्टी दी जाए, उसे लेकर सन्तुष्ट हो रहे। कुछ-एक तो नाटककर के इतने अधिकार को भी स्वीकार नहीं करना चाहते।
इस सिलसिले में मुझे डेढ़-दो साल पहले बम्बई में सत्यदेव दुबे से हुई बातचीत का ध्यान आता है। दुबे की रंग-निष्ठा का मैं प्रशंसक हूँ, परन्तु आद्य रंगचार्य का ‘सुनो जनमेजय’ खेलने के बाद इस प्रश्न को लेकर उन्होंने नाटककार के साथ जो रुख अपनाया, वह नि:सन्देह प्रशंसनीय नहीं था। मेरी बात उनसे ‘सुनो जमनेजय’ के सन्दर्भ में ही हुई थी—उससे पहले जब उन्होंने मेरा नाटक खेला था, तो मैंने यह प्रश्न उनके साथ नहीं उठाया था। तब कारण था दुबे की लगन और उनके कार्य के प्रति मेरा व्यक्तिगत स्नेह। ‘सुनो जनमेजय’ के सन्दर्भ में भी बात रायल्टी को लेकर उतनी नहीं थी, जितनी आज की रंग-सम्भावना में नाटककार के स्थान और उसके अधिकारों को लेकर। वह बातचीत मेरे लिए दुखदायी इसलिए थी कि नाटककार और परिचालक के बीच जिस सम्बन्ध-सूत्र के उत्तरोत्तर दृढ़ होने पर ही हमारी निजी रंगमंच की खोज निर्भर करती है, उसमें उसी को झटक देने की दृष्टि लक्षित होती थी।
रंगमंच की पूरी प्रयोग-प्रक्रिया में नाटककार केवल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चारदीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके। साथ यह भी कि वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके।
यहाँ इतना और स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं इस बात की वकालत नहीं करना चाह रहा कि बिना नाटककार की उपस्थिति के उसके किसी नाटक की परिचालना की ही न जाए—ऐसी स्थिति की कल्पना अपने में असम्भव ही नहीं, हास्यास्पद भी होगी। न ही मैं यहाँ उस स्थिति पर टिप्पणी करना चाहता हूँ जहाँ नाटककार स्वयं परिचालना का भी दायित्व अपने ऊपर ले लेता है। नाटककार-परिचालन या परिचालन-नाटककार की स्थिति अपने में एक स्वतन्त्र विषय है जिसकी पूर्तियों और अपूर्तियों की चर्चा अलग से की जा सकती है। यद्यपि हमारे यहाँ गम्भीर स्तर पर इस तरह के प्रयोगों से अधिक उदाहरण नहीं हैं, फिर भी मराठों में पु.ल. देशपांडे और बँगला में उत्पल दत्त के नाट्य-प्रयोग इन दोनों श्रेणियों के अन्तर्गत विचार करने की पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत कर सकते हैं। यहाँ मेरा अभिप्राय नाटक की रचना-प्रक्रिया के रंगमंच की प्रयोगशीलता के साथ जुड़ सकने की सम्भावनाओं से है। एक नाटक की रचना यदि रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत होती है, तो बाद में उसे कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में खेला जाता है, इसमें नाटककार की भागिता का प्रश्न नहीं रह जाता, रह जाता है केवल उसके अधिकारों का प्रश्न।
रंगमंच के प्रश्न को लेकर पिछले कुछ वर्षों से बहुत गम्भीर स्तर पर विचार किया जाने लगा है—उसकी सम्भावनाओं की दृष्टि से भी और उन ख़तरों की दृष्टि से भी जो उसके अस्तित्व के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं। बड़े-बड़े परिसंवादों में हम बड़े-बड़े प्रश्नों पर विचार करने के लिए जमा होते हैं। रंगमंच को दर्शक तक ले जाने या दर्शक को रंगमंच तक लाने के हमें क्या उपाय करने चाहिए? प्रयोगशील रंगमंच को आर्थिक आधार पर किस तरह जीवित रखा जा सकता है? किन तकनीकी या दूसरे चमत्कारों से रंगमंच को सामान्य दर्शक के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है? सर्वांग (टोटल) रंगमंच की सम्भावनाएँ क्या हैं? विसंगत रंगमंच के बाद की दिशा क्या होगी? घटना-विस्फोट के प्रयोग हमें किस रूप में करने चाहिए? इन सब परिसंवादों में जाकर लगता है कि ये सब बड़ी-बड़ी बातें केवल बात करने के लिए ही की जाती हैं—अपने यहाँ की वास्तविकता के साथ इनका बहुत कम सम्बन्ध रहता है।
यूँ उन देशों में भी जहाँ के लिए ये प्रश्न अधिक संगत हैं, अब तक आकर वास्तविकता का साक्षात्कार कुछ दूसरे ही रूप में होने लगा है। बहुत गम्भीर स्तर पर विचार-विमर्श होने के बावजूद रंगमंच (अर्थात् नाटक से सम्बद्ध रंगमंच का अस्तित्व वहाँ भी उत्तरोत्तर अधिक असुरक्षित होता जान पड़ता है। परन्तु हमें उधर के प्रश्नों पर विचार करने का मोह इतना है कि हम शायद तब तक अपनी वास्तविकता के साक्षात्कार से बचे रहना चाहेंगे जब तक कि विश्व-मंच पर ‘अर्द्ध-विकसित देशों में रंगमंच की स्थिति’ जैसा कोई विषय नहीं उठा दिया जाता और तब भी बात शायद कुछ आँकड़ों के आदान-प्रदान तक ही सीमित रह जाएगी।
हमारे यहाँ या हमारी स्थिति के हर देश में रंगमंच का विकास-क्रम वही होगा जो अन्य विकसित देशों में रहा है, यह भी एक तरह की भ्रान्त धारणा है। शीघ्र से शीघ्र उस विकास-क्रम में से गुज़र सकने के प्रयत्न में हम प्रयोगशीलता के नाम पर अनुकरणात्मक प्रयोग करते हुए किन्हीं वास्तविक उपलब्धियों तक नहीं पहुँच सकते, केवल उपलब्धियों के आभास से अपने को अपनी अग्रगामिता का झूठा विश्वास दिला सकते हैं। यह दृष्टि बाहर से रंगमंच को एक ‘नया’ और ‘आधुनिक’ रूप देने की है, अपने निजी जीवन और परिवेश के अन्दर से रंगमंच की खोज की नहीं। उस खोज के लिए आवश्यक है अपने जीवन और परिवेश की गहरी पहचान—आज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय सम्भावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नए प्रयोगों की दिशा में ले जा सकती है और उस रंगशिल्प को आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं हैं।
अपने रंग-शिल्प पर बाहरी दृष्टि से विचार करने के कारण ही हम अपने को न्यूनतम उपकरणों की अपेक्षा से बँधा हुआ महसूस करते हैं और यह अपेक्षा तकनीकी विकास के साथ-साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। साथ ही हमारी निर्भरता भी बढ़ती जा रही है और हम अपने को एक ऐसी बन्द गली में रुके हुए पा रहे हैं जिसकी सामने की दीवार को इस या उस ओर से बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता पाकर ही तोड़ा जा सकता है। परन्तु मुझे लगता है कि हम इस गली में इसलिए पहुँच गये हैं कि हमने दूसरी किसी गली में मुड़ने की बात सोची ही नहीं—किसी ऐसी गली में जो उतनी हमवार न होते हुए भी कम-से-कम आगे बढ़ते रहने का मार्ग तो दिये रहती।
तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने मन में विकास की एक दिशा है, परन्तु उससे हटकर एक दूसरी दिशा भी है और मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानव-पक्ष को समृद्ध बनाने की है—अर्थात् न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की। यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्त्वपूर्ण हो उठता है—उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण जितना कि हम अब तक समझते आये हैं।
पिछले दिनों दो-एक परिचर्चाओं में मैंने नाटककार के रंगमंच की बात इसी सन्दर्भ में उठायी थी। मैंने पहले ही कहा है कि इसका अर्थ नाटककार को परिचालक की भूमिका देना नहीं है—बल्कि परिचालना-पक्ष पर दिया जानेवाला अतिरिक्त बल हमें अनिवार्यत: जिस गतिरोध की ओर लिये जा रहा है, रंगमंच को उससे मुक्त करना है। शब्दों का रंगमंच केवल शब्दकार का रंगमंच नहीं हो सकता—शब्दकार, परिचालक और अभिनेता, इनके सहयोगी प्रयास से ही उसके स्वरूप का अन्वेषण और परिसंस्कार किया जा सकता है। इसका स्वीकृति-पक्ष है शब्दकार को अपनी रंग-परिकल्पना का आधार-बिन्दु मानकर चलना और अस्वीकृति-पक्ष उन सब आग्रहों से मुक्ति जिनके कारण रंग-परिचालना का मानवेतर पक्ष उत्तरोत्तर अधिक बल पकड़ता दिखाई देता है।
इसके लिए अपेक्षित है शब्दकार का पूरी रंग-प्रक्रिया के बीच उसका एक अनिवार्य अंग बनकर जीना—अपने विचार को उस प्रक्रिया के अन्तर्गत ही शब्द देना—उसी तरह अपने आज के लिखे हर शब्द को कल तक के लिए अनिश्चित और अस्थायी मानकर चलना अर्थात परिचालक और अभिनेता की तरह ही शब्दों के स्तर पर बार-बार रिहर्सल करते हुए आगे बढऩा। परन्तु यह सम्भव हो सके, इसके लिए परिचालक की दृष्टि में भी एक आमूल परिवर्तन अपेक्षित है—उसे इस मानसिक ग्रन्थि से मुक्त होना होगा कि पूरी रंग-प्रक्रिया का नियामक वह अकेला है। उस स्थिति में वह अकेला नियामक होगा जब इस तरह की रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत एक नाटक का निर्माण हो चुकने के बाद वह उसे प्रस्तुत करने जा रहा हो—अर्थात् जब अन्तत: नाटक एक निश्चित पांडुलिपि या मुद्रित पुस्तक का रूप ले चुका हो। परन्तु जिस रंग-प्रक्रिया के अन्तर्गत वह पांडुलिपि निर्मित हो रही हो, उसमें मूल नियामक नाटककार ही हो सकता है और परिचालक वह मुख्य सहयोगी जो उसके हर अमूर्त विचार को एक मूर्त आकार देकर—या न दे सकने की विवशता सामने लाकर स्वयं भी लेखन-प्रक्रिया में उसी तरह हिस्सेदार हो सकता है जैसे प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया में नाटककार।
इसका कुछ अनुभव मुझे उन दिनों का है जिन दिनों कलकत्ते में रहकर मैंने ‘लहरों के राजहंस’ का तीसरा अंक फिर से लिखा था। मुझे यह स्वीकार करने में संकोच नहीं है कि बिना रात-दिन श्यामानन्द के साथ नाटक के वातावरण में जिये, आधी-आधी रात तक उससे बहस-मुबाहिसे किये, और नाटक की पूरी अन्विति में एक-एक शब्द को परखे वह अंश अपने वर्तमान रूप में कदापि नहीं लिखा जा सकता था। परन्तु साथ यह भी कहना चाहूँगा कि श्यामानन्द के प्रस्तुतीकरण में नाटक का उतना अंश जो शेष अंश से बहुत अलग पड़ गया था, उसके पीछे भी यह सहयोगी प्रयास ही मुख्य कारण था। कम-से-कम हिन्दी नाटक के सन्दर्भ में शायद पहली बार लेखन और प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया को उस रूप में साथ जोड़ा जा सका था। इसे सम्भव बनाने के लिए जो अनुकूल वातावरण मुझे वहाँ मिला था, मैं समझता हूँ कि उसी तरह के वातावरण में रंगमंच की वास्तविक खोज की जा सकती है—लेखन के स्तर पर भी और परिचालना के स्तर पर भी

आर्थिक दिशा बदलनी होगी

सीताराम येचुरी

उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर इतना उबाल देखने को मिल रहा है और इसके इतने शाब्दिक घात-प्रतिघात हो रहे हैं, तो यह स्वाभाविक है। आने वाले दिनों में यह शोर और भी बढ़ जाने वाला है। इसके कारण एक नहीं, कई हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों का हमेशा से राष्ट्रीय राजनीति पर भारी असर पड़ता आया है। उत्तर प्रदेश अब भी देश का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है।

अकसर लोकसभा में इस राज्य के सांसदों की संख्या का केंद्र सरकार के गठन तथा उसके नेतृत्व पर सीधा असर पड़ता है। देश को अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इसी राज्य ने दिए हैं। फिर मौजूदा हालात में, अगर उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा आती है, तो चुनाव के नतीजों का, और नतीजे आने के बाद बहुमत का जुगाड़ करने के लिए होने वाले जोड़-तोड़ तथा गठजोड़ों का, केंद्र के गठबंधन के संतुलन पर काफी असर पड़ने जा रहा है।

संसद का बजट सत्र अब इन नतीजों के बाद, और इसके साथ ही पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर तथा गोवा के भी चुनाव नतीजों के बाद शुरू होगा। जाहिर है, पूरे देश को इन चुनावी नतीजों का इंतजार रहेगा। फिर भी यह गौर करने वाली बात है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए-द्वितीय जैसी दूसरी कोई सरकार शायद ही इस देश को इससे पहले देखने को मिली होगी। ऐसा लगता है कि यह सरकार पूरी तरह से अपनी दिशा खो चुकी है। तरह-तरह के घोटालों, धांधलियों तथा विवादों ने भी इस सरकार की नाकेबंदी-सी कर रखी है, वह अलग।

फिर भी सरकार अगर इस तमाम घटनाक्रम के बीच से ही सुरक्षित बच निकलने का भरोसा किए बैठी नजर आती है, तो इसी उम्मीद के सहारे कि विधानसभा चुनाव के मौजूदा चक्र में नतीजे उसके पक्ष में जाने वाले हैं। इसी आधार पर यूपीए सरकार आगामी बजट में उदारीकरण का और आक्रामक हमला छेड़ने की तैयारियां कर रही है। उसे अपेक्षित चुनावी लाभ अगर न मिला, तब भी बढ़ते बजट घाटे पर अंकुश लगाने के नाम पर तो इस एजेंडे को आगे बढ़ाया ही जाना था। बाकी सभी मामलों में भले ही इस सरकार की नैया दिशा खोकर यों ही पानी में हिचकोले खा रही हो, लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के मामले में यह सरकार असाधारण एकाग्रता से जुटी हुई है।

ऐसा लगता है कि यूपीए-द्वितीय की सरकार इस बजट में ऐसे बड़े वित्तीय सुधारों को थोपने का इरादा कर चुकी है, जिन्हें कानून का रूप देने का रास्ता वामपंथी पार्टियों ने रोक रखा था। चूंकि वामपंथी अब सरकार के साथ नहीं हैं, ऐसे में अपनी उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने में सरकार किसी तरह की अड़चन का सामना नहीं कर रही। यह विडंबना ही है कि सरकार खुद अपने ही देश के इस अनुभव से सीखने के लिए तैयार नहीं है कि देश के वित्तीय क्षेत्र के दरवाजे पूरी तरह न खोले जाने का ही यह नतीजा था कि भारत विश्व मंदी के विनाशकारी असर से काफी हद तक सुरक्षित बचा रहा था।

वैसे सरकार अगर यह उम्मीद लगाए बैठी हो कि वित्तीय उदारीकरण के रास्ते पर और भी तेजी से दौड़ने से हमारे देश में विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ जाएगा तथा इस तरह आर्थिक विकास दर ऊपर उठ जाएगी, तो उसकी यह उम्मीद पूरे होने के कोई आसार नहीं हैं। विश्व बैंक ने तो बाकायदा इसका ऐलान ही कर दिया है कि धनी देशों के पास कोई मौद्रिक या राजाकोषीय गोला-बारूद नहीं बचा है, जिसके बल पर वे इस समय भी चालू मंदी के दुश्चक्र को तोड़ने की उम्मीद कर सकते हों। यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए आने वाले दिन और कठिन ही होने वाले हैं।

जाहिर है कि आसानी से तथा अपेक्षाकृत सस्ती दर पर पूंजी मुहैया कराने के जरिये आर्थिक विकास दर को गति नहीं दी जा सकती। हां, यह तो तय है कि इस रास्ते पर चलकर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा भारतीय बड़ी पूंजी के भी मुनाफे बढ़ाए जा रहे होंगे। लेकिन जब तक जनता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ती, तब तक लगातार जारी रहने वाली आर्थिक वृद्धि की उम्मीद कोई कैसे कर सकता है?

विद्रूप तो यह है कि आर्थिक चुनौतियों के इस दौर में भी हमारी सरकार ने संपन्नों को अनाप-शनाप कर रियायतें दी हैं। पिछले तीन साल में ही इस मद में करीब 15 लाख करोड़ रुपये की ये रियायतें दी गई हैं। यह भारी धनराशि सरकार को उनसे इकट्ठा करनी चाहिए और इनका उपयोग देश के लिए अत्यावश्यक सामाजिक व आर्थिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करने तथा इस क्रम में बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करने के लिए किया जाना चाहिए। इसके जरिये हमारे देश में घरेलू मांग में जो बढ़ोतरी होगी, वही एक स्वस्थ और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि दर को जारी रख सकती है। इतना ही नहीं, यह वृद्धि दर कहीं ज्यादा समावेशी भी होगी।

इस समय वैश्विक पूंजीवादी संकट के खिलाफ दुनिया भर में संघर्ष फूट रहे हैं। इन संघर्षों का एक उदाहरण पिछले दिनों ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन के रूप में सामने आया है। इन संघर्षों ने करीब-करीब सभी यूरोपीय देशों में जबर्दस्त हड़तालों तथा विरोध कार्रवाइयों का रूप ले लिया है। इस सबके बावजूद पूंजीवाद दीवार पर सबसे बड़े अक्षरों में लिखी इबारत को भी अनदेखा कर निकल जाने की कोशिश कर सकता है। मार्क्स ने एक मौके पर पूंजीवाद के संबंध में लिखा था कि उसने उत्पादन तथा विनिमय के ऐसे भीमकाय साधन रच दिए हैं कि उसकी स्थिति ऐसे मंत्रसाधक जैसी हो गई है, जो अब पाताल लोक की उन शक्तियों पर काबू नहीं रख सकता, जिन्हें उसने खुद अपने मंत्रों से दूसरी दुनिया से बुलाया था। मौजूदा अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी संकट व्यवस्थागत है। यह किन्हीं व्यक्तियों के लोभ-लालच से पैदा नहीं हुआ है।

बहरहाल, जहां भारत में यह वृहत्तर संघर्ष जारी रहेगा, वहीं फिलहाल यह भी जरूरी है कि सरकार पर इसके लिए जन दबाव डाला जाए, ताकि वह नव उदारवाद की नीतिगत दिशा को बदले और सार्वजनिक खर्चों में बड़े पैमाने पर निवेश करे। तब न सिर्फ अति आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण संभव हो सकेगा, बल्कि और बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा किया जा सकेगा। आने वाले बजट में ऐसी दिशा देने के लिए मौजूदा सरकार को मजबूर करना चाहिए।

थप्पड़ खाकर तो बच्चे बागी ही बनेंगे

सुभाष गाताडे॥
अभी तीन दिन पहले की घटना है , बुलंदशहर के एक स्कूल में टीचर ने प्रार्थना के समय एक बच्चे को कंचा खेलते देख लिया और फिर उसकी इतनी पिटाई की बच्चे की मौत हो गई। बच्चों के साथ आपका व्यवहार कब अपराध के दायरे में आ जाता है , इस पर पूरी दुनिया में बहस जारी है। एक वक्त था जब बच्चे को पीटना जरूरी समझा जाता था। ' स्पेयर द रॉड ऐंड स्पॉइल द चाइल्ड ' - डंडा हटा कि बच्चा बर्बाद। और आज आलम यह है कि 113 मुल्कों ने स्कूलों में किसी भी किस्म की शारीरिक सज़ा पर रोक लगा दी है। 29 देशों में ( जिनमें 21 यूरोप के हैं ) माता - पिता या अन्य नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा संतानों को थप्पड़ मारना गैरकानूनी है। पिछले दिनों यह मसला नए सिरे से सुर्खियों में आया , जब अमेरिका की 21 वर्षीय हिलेरी विलियम्स ने यू - ट्यूब पर एक विडियो अपलोड किया। न्यायाधीश रहे हिलेरी के पिता को इस विडियो में अपनी बेटी को बेल्ट से पीटते हुए दिखाया गया है , हालांकि यह घटना पांच साल पहले की है।

अमेरिका में थप्पड़
कुछ समय पहले अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में बाल मनोविज्ञान के एक प्रफेसर ने ' स्लेट ' पत्रिका में लिखा था कि ' सजा के गैर - शारीरिक तरीकों के विकास के बावजूद अधिकतर अमेरिकी मां - बाप अपने बच्चों को शारीरिक ढंग से अनुशासित करते हैं। 63 प्रतिशत माता पिता 1-2 साल के बच्चे को शारीरिक सजा देते हैं तो किशोरों के मामले में यह अनुपात 85 फीसदी तक पहुंचता है। थप्पड़ का ' प्रसाद ' अमेरिकी स्कूलों में आज भी चलता है। दो साल पहले हयूमन राइटस वॉच और अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने अपनी एक साझा रिपोर्ट में बताया था कि लगभग दो लाख बच्चे अमेरिकी स्कूलों में थप्पड़ खाते हैं। अमेरिका के 21 राज्यों में आज भी शारीरिक सजा को कानूनी दर्जा हासिल है। संयुक्त राष्ट्र ने माता - पिताओं के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को खत्म करने के लिए वर्ष 2009 की हद मुकर्रर की थी। सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि समय सीमा समाप्त होने के बावजूद ज्यादातर देशों ने इस मामले में निर्णायक कदम नहीं उठाए हैं।

उन्हें क्या चाहिए
पश्चिमी देशों में बच्चों को सजा देने के गलत नतीजों को लेकर काफी अध्ययन हुए हैं। बच्चों को मिलने वाली सजा के खात्मे को लेकर प्रतिबद्ध एक संस्था के संचालक डॉ . पीटर नेवेल अपना मकसद इन शब्दों में समझाते हैं - ' सभी लोगों को अपनी शारीरिक संपूर्णता की हिफाजत करने का अधिकार है , और बच्चे भी लोग ही होते हैं। ' बच्चों के साथ शारीरिक या अन्य किस्म की हिंसा का सैद्धांतिक विरोध क्यों जरूरी है ? ' टेन रीजन्स नाट टू हिट युअर किड्स ' में इयान हंट इस सवाल की तह में गए हैं। उनके मुताबिक , बच्चों को मारना एक तरह से खुद उन्हें यह प्रशिक्षण देता है कि वे खुद भी बड़े होकर ऐसा करें। शारीरिक सजा और वयस्क होने पर आक्त्रामक या हिंसक व्यवहार में सीधा संबंध देखा जा सकता है। कई मामलों में बच्चे के ' गलत आचरण ' के पीछे उसकी बुनियादी जरूरतों की उपेक्षा का तत्व शामिल रहता है। खाना - पीना , नींद आदि के अलावा उसकी सबसे बड़ी आवश्यकता होती है - माता - पिता का ध्यान खींचना। बच्चे को सजा देकर हम उसे किसी भी समस्या के प्रभावी और मानवीय हल से दूर ढकेलते हैं।

सजा पाया हुआ बच्चा गुस्से की और बदलाव की फंतासी में उलझा रहता है और इसकी वजह से किसी समस्या के समाधान के अधिक प्रभावी तरीके को ढूंढने से वंचित रह जाता है। सजा माता - पिता और संतान के रिश्ते को प्रभावित करती है , क्योंकि यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि आप उसके प्रति प्रेम महसूस करें , जिसने आप को दर्द दिया हो। सजा से अच्छे व्यवहार का सतही रूप सामने आता है , जो डर पर टिका होता है। बच्चा अगर गुस्से और निराशा को अभिव्यक्ति नहीं दे सका तो वह भावना उसके अंदर संचित हो जाती है। कुछ लोग भले यह दावा करें कि सजा से शुरुआती वर्षों में बच्चे का आचरण ' अच्छा ' होता है , लेकिन उसकी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। शारीरिक सजा से यह खतरनाक और गलत संदेश प्रवाहित होता है कि ' ताकतवर हमेशा सही होता है ' । यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि डर पर टिके बच्चे के सतही ' अच्छे ' आचरण के बरक्स उसके सही व्यवहार के लिए क्या किया जाना चाहिए ? उन तक सौम्य भाषा में प्यार और सम्मान के साथ सूचनाएं पहुंचाना ही उनमें मजबूत आंतरिक मूल्यों के विकास का एकमात्र तरीका हो सकता है।

बाई - बाई बेंत
पिछले साल भारत के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की तरफ से एक बिल का मसविदा पेश किया गया था , जिसमें न सिर्फ शिक्षण संस्थानों में बल्कि माता - पिता , रिश्तेदारों , पड़ोसियों के हाथों मिलने वाली शारीरिक सजा को भी दंडनीय अपराध घोषित करने की बात थी। यह बिल अगर कानून बन गया तो यूरोप की तरह भारत के बच्चे भी अपने माता - पिता या रिश्तेदारों को ' क्रूरता ' दिखाने के लिए अदालत में खींच सकते हैं। मुमकिन है कि जब यह विधेयक कानून बनने की ओर बढ़े तब ' पारंपरिक मूल्यों ' की रक्षा के नाम पर इसका विरोध हो। जब पतियों द्वारा ' अपनी गुमराह पत्नी को प्रेम से पीटने ' पर रोक लगाने की बात हुई तो यह शोर सुनाई दिया कि पारिवारिक जीवन का अब अंत होगा। जब फोरमैन द्वारा अपने मातहत मजदूरों को पीटने पर अंकुश लगा तब इन्हीं आवाजों ने उद्योग के संभावित विनाश की बात की। आज नहीं तो कल हर समाज को इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि बच्चे को पीटना उसके साथ दुर्व्यवहार है। जैसा कि महान शिक्षाविद जान होल्ट कहते हैं - ' जब हम बच्चे को डराते हैं तो उसके सीखने की प्रक्रिया को अधबीच में ही खत्म कर देते हैं। '

आधुनिक भारत में जाति का सवाल

आनंद कुमार

जनसत्ता 16 फरवरी, 2012: भारतीय समाज और राजनीति में जाति को लेकर इधर कुछ दिनों से एक नई चेतना बन रही है। कुछ लोगों का मानना है कि हमारा समाज, खासकर हमारी सरकार और राजनीतिक समुदाय जातिविहीन समाज की रचना के संकल्प को कुचल रहे हैं। वे सब मिल कर तात्कालिक लाभ की दृष्टि से ऐसे उपाय कर रहे हैं, जिनसे जाति वापस आ रही है। दूसरी तरफ, समाज वैज्ञानिकों का बहुत बड़ा समूह स्वीकार कर रहा है कि जाति-व्यवस्था के पारंपरिक ढांचे की, जो छुआछूत, पवित्र-अपवित्र, जजमान-पुरोहित जैसे सांचों से बना था, प्रासंगिकता लगातार घटती जा रही है, क्योंकि अब हम धीरे-धीरे नियमबद्ध संबंधों के जरिए अपने आसपास के संसार को रचने की क्षमता विकसित कर रहे हैं। इसके पीछे जनतंत्र और आधुनिकीकरण का बड़ा योगदान है। लेकिन यह समूह इस बात से इनकार नहीं करता कि जाति का नया अवतार हुआ है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की तुलना में राजनीतिक पक्ष प्रासंगिक है।
हालांकि अब जाति और हिंदू धर्म का संबंध धर्म के दायरे से ऊपर उठ कर, जाति और सभी धर्मों के बीच के संबंध के रूप में देखा जाने लगा है। दलित ईसाई आंदोलन, मुसलमानों में पसमांदा समाज का आंदोलन, सिखों में मजहबी सिखों का आंदोलन और बौद्धों में नवबौद्धों की समस्याएं जाति की धर्मनिरपेक्ष वास्तविकता को पहचानने का सवाल उठा रही हैं।
इधर अस्सी वर्ष बाद सरकार को भी समाज की बनावट समझने के लिए जाति जनगणना की जरूरत महसूस हुई। अगर जाति-व्यवस्था के अलग-अलग रूपों और संदर्भों से जोड़े बिना हम जाति के बारे में चर्चा करेंगे तो कुछ सामान्य और सतही निष्कर्षों तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें दोनों तरह का सच गैरजरूरी बन जाता है- जाति खत्म हो रही है, जाति बढ़ रही है। शुरू से ही जाति-व्यवस्था का ग्रामीण और नगरीय स्वरूप अलग-अलग रहा है। गांव में जाति का पेशे और सामाजिक हैसियत के साथ अभिन्न संबंध रहा है। हर जाति का एक निश्चित पेशा और उस पेशे की एक सामाजिक हैसियत।
ग्रामीण समाज में कुछ जातियां संपत्तिवान होने की क्षमता रखती थीं और कई जातियों को इससे लगातार दूर रखा गया। ग्रामीण समाज में धर्म एक होने पर जाति के आधार पर अंतर्गत और बहिष्कृत की दो कोटियां हुआ करती थीं, जो सांस्कृतिक जीवन के नियम-कानून का आधार बनती थीं और जिनके पीछे पवित्रता और अपवित्रता का ढांचा बनाया जाता था।
इसके समांतर नगरीय समाज में जाति का स्वरूप व्यवसाय से तो जुड़ा था, लेकिन नगर का औद्योगिक और आधुनिक पक्ष जाति के लिए हमेशा एक चुनौती का स्रोत रहता था। इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि भक्ति आंदोलन के सभी बड़े प्रणेता या तो यायावर थे या नगरों में गैर-खेतिहर पेशों से जुड़े लोग।
अंग्रेजी राज आने के बाद जाति में हुए परिवर्तनों को हम जनतांत्रिक भारत में हो रहे परिवर्तनों के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी मानते हैं, क्योंकि अंग्रेजी राज में ही पहली बार जाति का क्षेत्रीय सच जनगणनाओं के जरिए एक स्थिर और अलंघ्य व्यवस्था बन गया। जाति जनगणना के हर दशक में जाति की परिभाषा भी लगातार परिवर्तित-परिवर्द्धित होती रही। कई समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि जाति का सच औपनिवेशिक भारत में जड़ता की हद तक सामाजिक जीवन के संदर्भ में राज्य-व्यवस्था द्वारा संरक्षित किया गया। यह मान्यता कई समाज सुधारकों के इस सोच से अलग जाती है कि अंग्रेजी राज में जाति का ढांचा कमजोर हुआ, क्योंकि इस दौर में आधुनिक शिक्षा, जाति विरोधी आंदोलनों को प्रश्रय और जाति संबंधी कई निषेधों को गैर-कानूनी ठहराने का काम किया गया।
आज जाति की व्याख्या करते समय प्राय: चुनाव के समय हो रही जातिगत गोलबंदी और दलों के बीच विभिन्न जातियों के अंदर अपना वोट बैंक बनाने की होड़ सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बनते हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह जाति-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के कारण संभव हुआ है कि ब्राह्मणों, दलितों और यादवों की गोल एक दूसरे से सीधी कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत आधुनिक राज्यतंत्र पर कब्जा करने के लिए होड़ में आ गई हैं। जाति-व्यवस्था होड़ का निषेध करती है। जाति में लोगों की जगह पारंपरिक, पौराणिक और समकालीन शक्तियों की मदद से स्थिर रखी जाती थी। आज का जाति समूह और उससे जुड़ी हुई राजनीतिक व्यूह-रचना जाति के आधुनिकीकरण का परिणाम है।
इस तरह हमारी जाति-व्यवस्था आधुनिकता के दो दौर से गुजरी है। इन दोनों के अलग-अलग परिणाम हैं। इनको समझे बिना हम जाति के नए अवतार की ठीक से व्याख्या नहीं कर सकते।
जाति के आधुनिकीकरण का पहला दौर एक तरह से प्रतिक्रियावादी था, क्योंकि उसमें शास्त्रीय आधारों पर जातियों की परिभाषा गढ़ने और शास्त्रों में उल्लिखित वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द हजारों जातियों को जोड़ने की कोशिश की गई। उनके अधिकारों और दावों की पहचान बनाई गई। नतीजा यह हुआ कि जाति की पिघलने की क्षमता, जिसे समाजशास्त्रियों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा, और जाति के अंतर्गत एक स्थान से दूसरे स्थान पर निर्वासन या प्रवास के कारण होने वाली संभावनाएं सीमित हो गर्इं। जबकि अंग्रेजी राज से पहले जाति की सीमाएं भाषा और क्षेत्रीय इतिहास से जुड़ी होती थीं।
दूसरे, अंग्रेजी राज ने जाति की औपनिवेशिक आधुनिकता का संक्रमण पैदा किया- जिसमें उनकी गिनती हुई, उनकी परस्पर दूरियों का निर्धारण हुआ और जिसके दौरान कुछ जातियों को वंचित समूह के रूप में पहचान का अधिकार मिला।   अंग्रेजी राज के दौरान लगभग डेढ़ सदी में कई कोनों से जाति-व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन उठे और इन्होंने भक्ति आंदोलन से लेकर गैर-हिंदू धर्मों से वैधता प्राप्त की।
जब हम जाति की आधुनिकता के दूसरे दौर में पहुंचे, यानी स्वाधीनोत्तर भारत में जाति का स्थान तय करने का अवसर आया, तो संविधानसभा ने तीन साल की लंबी बहस के बाद सर्वसम्मति से भविष्य के भारत के लक्ष्य के तौर पर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की रचना का संकल्प लिया।
आजाद भारत के आरंभिक दशकों में जाति-व्यवस्था के आधार पर होने वाले भेदभाव को न केवल अवैध करार देना, बल्कि जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अवसरों से वंचित लोगों के लिए विशेषाधिकारों की व्यवस्था, यानी आरक्षण का प्रावधान किसी क्रांति से कम नहीं था।
लेकिन आज आरक्षण की नीति एक नए मोड़ पर पहुंच गई है। यह जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्णायक परिणाम है। आज आरक्षण की नीति को लेकर वंचित समूहों से ज्यादा आरक्षण के दायरे में समेटे गए समूहों के बीच अंतर्विरोध प्रकट हो रहा है। इसके चार स्तर सभी को दिखाई पड़ रहे हैं- पहला, स्त्री और पुरुष का अंतर। एक ही जाति में, जिसे आरक्षण का लाभ दिया गया है, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के लिए सीमित अवसर हैं। इसके लिए समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिम्मेदार है, जो जाति-व्यवस्था को पुष्ट करती रही है। आरक्षण की नीति से इसे टूटना चाहिए था, लेकिन कई कारणों से आज आरक्षण से लाभान्वित जातियों में भी इस प्रश्न का एक अलग स्थान है।
आज जाति के संदर्भ में दलितों के बीच दलित और महादलित का ध्रुवीकरण पूरे देश में हो चुका है। फिर, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आरक्षण के पिछले बीस बरस के सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों के फलस्वरूप एक तरफ कई समूह राजनीतिक, शैक्षणिक मामले और सरकारी नौकरियों में अपनी उपस्थिति बढ़ाने में सफल हुए हैं। लेकिन अब इस वर्ग के नेतृत्व को लेकर दबंग या प्रभु जातियों में होड़ चल रही है।
दूसरी तरफ धर्मों के दायरे में पल रही जाति-व्यवस्था पर प्रहार के लिए आज आरक्षण नीति के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ा है। इसकी अगुआई दलित-ईसाई आंदोलन से हुई और अब हिंदुओं और मुसलमानों में भी कई समूह या तो खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने का आंदोलन चला या आरक्षण के अंदर उप-आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
यह सब समाज में महामंथन पैदा कर रहा है, क्योंकि हम स्त्री-पुरुष, जाति प्रसंग, धार्मिक समूहों में निहित विषमता, गांव और शहर के बीच का अंतर; द्विजों और गैर-द्विजों के बीच के फासले को गहराई तक देखने के लिए आत्मविश्वास पैदा कर चुके हैं। इसी के समांतर यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में आज ‘जाति तोड़ो’ या जातिविरोधी आंदोलनों की क्या दशा है। शुरू में इन आंदोलनों को हमने दक्षिण भारत में ब्राह्मण विरोधी मोर्चा और पश्चिम भारत में गैर-ब्राह्मण मोर्चे के रूप में उभरते देखा था, जिसमें ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को जाति-व्यवस्था का मूलाधार मानते हुए उसका निषेध और उससे आगे समाज को ले जाने की कोशिश पहला लक्ष्य माना गया था। लेकिन आज जातिविरोधी आंदोलनों के पुराने वाहक थके से लगते हैं। मध्यम जातियों में पूरे भारत में जाति को लेकर कोई विशेष नकारात्मक आग्रह नहीं दिखाई दे रहा है। इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दलितों को अपने हितों की रक्षा और राजनीतिक क्षेत्रफल के विस्तार के लिए ब्राह्मणों के साथ खुला मोर्चा बना कर सर्वजन समाज की राजनीति शुरू करने का दबाव स्वीकार करना पड़ा है।
क्या कारण है कि आज जाति-विरोधी आंदोलन के मूल वाहक, यानी मध्य और दलित जातियां परस्पर सहयोग में असमर्थ हैं? क्या कारण है कि जाति-व्यवस्था से सबसे ज्यादा पीड़ित- स्त्रियां एक दूसरे के साथ मिल कर महिला आरक्षण का आंदोलन तो चला रही हैं, लेकिन उन्हें मंडलवादी ताकतों का सीधा मुकाबला करना पड़ रहा है। क्या कारण है कि आरक्षण नीति के विस्तार के लिए सर्वोच्च न्यायालय के खुले निर्देशों के बावजूद हम परस्पर सहयोग और साझेदारी के भाव के बजाय हिस्से और बंटवारे की बात ज्यादा कर रहे हैं।
आज सभी पुरानी जाति तोड़ो शक्तियों का लक्ष्य आरक्षण में आरक्षण बन गया है। इससे जाति को एक नया आधार मिलता दिखाई दे रहा है। क्योंकि अगर हमारी जातीय पहचान घुली-मिली रहेगी तो आरक्षण के अंदर आरक्षण का दावा पूरा नहीं हो सकता। नतीजतन, जाने-अनजाने जाति की पीड़ित जमातें कई कारणों से जातिगत पहचानों को नया आधार और आकार देने की संवैधानिक व्यवस्था के लाभ के लिए विवशता महसूस कर रही हैं।
क्या भूमंडलीकरण के कारण जाति-व्यवस्था पर कुछ प्रभाव पड़ रहा है? क्या रोजगार की तलाश में लाखों की तादाद में एक इलाके से दूसरे इलाके जा रहे लोगों का सच जाति-व्यवस्था को कमजोर करने, यानी अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ाने में कुछ मदद कर रहा है? इन सबसे ऊपर आधुनिक शिक्षा और सूचना क्रांति से जाति की सीमाओं और समस्याओं को लेकर हम कुछ ज्यादा आत्मालोचक बनने की क्षमता विकसित कर रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक को  इन सभी प्रश्नों का उत्तर देना पड़ेगा, क्योंकि अब न तो पुरानी जाति-व्यवस्था चल सकती है और न ही जातिविहीन समाज बनाने का पुराना आदर्श आकर्षक रह गया है। फिर तीसरा रास्ता क्या होगा, जिसमें स्त्री, दलित, अतिपिछड़ा, अल्पसंख्यकों का पिछड़ा और आदिवासी खुल कर जनतंत्र की व्यवस्था में निहित त्रिमुखी न्याय का लाभ उठा सकें और सारा   समाज परस्पर सहमति के आधार पर जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया की रचना के ऐतिहासिक संकल्प के साथ ईमानदारी से अपना संबंध बनाए रख सके।

सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले में कई बड़े सबक

।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2008 में आवंटित 2जी स्पेक्ट्रम के 122 लाइसेंस को रद किया जाना यूपीए सरकार के मुंह पर तमाचे की तरह है. ये लाइसेंस इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षो में शुरू हुई उस अवैध प्रक्रिया की देन थे, जिन्हें अदालत ने सार्वजनिक हितों और संवैधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध माना है.
यूपीए का दावा कि टू जी मामले में सर्वोच्च अदालत ने तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को निर्दोष करार दिया है, गलत है. अदालत ने अपने फ़ैसले में निजी जिम्मेदारियों की बात ही नहीं की है. उसने तो लाइसेंस की पहले आओ-पहले पाओ नीति और अंतिम समय में नियमों में अचानक किये गये बदलाव के प्रभावों की छानबीन की है.
साथ ही चिदंबरम के मामले में फ़ैसला स्पेशल कोर्ट के जिम्मे छोड़ दिया. ए राजा द्वारा पीएम और तत्कालीन वित्त मंत्री की सलाह की अनदेखी करना कैबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी और नीतियों में खामियों की ओर इशारा करता है. लेकिन यूपीए के इस संकट पर भाजपा को खुश नहीं होना चाहिए. फ़ैसले का सीधा मतलब है कि स्पेक्ट्रम सरीखे दुर्लभ संसाधन का लाइसेंस देने की पहले आओ-पहले पाओ की नीति गलत थी. इससे पहले भाजपा के मंत्रियों ने भी लाइसेंस आवंटन की प्रक्रिया में हेराफ़ेरी की थी.
यह फ़ैसला पांच कारणों से महत्वपूर्ण है. पहला, इसमें कहा गया है कि राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन सरकार के पास अमानत के तौर पर होते हैं और सरकार का दायित्व है कि वह इन्हें निजी कंपनियों को आवंटित करते वक्त न्यायपूर्ण एवं पारदर्शी प्रक्रिया अपनाए. ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में वायु तरंगें ही नहीं, भूमि, कोयला, इस्पात, खनिज, तेल, गैस, जंगल, पानी और हवा आदि भी शामिल हैं.
जनता के विश्वास का सिद्धांत कहता है कि पहले आओ-पहले पाओ नीति या अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर आवंटित किये गये लाइसेंसों की छानबीन की जा सकती है. इस तरह अदालत का फ़ैसला सार्वजनिक संसाधनों का सही मूल्य तय करने के लिए नीलामी की जरूरत को रेखांकित करता है.
हालांकि नीलामी का तरीका सिर्फ़ विकसित बाजारों के मामलों में ही कामयाब हो सकता है, भूमि या पानी में नहीं. सार्वजनिक जमीन को अस्पतालों, स्कूलों या कम कीमत के मकान जैसे कामों के लिए आवंटित करते वक्त नीलामी सही नहीं है.
दूसरा, अदालत ने अपने फ़ैसले में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शिकायत करने के नागरिकों के अधिकार को मान्यता देकर जनहित याचिका को वह ऊंचा दर्जा दे दिया है, जो इसे काफ़ी पहले हासिल था. इससे शिकायतों के समाधान का एक वैकल्पिक मंच मिल सकता है.
यह फ़ैसला सर्वोच्च न्यायालय के उस फ़ैसले के विपरीत है, जो उसने करीब एक दशक पहले एनरॉन मामले में सेंटर ऑफ़ ट्रेड यूनियंस की याचिका को खारिज करते हुए दिया था.
तीसरा, फ़ैसला इस बात पर चर्चा नहीं करता कि इस आवंटन से सरकारी राजस्व को हुए भारी नुकसान से यूपीए सरकार का लगातार इनकार करना कितना सही है. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में इस आवंटन से 56 हजार से 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है.
साथ ही, अदालत का फ़ैसला पहले आओ-पहले पाओ की नीति पर ही 2008 से पहले आवंटित लाइसेंस को रद नहीं करता है.
चौथा, हालांकि फ़ैसला इस तर्क को खारिज करता है कि व्यावसायिक मामलों की न्यायिक समीक्षा केवल सार्वजनिक हित को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, पर फ़ैसले में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि संबंधित न्यायाधीश की धारणा से परे सार्वजनिक हित का निर्धारण कैसे होना चाहिए. हां, यह तथ्य निर्विवाद है कि सर्वोच्च अदालत के संबंधित न्यायाधीशों ने टू जी मामले को लेकर देश में आये राजनीतिक उबाल से खुद को बचाये रखा.
पांचवां और अंतिम, फ़ैसले में टू जी घोटाले के लिए दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राइ) को भी फ़टकार लगायी गयी है, लेकिन विडंबना यह है कि नये सिरे से नीलामी की प्रक्रिया तय करने की जिम्मेदारी उसे ही सौंपी गयी है.
एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह फ़ैसला नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के नुकसान को रेखांकित करता है. इन नीतियों की संरचना प्राकृतिक संसाधनों को आम आदमी की पहुंच से दूर करने और उस पर मनमाने तरीके से कब्जा करने के लिए ही की गयी है. जब तक ऐसी नीतियां जारी रहेंगी, भूमि, खनिज और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर पूंजी का कब्जा बढ़ता जायेगा. बाजार आधारित व्यवस्था में केवल नीतियों को पारदर्शी बनाकर ही इसे रोका नहीं जा सकता है.

इसी नीति पर चलकर यूरोप के देश आज निराशा के भंवर में डूब रहे हैं. यह सही वक्त है जब भारत नव उदारवादी नीतियों पर चलना बंद कर दे. हालांकि यह आसान नहीं है. खासकर तब, जबकि मनमोहन सिंह आंख मूंदकर नवउदारवादी सुधारों का दूसरा दौर शुरू करने पर तुले हैं. क्या उत्तर प्रदेश का जनादेश कांग्रेस को नवउदारवादी नीतियों पर पुनर्विचार का मौका देगा?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

चीनी का चक्रव्यूह

अरविंद कुमार सेन
जनसत्ता 17 फरवरी, 2012: सरकारी नीतियों की पड़ताल करने के लिए प्रबंधन गुरुपीटर ड्रकर ने एक मशहूर बात कही थी कि सरकार से पूछिए, आपका लक्ष्य क्या है? अगर यूपीए सरकार की चीनी नीति पर यह बात लागू करें तो जवाब मिलता है कि इस नीति का मकसद गन्ना किसानों, चीनी मिलों और उपभोक्ताओं को भरमाए रखना है। बीते नौ सालों में कई मर्तबा चीनी उद्योग के विनियंत्रण का राग छेड़ा गया, मगर हर बार वादों के धुएं के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ। देश के सबसे बडेÞ गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनावों के बीच कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने एक बार फिर चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने का पासा फेंक दिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन की अध्यक्षता में चीनी उद्योग के विनियंत्रण से जुडेÞ तमाम पहलुओं पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया है।
विडंबना यह है कि पुरानी सरकारों की बात छोड़िए, खुद यूपीए सरकार चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने के लिए इससे पहले दो समितियों (टुटेजा समिति और थोराट समिति) का गठन कर चुकी है और दोनों ही समितियों ने चीनी के विनियंत्रण की सिफारिश की थी। चीनी उद्योग पर नियंत्रण और गन्ने की अंतिम कीमत तय करने की विधि 1950 में डीआर गाडगिल ने तैयार की थी। तब से लेकर आज तक तक चीनी उद्योग का पूरा हुलिया ही बदल चुका है और चीनी पर गठित की गई अधिकतर समितियों ने इस उद्योग पर से सरकारी नियंत्रण हटाने की सिफारिश की है। 1980 और 1990 के दशक में बही उदारीकरण की बयार में सरकार ने सीमेंट और इस्पात जैसे कई उद्योगों का विनियंत्रण कर दिया, लेकिन राजनीतिक हितों के कारण चीनी उद्योग पर सरकारी शिकंजा कसता ही गया। गन्ने की पैदावार से लेकर चीनी के वितरण तक यह उद्योग सरकारी बाबूशाही के चंगुल में फंसा हुआ है और इसका सबसे ज्यादा खमियाजा किसान गन्ने की कम कीमत के रूप चुकाते हैं, वहीं उपभोक्ताओं को लागत से दोगुनी कीमत पर चीनी खरीदनी पड़ती है।
चीनी पर नियंत्रण की कवायद गन्ने की बिक्री पर लागू ‘गन्ना क्षेत्र आरक्षित नियम’ (केन रीजन एरिया) से शुरू होती है। यह नियम कहता है कि किसान को गन्ना अपने खेत सेपंद्रह किलोमीटर के दायरे में स्थित चीनी मिल को ही बेचना होगा, चाहे दूसरी मिलें गन्ने की ज्यादा कीमत दे रही हों। यहां तक कि रैटून गन्ना (पिछले साल छोडेÞ गए गन्ने के निचले हिस्से पर उगी फसल) भी गन्ना-आयुक्त की ओर से चुनी गई चीनी मिल को मुहैया कराना होता है। चीनी मिलें किसानों से गन्ना लेकर पेराई शुरू कर देती हैं मगर भुगतान के लिए सरकार की घोषणा का इंतजार करती हैं। चीनी मिलें गन्ने की सरकारी कीमत देने से भी कतराती हैं और हरेक साल कीमतों की यह जंग अदालत की चौखट पर पहुंच जाती है।
कहने को तो चुनावी मौसम के चलते मायावती सरकार ने मौजूदा पेराई सत्र के लिए गन्ने की वाजिब कीमत तय की, लेकिन चीनी मिलों ने घोषणा के तुरंत बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। चीनी मिलों और सरकार के बीच चलने वाली इस आंख-मिचौनी के खेल में सबसे ज्यादा नुकसान गन्ना किसानों को उठाना पड़ता है। कर्ज का पैसा लेकर गन्ना बोने वाले किसान लंबे समय तक फसल को रोक पाने की स्थिति में नहीं होते और औने-पौने दामों पर गन्ना बेच देते हैं।
चीनी मिलें किसानों का पैसा लटकाए रखती हैं। गन्ना किसानों की दिक्कतें अदालत का फैसला आने के बाद भी खत्म नहीं होतींं। 2010-11 के पेराई सत्र में चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का तेरह हजार करोड़ रुपए से अधिक बकाया था, जबकि इसमें गुड़ और खांडसारी इकाइयों का बकाया शामिल नहीं है। चीनी मिल मालिकों का कहना है कि सरकार ने लेवी चीनी कानून उन पर थोप रखा है, लिहाजा उन्हें मुनाफा नहीं होता और इसी कारण गन्ना किसानों का भुगतान भी लटक जाता है। लेवी चीनी वह दीवार है जिसकी ओट लेकर चीनी कारोबारी और गन्ने के कारोबार से जुड़े नेता किसानों की मेहनत पर डाका डालते हैं। लेवी चीनी, मिलों के कुल चीनी उत्पादन का एक तयशुदा हिस्सा (इस समय उत्पादन का दस फीसद) होती है और सरकार बाजार भाव से कम पर (फिलवक्त अठारह रुपए प्रतिकिलो) लेवी चीनी खरीदती है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम,1955 के तहत चीनी मिलें सरकार को लेवी चीनी मुहैया कराने के लिए बाध्य हैं और सरकार लेवी चीनी का इस्तेमाल सार्वजनिक वितरण प्रणाली में करती है। चीनी मिलों की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने सरकार को लेवी चीनी बाजार-भाव पर खरीदने का आदेश दिया था।
यूपीए सरकार ने इस फैसले की मार से बचने के लिए उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) के रूप में एक नया फार्मूला ईजाद कर डाला। गन्ने का एफआरपी बेहद कम रखा जाता है क्योंकि इसी दर से लेवी चीनी का भुगतान करना होता है। केंद्र सरकार एफआरपी पूरे देश में गन्ने की लागत के आधार पर तय करती है और इस कवायद में उत्तर भारत के गन्ना किसान ठगे जाते है।
गन्ना उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है और इसकी खेती के लिए दक्षिण भारत और महाराष्ट्र बेहद उम्दा हैं। यही कारण है दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में गन्ने की उत्पादकता सौ से एक सौ दस टन प्रति हेक्टेयर है, वहीं उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु वाले उत्तर भारत में गन्ने की उत्पादकता चालीस से साठ टन प्रति हेक्टेयर। ठंड का मौसम शुरू   होते ही उत्तर भारत में गन्ने की बढ़ोतरी रुक जाती है और दक्षिण भारत के मुकाबले रिकवरी भी कम रहती है। एफआरपी से गन्ना किसानों की लागत भी नहीं निकल पाती है, इसलिए राज्य सरकारें राज्य समर्थित मूल्य (एसएपी) की घोषणा करती हैं। एफआरपी और एसएपी के अंतर का भुगतान राज्य सरकार को करना होता है। कोई भी राज्य सरकार किसानों को वाजिब कीमत देने के लिए तैयार नहीं है और इसी वजह से साल-दर-साल सरकार और चीनी मिलों से अपने हक के लिए लड़ना गन्ना किसानों की नियति बन गई है।
सरकार का कहना है कि लेवी चीनी का वितरण गरीबों में किया जाता है जबकि हकीकत कुछ और है। देश की चीनी खपत में सत्तर फीसद हिस्सेदारी शीतल पेय बनाने वाली कंपनियों, मिठाई और चॉकलेट निर्माता और दवा कंपनियों की है, वहीं बीस फीसद चीनी की खपत खुदरा ग्राहकों के बीच होती है। मात्र दस फीसद चीनी का वितरण गरीबों के नाम पर किया जाता है लेकिन इसका ज्यादातर हिस्सा खुले बाजार में पहुंच जाता है। अगर बीपीएल के कथित हिस्से वाली दस फीसद चीनी को अलग रखा जाए तो नब्बे फीसद उपभोक्ता चीनी का बाजार भाव अदा कर सकते हैं।
खाद्य मुद्रास्फीति का आधार भी कैलोरी से हट कर प्रोटीन खपत की तरफ खिसक गया है। बीपीएल परिवारों में चीनी की मांग कम होने के कारण राज्य भी तय मियाद के भीतर अपने कोटे की चीनी नहीं उठा रहे हैं। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड ने 2011-12 में भी अपने कोटे की लेवी चीनी नहीं उठाई है और कारखानों में दो पेराई सत्रों की लेवी चीनी का ढेर लगा हुआ है। एक ओर चीनी के भंडारण की दिक्कत है, वहीं दूसरी ओर चीनी मिलें नकदी की किल्लत से जूझ रही हैं और मिल मालिक गन्ना किसानों का भुगतान रोक कर बिना ब्याज का पैसा इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर सरकार गरीबों का भला करना चाहती है तो मिल मालिकों और गन्ना किसानों को गोटी बनाने के बजाय लेवी चीनी की खरीद बाजार भाव पर की जानी चाहिए।
चीनी उद्योग इस कदर लाइसेंस राज की जकड़ में फंसा हुआ है कि इसे ‘संरक्षण का शिशु’ कहा जाता है। सरकार को लेवी चीनी देने के बाद भी चीनी मिलें अपने हिसाब से चीनी की बिक्री नहीं कर सकती हैं। कृषि मंत्रालय के अधीन चीनी महानिदेशालय हर माह चीनी बिक्री का कोटा जारी करता है और तय मात्रा से कम या ज्यादा चीनी बेचने पर जुर्माना लगाया जाता है। चीनी कोटे का आबंटन जारी करके सरकार चीनी की कीमतों पर नियंत्रण रखने का भ्रम पाले रखती है, लेकिन अतीत में कई मर्तबा इस सरकारी नियंत्रण की पोल खुल चुकी है।
सन 2006-07 में नौकरशाहों के किताबी गुणा-भाग के आधार पर कम उत्पादन का हवाला देते हुए यूपीए सरकार ने चीनी के निर्यात पर रोक लगा दी। उस समय घरेलू बाजार में चीनी का बंपर उत्पादन (रिकॉर्ड 31 करोड़ टन) हुआ था वहीं वैश्विक बाजार में भारतीय चीनी की मांग बनी हुई थी। निर्यात रुकते ही घरेलू बाजार में चीनी की कीमतें जमीन पर आ जाने से मिलों की हालत खस्ता हो गई, वहीं किसानों ने गन्ने की फसल से तौबा कर ली। नतीजतन बाद के सालों में चीनी की कीमत दोगुनी होकर पैंतीस रुपए प्रतिकिलो का आंकड़ा पार कर गई। कोटा आबंटन प्रणाली के चलते चीनी उद्योग कालाबाजारी का गढ़ बन गया है और मिल मालिक बडेÞ पैमाने पर पिछले दरवाजे से चीनी की बिक्री करते हैं।
चीनी विनियंत्रण में एक पेच मालिकाना हक का भी है। सरकार से लेकर निजी कारोबारी तक चीनी कारोबार में कूदे हुए हैं। देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र चीनी उद्योग में मचे घमासान का ज्वलंत उदाहरण है। किसान और पूंजी की भागीदारी वाले महाराष्ट्र के चीनी उद्योग का सहकारी मॉडल अब विफल हो गया है। भाजपा, राकांपा और कांग्रेस के नेता चीनी उद्योग में कूद पड़े हैं और मिलों का मालिकाना हक सहकारी से निजी क्षेत्र में तब्दील होता जा रहा है।
महाराष्ट्र में चीनी मिलें कर्ज हासिल करने के लिए बैंकों में आवेदन करती हैं और इसकी गारंटी राज्य सरकार देती है। बताने की जरूरत नहीं कि इन कर्जों का भुगतान मिल मालिक नहीं करते और बैंक अपना कर्ज राज्य सरकार से वसूलते हैं। बीते साल के आखिर में महाराष्ट्र सरकार ने बडेÞ नेताओं के कब्जे वाली चीनी मिलों को कर्ज अदा करने के लिए एक सौ छियालिस करोड़ रुपए का राहत पैकेज किसानों के नाम पर जारी किया था। किसान हितों की दुहाई देकर की जाने वाली इस लूट में महाराष्ट्र के सभी दलों के छोटे-बडेÞ नेता शामिल हैं। यह हैरत की बात नहीं कि केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार चीनी उद्योग को नियंत्रण-मुक्त किए जाने के विरोध में जमीन-आसमान एक किए हुए हैं।
चीनी उद्योग देश का तीसरा सबसे बड़ा संगठित उद्योग है और इससे देश के पांच करोड़ गन्ना किसानों को रोजगार मिलता है। हमारे देश में गन्ने की शुरुआती कीमत सरकार तय करती है, वहीं आखिरी उत्पाद यानी चीनी की कीमत मिल मालिक तय करते हैं। ऐसे में किसान और उपभोक्ता, दोनों में किसी को फायदा नहीं होता है। देश का चीनी उद्योग नेताओं और पूंजीपतियों की एक लॉबी की मुनाफे की हवस का शिकार होकर रह गया है। चीनी मिलों का आधुनिकीकरण, उद्योग में नया निवेश, गन्ने की नई किस्मों पर अनुसंधान, फसल के रकबे में बढ़ोतरी, बेहतर रिकवरी और गन्ने की फसल में पानी की खपत कम करने जैसे कई सवाल नेपथ्य में चले गए हैं।
चीनी मिलों और गन्ना किसानों के हित एक-दूसरे से   जुड़े हुए हैं, लिहाजा अगर सरकार उद्योग, किसान और उपभोक्ताओं का भला करना चाहती है तो बंपर उत्पादन के बीच चीनी को नियंत्रण-मुक्त करने का इससे बेहतर समय कोई और नहीं हो सकता।

बच क्यों जाते हैं महिलाओं पर अत्याचार करने वाले

सुभाष गाताडे, सामाजिक कार्यकर्ता
आज शिक्षा, रोजगार या व्यवसाय के लिए काफी तादाद में महिलाएं घर से बाहर निकलती हैं। हर जगह वे अपनी छाप भी छोड़ रही हैं। लेकिन इसी दौरान देश का कुलजमा माहौल उनके लिए लगातार असुरक्षित होता जा रहा है, जबकि होना इसका उल्टा चाहिए था।

नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार, पिछले 40 साल में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, पर इस दौरान अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्टे दर्ज हुईं, जिनमें दोष सिद्ध होने की दर महज 26.6 फीसदी ही थी। छेड़छाड़ की 40,163 मामले दर्ज हुए, जिसमें दोषसिद्धि 29.7 फीसदी थी। यानी कई महीनों और यहां तक कि कई साल चलने वाली कार्रवाई अंत में ज्यादातर औरतों को इंसाफ नहीं देती। कुछ समय पहले दिल्ली की एक मानसिक तौर पर अस्थिर लड़की से बलात्कार का मामला सामने आने पर अदालत ने पाया कि वह गवाही देने या अपराधियों को पहचानने की स्थिति में नहीं है। इस पर अदालत ने आदेश दिया कि बलात्कार के ऐसे सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए। वैसे बलात्कार पीड़ितों से डीएनए सैंपल एकत्रित करने की बात पांच साल पहले जारी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में शामिल की गई थी, मगर हकीकत यही है कि अधिकतर अस्पताल या फॉरेन्सिक लैब इस पर अमल नहीं करते हैं, अब भी लोग खून का ग्रुप जांचने की पुरानी पद्धति पर निर्भर रहते हैं, जबकि यह भरोसेमंद तरीका नहीं माना जाता। वैसे डीएनए रिपोर्ट तैयार करने में हमारे फॉरेन्सिक लैब अक्सर लंबा समय लगाते हैं। इतना ही नहीं, अब भी अत्याचार पीड़ितों के ‘फिंगर टेस्ट’ का पुरातन सिलसिला यथावत जारी है, जबकि समय-समय पर विभिन्न अदालतों ने इसके खिलाफ अपनी राय दी है। योजना आयोग के एक कार्यदल ने भी यौन अत्याचार के पीड़ितों को मानसिक यंत्रणा से बचाने के लिए ‘टू फिंगर टेस्ट’ को समाप्त करने की सिफारिश की थी। यौन अत्याचार के बाल पीड़ितों के लिए बनी कमेटी ने तो यह सुझाव भी दिया है कि पीड़ितों को बार-बार बयान देने के लिए मजबूर न किया जाए, क्योंकि इससे उनकी मानसिक यंत्रणा ही बढ़ती है। कार्यदल ने यह भी कहा था कि इसे संभव बनाने के लिए क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में बदलाव किए जाने चाहिए। ऐसे बदलाव किए भी गए, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि हम महिलाओं पर अत्याचार करने वालों को अदालत तक भले ही खींच ले जाएं, पर उन्हें दोषी साबित नहीं कर पाते। ऐसे अत्याचार को रोकने का एक ही तरीका है कि समाज में सख्त सजा का संदेश जाए। समाज में महिलाओं की भूमिका बढ़ाने के लिए भी यह जरूरी है।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

उल्टे रास्ते पर चलने की जिद

सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
ऐसा लग रहा है कि सरकार फरवरी के पहले सप्ताह में ही यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर दस्तखत करने की तैयारियां कर रही है। अब यह तो किसी से छिपा हुआ नहीं है कि यूरोपीय संघ खुद ही इस समय गंभीर आर्थिक संकट में फंसा है और इस संकट के कारण उसकी मुद्रा यूरो के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है।

ऐसे में यह जाहिर-सी बात है कि यूरोपीय संघ के साथ इस मुक्त व्यापार समझौते का एक ही काम होगा कि मुनाफों की कमी की मारी यूरोपीय पूंजी के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाएं। इसका परिणाम यह होगा कि यूरोप की बहुत भारी सब्सिडी से पैदा होने वाले कृषि व दुग्ध उत्पादों से भारतीय बाजारों को पाट दिया जाएगा। यह हमारे किसानों और हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए सर्वनाश को आमंत्रित करना ही होगा, जबकि भारतीय कृषि पहले से ही गहरे संकट में है। आज जब खुद सरकारी एजेंसियां किसानों को घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने में भी हीला-हवाला कर रही हैं और इसके चलते किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी फसल बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तब हमारी अर्थव्यवस्था के द्वार यूरोप के लिए खोलने से हमारे किसान भाइयों पर और अधिक मुसीबतें टूट पड़ेंगी। यह एक कटु हकीकत है कि देश में हताशा के कारण आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या पहले ही काफी ज्यादा है, ऐसे में उनकी हताशा बढ़ी, तो कई नई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। आसियान देशों के साथ जो मुक्त व्यापार समझौता किया गया था, उसके नतीजे सबके सामने हैं। नकदी फसल उत्पादकों, खासतौर से केरल के कृषि उत्पादकों पर इस मुक्त व्यापार समझौते के विनाशकारी असर की कहानियां उजागर हो चुकी हैं। जाहिर है, यह सब विदेशी पूंजी के प्रवाह को आकर्षित करने के नाम पर हो रहा है। इन कोशिशों के लिए यूपीए सरकार अब एक बहाना यह बना रही है कि इससे बढ़ते राजकोषीय घाटे को संभालने में मदद मिलेगी। लेकिन अगर कॉरपोरेट कंपनियों और संपन्न लोगों को दी गई कर रियायतें वापस ले ली गई होतीं, तो राजकोषीय घाटा खुद-ब-खुद खत्म हो गया होता। याद रहे कि इस तरह की कर रियायतों ने धनिकों की और धनी होने में ही मदद की है और इसके बल पर ही देश में अरबपतियों की संख्या ताबड़तोड़ तेजी से बढ़ी है और अब उनकी कुल परिसंपत्तियां हमारे देश के सकल घरेलू उत्पाद के तिहाई हिस्से से ऊपर निकल चुकी हैं। इस तरह, यह तो साफ ही है कि यूपीए सरकार की नीतिगत दिशा विदेशी पूंजी तथा भारतीय बड़े कारोबारियों के मुनाफे बढ़ाकर अधिकतम करने के हिसाब से ही संचालित है और इसकी कीमत भारतीय जनता के विशाल हिस्सों को अपने जीवन स्तर में गिरावट से चुकानी पड़ रही है। यह अचरज की बात नहीं होगी कि बढ़ते राजकोषीय घाटे को नीचे लाने के नाम पर सरकार आने वाले बजट में सामाजिक क्षेत्र पर पहले ही बहुत मामूली खर्चों में और कटौती कर दे। गौरतलब है कि सरकारी खर्चों में कटौती के इसी तरह के प्रयासों के चलते सरकार के अनेक विभागों में, और सबसे बढ़कर रेलवे महकमे में लाखों की संख्या में पद खाली पड़े हुए हैं। इन दिनों खर्च में कटौती करने के लिए कथित रूप से भीमकाय नौकरशाही को काट-छांटकर दुबला करने की पुकार अक्सर सुनने को मिलती है। हाल के अध्ययनों ने यह साबित किया है कि भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी कर्मचारी अनुपात, शायद दुनिया भर में सबसे कम है। अध्ययन दिखाते हैं कि जहां भारत में केंद्र व राज्य, दोनों स्तर की सरकारों को मिलाकर सरकारी सेवकों की संख्या एक लाख नागरिकों पर 1,600 से जरा-सी ऊपर बैठती है, जबकि अमेरिका में यही संख्या 7,681 यानी भारत के मुकाबले करीब पांच गुना ज्यादा है। अगर रेलवे के कर्मचारियों को अलग कर दें, तो हिन्दुस्तान में केंद्र सरकार के कर्मचारियों की कुल संख्या एक लाख नागरिकों पर महज 125 ही रह जाती है, जबकि अमेरिका में संघीय सरकार के सेवकों की यही संख्या करीब 800 बैठेगी। साफ है, भारत में शासन के पास सामाजिक क्षेत्र की जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए , यहां तक कि आंतरिक सुरक्षा की जरूरतें पूरी करने के लिए भी पर्याप्त श्रम शक्ति नहीं है। मिसाल केतौर पर, भारत में आबादी के अनुपात में पुलिस वालों की संख्या संयुक्त राष्ट्रकी सिफारिश के मुकाबले बमुश्किल एक-तिहाई ही बैठेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा तथा खाद्य सुरक्षा जैसी बुनियादी जिम्मदारियों के सार्वभौमिक निर्वाह की कामयाबी बहुत हद तक इन्हें जमीनी स्तर पर जनता को उपलब्ध कराने वाले तंत्र की स्थिति पर निर्भर करती है। निस्संदेह, यह चिंता अपने आप में पूरी तरह से जायज है कि सभी विकास परियोजनाओं व सामाजिक सेवाओं के फंड की बड़े पैमाने पर जो चोरी होती है, उसे रोका जाना चाहिए (राजीव गांधी की विख्यात टिप्पणी याद आ रही है कि सरकार जो एक रुपया खर्च करती है, उसमें से सिर्फ पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं)। पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जो न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध हैं, उन्हे भी जनता तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त ताना-बाना मौजूद नहीं है। वास्तव में, स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा जैसे बुनियादी महत्व के क्षेत्रों में जनता की सामाजिक-आर्थिक जरूरतें पूरी करने के लिए, सार्वजनिक श्रम शक्ति में बहुत भारी बढ़ोतरी करने की जरूरत है। लेकिन सरकार तो राजकोषीय घाटे में कटौती के नाम पर सरकारी कर्मचारियों की पहले ही कम संख्या में और कटौतियां करने पर तुली हुई है। इस तरह, भारतीय जनता का विशाल बहुमत इस दोहरी कैंची के हमले की जद में है। एक तरफ तो उदारीकरण की आर्थिक नीतियां हैं, जो विदेशी व भारतीय बड़ी पूंजी के अनाप-शनाप मुनाफे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरे सिरे पर हमारी जनता के विशाल बहुमत को और दरिद्र बनाने में लगी हुई हैं। दूसरी ओर, जो मामूली-सी सेवाएं व सार्वजनिक सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें जनता तक पहुंचाने के लिए जरूरी न्यूनतम तंत्र मुहैया कराने की बजाय उसमें भी कटौतियां की जा रही हैं।

भाषाओं का लोक सर्वेक्षण

उमा भट्ट
(जनसत्ता) मार्च 2010 में वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र की ओर से भाषा संगम नाम से एक आयोजन हुआ था। भाषा संगम यानी भारत की तमाम भाषाओं का संगम। छोटी-बड़ी सब भाषाओं का। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री देवीप्रसन्न पटनायक ने इसे भाषाओं का महामिलन कहा। कई तरह की बातें इस भाषा संगम में सामने आर्इं। मसलन, हमारी शिक्षा व्यवस्था ने हमारी भाषाओं के लिए संकट पैदा किया है। अगर हिंदी शिक्षा का माध्यम है तो कुमाऊंनी या गढ़वाली या बघाटी या मुंडारी के लिए संकट पैदा हो जाता है। अगर अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम है तो हिंदी संकटग्रस्त हो जाती है। कुछ भाषाओं का वर्चस्व बहुत-सी भाषाओं को महत्त्वहीन बना देता है।
भाषाएं भी अपना वर्चस्व कायम करती हैं या कहा जाए कि वर्चस्व कायम करने के लिए भाषा को भी औजार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यह प्रवृत्ति खत्म होनी चाहिए। कई बार भाषागत हीनता विषयगत हीनता भी बन जाती है। अगर आदिवासियों की भाषा को हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है तो इसका अभिप्राय यह भी है कि उनके समाज के विविध पक्षों को भी हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है। उनके समाज की बातें पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं पा रही हैं, पर आदिवासी छात्रों को गैर-आदिवासी समाज के जीवन के बारे में बहुत कुछ पढ़ना पढ़ता है।
अपने समाज से घृणा न करनी हो तो मातृभाषा में शिक्षा जरूरी है, बहुत-से लोग अब ऐसा मानने लगे हैं। भले ही तीन या चार वर्ष तक मातृभाषा में शिक्षा देने के बाद फिर दूसरी भाषा सिखाई जाए। फिर दो वर्ष बाद तीसरी भाषा सिखाई जाए। इस प्रकार हमें एक बहुभाषी समाज में रहने की आदत और चातुर्य सीखना होगा। अपनी भाषा को बोलते हुए दूसरी भाषाओं को सम्मान देना जरूरी है। यह बहुत अच्छा नहीं हुआ कि सिंधी भाषी लोगों ने अपनी मातृभाषा को छोड़ कर अंग्रेजी को अपना लिया। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उर्दू अपना ली या कश्मीरियों ने उर्दू को स्वीकार कर लिया।
आज हम भाषा को सरकार और बाजार से जोड़ कर पहले देखते हैं कि भाषा के लिए अगर कुछ करेगी तो सरकार ही करेगी। या अमुक सरकार की अमुक भाषा के संदर्भ में क्या नीति है। या बाजार में अमुक भाषा को अपनाने से क्या फायदा या नुकसान होगा। जबकि सीधी-सी बात यह है कि भाषा का संबंध जीवन और समाज से है। जीवन से जोड़ कर भाषाओं को देखा जाना जरूरी है। भाषा हमारी पहचान है। अपनी पहचान छिपाना चाहें तो हम अपनी भाषा को छिपाने की कोशिश करते हैं। महाराष्ट्र में पारधी समुदाय क्रिमिनल एक्ट 1876 के अंतर्गत दर्ज है। पारधी भाषा बोलने से उन्हें अपराधी समझा जाता है। इसलिए मराठी या गुजराती में बोल कर वे अपनी पहचान छिपाते हैं।
भाषाओं के लुप्त होने के प्रति बार-बार चिंता जताने का प्रचलन आजकल बढ़-सा गया है। यूनेस्को ने जीवित, मृत और संकटग्रस्त भाषाओं की सूची जारी की तो इस बात को और बल मिला। कहा जाता है कि एक भाषा के साथ एक पूरी संस्कृति लुप्त हो जाती है, उस भाषा में बोलने वालों के रीति-रिवाज, खान-पान, विद्याएं, सब लुप्त हो जाती हैं। एक बड़ा सवाल सबके सामने है कि लुप्त होती भाषाओं को कैसे जीवित रखा जाए? यह समस्या पूरे विश्व की है। सांस्कृतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़े बगैर भाषाओं और संस्कृतियों को बचाना संभव नहीं है।
हमारे देश में अपनी-अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की प्रतिस्पर्धा है। जब सब ओर से यह मांग उठती है तो क्यों नहीं देश की सब भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया जाता? इस भाव से कि ये सभी भाषाएं इस देश के निवासियों की भाषाएं हैं। आठवीं अनुसूची में शामिल होने से भाषाओं को सरकारी मान्यता मिलती है। कुछ बजट उनके नाम पर भी आबंटित हो जाता है। प्रचार-प्रसार, किताबों का प्रकाशन, पुरस्कारों का वितरण आदि सुविधाएं भाषा के नाम पर कुछ लोग ले पाते हैं। उस भाषा को बोलने वाली आम जनता को इससे क्या हानि या लाभ है, इसका कोई आकलन नहीं है।
झारखंड में लगभग तीस आदिवासी समुदाय हैं। प्रत्येक की अपनी भाषा है। हो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए हो भाषा-भाषी प्रयासरत हैं, लेकिन बाकी भाषाएं? उनका क्या होगा? वे क्यों न आठवीं अनुसूची में शामिल हों? हो भाषा-भाषी चाहते हैं कि हो शिक्षा का माध्यम बने, लेकिन पाठ्यक्रम में संस्कृत को महत्त्व दिया गया है, हो को नहीं। जबकि आदिवासियों के जीवन में हो का महत्त्व है, संस्कृत का नहीं। झारखंड में संस्कृत अध्यापकों की नियुक्ति हो जाती है।
अपनी भाषा में न पढ़ पाने के कारण बच्चे शिक्षा में रुचि नहीं लेते और गैर-आदिवासी शिक्षक न केवल उनकी भाषा नहीं समझते, वे उनके समाज को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। क्षेत्र के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कक्षा पांच तक की पाठ््यपुस्तकें हो भाषा में लिखी हैं और सरकार ने वे छापी भी हैं। पर हो भाषा के शिक्षा का माध्यम न होने से किताबें गोदामों में बंद पड़ी हैं। जिस क्षेत्र में जो भी कर्मचारी-शिक्षक-अधिकारी नियुक्त हों, उनके लिए उस क्षेत्र की स्थानीय भाषाओं को जानना अनिवार्य होना चाहिए। निश्चय ही एकाधिक भाषाओं को जानने से व्यक्तित्व की समृद्धि बढ़ेगी।
जनगणना में भाषाओं की गणना की जिस प्रकार जाती रही है, उससे मातृभाषाओं का महत्त्व कम होता जा रहा है। सरकार अलग से भाषाओं का   सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता नहीं समझती। दो वर्ष पूर्व वडोदरा में भाषा संगम में भाषा वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों की उपस्थिति में निर्णय लिया गया कि भारत की समस्त भाषाओं का सर्वेक्षण कराया जाए। इस भाषा संगम में महाश्वेता देवी शामिल थीं तो प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक नारायण भाई देसाई भी थे। देश के अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति और केंद्रीय भाषा संस्थान, मैसूर के कई पूर्व और वर्तमान निदेशक भी उपस्थित थे। इस निर्णय में वे लोग भी शामिल थे जो आदिवासी, हिमालयी या घुमंतू समाजों से आए थे। इसका दायित्व भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र, वडोदरा ने लिया।
इस महाप्रयास को भारत की भाषाओं का लोक सर्वेक्षण कहा गया, यानी पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया। यह निश्चित हुआ कि भारत की भाषाओं का यह सर्वेक्षण लोगों द्वारा तैयार किया जाएगा। इसमें एक-एक भाषाई क्षेत्र को लेते हुए उस क्षेत्र की भाषाओं का विवरण दिया जाएगा। एक क्षेत्र की भाषाओं में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है, भले ही भिन्न-भिन्न परिवारों की भाषाएं हों। दूसरे क्षेत्रों की भाषाओं से भी उनका संबंध होता है। एक क्षेत्र की भाषाओं का दूसरे क्षेत्र की भाषाओं से भी घनिष्ठ संबंध हो सकता है।
इस सर्वेक्षण में बोली और भाषा के विवाद को कोई स्थान नहीं दिया गया है। सभी की उपस्थिति भाषा के रूप में दर्ज होगी। भाषा एक जनसमूह की अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसमें छोटे या बड़े का प्रश्न नहीं है। एक समुदाय अगर उसे भाषा के रूप में प्रयुक्त करता है तो भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण में भाषा के रूप में ही उसकी जगह है। भाषाओं को देखने का हमारा दृष्टिकोण क्या हो, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। भाषाएं लोक की थाती हैं, पंडितों की नहीं। जब देश की सब भाषाएं आगे बढ़ेंगी तब उन भाषाओं को बोलने वाले लोग भी आगे बढ़ेंगे।
सात और आठ जनवरी 2012 को फिर वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र ने भाषा वसुधा यानी भाषाओं का विश्व सम्मेलन नाम से एक वृहत आयोजन किया, जिसमें विश्व की लगभग नौ सौ भाषाओं के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हिंदुस्तान के अतिरिक्त अफ्रीका, न्यूजीलैंड, अर्जेंटीना, ब्राजील, कांगो, नाइजीरिया, फ्रांस, पापुआ न्यूगिनी के साथ-साथ भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, भूटान, नेपाल आदि से भी अपनी-अपनी भाषाओं के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। दो वर्ष पूर्व लिए गए संकल्प का परिणाम इस सम्मेलन में देखा गया। भारत की भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के तहत परिकल्पित बीस खंडों में से पंद्रह राज्यों- छत्तीसगढ़, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा, राजस्थान और उत्तराखंड- के सर्वेक्षणों की प्रकाशन-पूर्व प्रस्तुति विभा पुरी दास (मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सचिव) की अध्यक्षता में की गई। इनमें से कुछ हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में प्रकाशित होंगे।
भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र के संस्थापक-सदस्य प्रो. गणेश देवी के अनुसार इस कार्य के लिए देश भर में क्षेत्रवार अलग-अलग कार्यशालाएं आयोजित की गर्इं, जिनमें सर्वे की रूपरेखा निश्चित की गई। हालांकि आम जन की भी भागीदारी इसमें है, मगर प्रबुद्ध भाषाशास्त्रियों की देखरेख में यह कार्य संपन्न हो रहा है। इन संस्करणों का सामूहिक रूप से संपादन किया जा रहा है। ग्रियर्सन के लगभग सौ साल बाद यह अपनी तरह का अकेला अद््भुत प्रयास होगा जो बगैर किसी सरकारी सहायता के इतने कम समय में संपन्न किया जा रहा है।
भाषाओं के इस विश्व सम्मेलन में भाषा नीति, आदिवासियों की भाषाएं, हिंदी क्षेत्र की भाषाएं, मातृभाषा में शिक्षण, भाषा विविधता का मानचित्रीकरण, भाषाओं का विस्थापन, राजभाषाएं और घुमंतू भाषाएं, भाषाओं का वर्चस्ववाद, लुप्त होती भाषाएं, संस्थाएं और भाषाओं का संरक्षण आदि विविध विषयों पर अलग-अलग समूहों में चर्चा हुई।
इस तरह इतने सारे लोगों द्वारा देश भर की और कुछ दूसरे देशों की भाषाओं पर चर्चा करने का यह दुर्लभ अवसर था, जो एक प्रकार से अपनी भाषाओं को बचाने का आंदोलन ही कहा जाएगा। भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र द्वारा जारी फोल्डर में लगभग आठ सौ भाषाओं के नाम दिए गए हैं। हमारे देश में वर्तमान में सोलह सौ के लगभग भाषाएं बोली जा रही हैं। यह भाषा-वैविध्य न केवल हमारे सांस्कृतिक वैविध्य का सूचक है, वरन हमारे समाज के पास मौजूद ज्ञान के वैविध्य का भी प्रतीक है। इसके संरक्षण का महत्त्वपूर्ण काम भी लोक ही कर सकता है, इसमें संदेह नहीं।

नैतिकता से दूर होती राजनीति

अभय कुमार दुबे
पटियाला हाउस अदालत का फैसला अपने पक्ष में आने के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम ने बताया कि उन्होंने अपना इस्तीफा तैयार कर रखा था। इस साधारण से लगने वाले वक्तव्य का क्या मतलब है? अगर अदालत खिलाफ फैसला देती, तो क्या वह मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे देते? तब क्या वह वास्तव में खुद को दोषी मानते या सिर्फ मजबूरी में पद छोड़ते? इन दोनों प्रश्नवाचक चिह्नों का एक ही उत्तर है-चिदंबरम अपने दोषी या निर्दोष होने का विवेकसम्मत फैसला करने से जान-बूझकर दूर रहना चाहते हैं।

वह नहीं चाहते कि उन्हें सार्वजनिक पद पर रहते हुए किए गए अपने आचरण को किसी किस्म की नैतिक कसौटी पर कसने की जहमत उठानी पड़े। यानी उन्होंने अपनी राजनीति से नैतिकता को काटकर अलग कर दिया है। इस बात को अपराध-जगत की भाषा में दो तरह से कहा जाता है। पहली कहावत यह है कि जब तक पकड़ा नहीं जाता, चोर को अधिकार है कि वह खुद को साहूकार कहता रहे। दूसरी कहावत यह है कि जो पकड़े जाते हैं, वे चोर कहलाते हैं और बचकर निकल जाने वाले को स्मार्ट कहा जाता है।

चिदंबरम तो उस हांडी के एक चावल भर हैं, जिसे हम भारतीय राजनीति के नाम से जानते हैं। यूपीए सरकार ने अपनी हांडी में जिस तरह के चावल पकाए हैं, उसने राजनीति को चोरी और स्मार्टनेस के बीच कहीं फंसा दिया है। इन गठबंधन सरकारों की राजनीति किसी किस्म की प्रेरणा नहीं देती। वह सिर्फ एक ही संदेश देती है कि पहले उलटे-सीधे वायदे कर सत्ता हासिल कर लो, फिर तब तक सत्ता से चिपके रहो, जब तक धक्का मारकर कुरसी से उतार न दिए जाओ।

कांग्रेस के किसी भी नेता से निजी बातचीत कीजिए, तो थोड़ी-सी पूछताछ करने पर वह मान लेता है कि उसकी सरकार सांसत में फंसी हुई है। उसे यह मानने में भी हिचक नहीं होती कि 2 जी से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों तक घोटालों के पीछे उसकी सरकार के ही फैसले रहे हैं। मीडिया और विपक्ष ने ही नहीं, कैग से लेकर निचली और ऊंची अदालतों तक ने इस निर्णय-प्रक्रिया को जिस निरंतरता के साथ प्रश्नांकित किया है, वह आजाद भारत के इतिहास में बेमिसाल है।

पर सरकार बार-बार तकनीकी तर्कों के पीछे मुंह छिपाती है। कभी प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री दफ्तर के दोषी होने की दलील दी जाती है, तो कभी निर्णय प्रक्रिया में शामिल मंत्रियों में से किसी एक के सिर पर ठीकरा फोड़ा जाता है, ताकि बाकियों को बचाया जा सके।

इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक नैतिकता सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के नैतिक मूल्यों और आचार संहिता से अलग तरह की चीज होती है। मसलन, निजी जीवन में दोस्तियां और दुश्मनियां काफी-कुछ स्थायी किस्म की होती हैं। लेकिन राजनीति में माना जाता है कि न कोई दोस्ती स्थायी है और न दुश्मनी।

निजी जीवन में माना जाता है कि कथनी-करनी में भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन राजनीति में कथनी अर्थात विचारधारा अपनी जगह कायम रहती है और उसे ठंडे बस्ते में डालकर न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर विरोधी विचार वाली ताकतों के साथ मिलकर सराकारें बना ली जाती हैं। लेकिन क्या इसका मतलब यह हुआ कि निजी और राजनीतिक नैतिकता के बीच के इस अंतर का फायदा उठाते हुए सरकार के कारकुनों को कुछ भी करने की छूट लेते रहना चाहिए? राजनीतिक नैतिकता की भी एक संहिता होती है, जिसकी चमकदार मिसालें गुजरे जमाने की सरकारें और मंत्री पेश कर चुके हैं।

आंध्र प्रदेश के संस्थापक मुख्यमंत्री तंदवेलु प्रकाशम ने कांग्रेस नेता के रूप में जनता द्वारा भेंट की जाने वाली थैलियों को पार्टी के कोष में जमा कराने से इनकार कर दिया था। उनका तर्क था कि ये थैलियां आम लोगों ने सार्वजनिक जीवन में उनके योगदान के बदले दी हैं। पर गांधी जी ने उनकी यह दलील मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने पटेल के जरिये प्रकाशम को संदेश भिजवाया कि अगर उन्होंने वह रकम कांग्रेस के कोष में फौरन जमा नहीं की, तो वह उनके खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। गांधी जी की चेतावनी से प्रकाशम के हाथ-पांव फूल गए और उन्होंने बिना देर किए थैलियों की राशि कांग्रेस के खजाने में जमा कर दी।

इसी तरह पंडित नेहरू की सरकार ने पंजाब के ताकतवर मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों, कश्मीर के मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद, उड़ीसा के लोकप्रिय मुख्यमंत्री बीजू पटनायक और बिहार के मुख्यमंत्री से केवल इसलिए इस्तीफे रखवा लिए थे कि उनके खिलाफ आयोगों ने पद के दुरुपयोग की रपटें दे दी थीं।

उल्लेखनीय है कि ये सभी नेता नेहरू के खास आदमी थे। वर्ष 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध में भारत की हार पर कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था। भोला पासवान शास्त्री और लालबहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़ दिया था। ये उदाहरण बताते हैं कि अगर मंत्री नैतिकता के आधार पर पद छोड़ने का फैसला नहीं लेता है, तो प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह उसे नैतिकता का आईना दिखाए।

भारतीय राजनीति में नैतिकता की इस समृद्ध परंपरा के विपरीत आज का नजारा बेहद निराश करने वाला है। एनडीए सरकार में भी इस तरह के कई उदाहरण देखने में आए थे। इसलिए आज जब भाजपा कांग्रेस पर अनैतिक होने का आरोप लगाती है, तो उसकी आवाज प्रभावी नहीं हो पाती। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने को कुछ नेता रणछोड़-प्रवृत्ति का परिचायक मानते हैं। लेकिन उनका यह दृष्टिकोण सही नहीं है। जिस समय सार्वजनिक छवि पर दाग लग रहा हो, आरोपों की बौछार हो रही हो, पद पर रहना या न रहना अदालती फैसलों पर निर्भर हो गया हो, उस समय पार्टी और संबंधित नेताओं को अपने गिरेबान में झांककर यह अवश्य देखना चाहिए कि उनकी यह दुर्गति कैसे हुई।

तकनीकी तर्कों, कानूनी पेचीदगियों और वकीली दलीलों के पीछे छिपने के बजाय अगर वे स्वेच्छा से पद छोड़ने का फैसला करते हैं, तो उससे बेहतर नजीर बनती है। लेकिन यूपीए के दागी कारकुन इस हालत में पहुंच चुके हैं कि अगर वे इस्तीफा देने का फैसला करते हैं, तो भी उन्हें उनकी नैतिकता का श्रेय नहीं मिलेगा।

आबादी का बोझ ढोते शहर

कुमार विजय
हमारा विश्व तेजी से शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है और एशिया इसमें आगे है। अभी दुनिया में 27 महानगर ऐसे हैं, जहां की आबादी एक करोड़ से अधिक है। इनमें से 13 महानगर केवल एशिया में हैं। अगर द्वितीय श्रेणी के नगरों की बात करें, तो उनकी संख्या दुनिया भर में 387 है, जिनमें से 194 नगर अकेले एशिया में हैं। ऐसे नगरों की आबादी 10 लाख या उससे अधिक है। स्पष्ट है कि एशिया तेज गति से शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है। अभी यहां के शहरों में एक अरब 70 करोड़ की आबादी रहती है, लेकिन 2050 तक यह आबादी तीन अरब 40 करोड़ हो जाएगी।

एशिया के नगरों में बढ़ती आबादी के पीछे मुख्य वजह यह है कि लोग बेहतर भविष्य की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, क्योंकि रोजगार की उपलब्ध्ता ज्यादातर शहरों में ही है। पूरे एशिया का करीब 80 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) शहरों से ही आता है। फिर भी सचाई यही है कि एशिया के विकासशील देशों में शहरों की स्थिति अच्छी नहीं है। मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी है, तो कराची में दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी मच्छर कॉलोनी।

अगर आज के संदर्भ में विश्व जनसंख्या की बात करें, तो 2010 में दुनिया के 50.46 फीसदी लोग शहरों में अपना जीवन गुजर-बसर कर रहे थे, 2030 में यह आंकड़ा 58.97 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है। अधिक विकसित जगहों में रहने वाले लोगों की संख्या अभी 75.16 फीसदी है, जो 2030 में बढ़कर 80.88 फीसदी हो जाएगी। कम विकसित जगहों में रहने वालों की संख्या अभी 45.08 फीसदी है, जो 2030 में बढ़कर 54.98 फीसदी हो जाएगी। साफ है कि भविष्य में अधिक विकसित जगहों की तुलना में कम विकसित जगहों पर जनसंख्या का भार अधिक बढ़ेगा।

अपने देश की बात करें, तो 2010 में 30.01 फीसदी जनसंख्या शहरों में रहती थी, जो 2030 में 39.75 फीसदी हो जाएगी। 2001 की जनगणना के अनुसार, शहरों और नगरों की संख्या 5,161 थी, जो 2011 की जनगणना के संकेतों के अनुसार 7,937 पर पहुंच गई है। जाहिर है कि देश की शहरी जनसंख्या में तेज वृद्धि हो रही है। पर विकसित होते इन शहरों और नगरों में मूलभूत संरचना के हालात कैसे हैं, यह भी एक अहम सवाल है। हमारे शहरों की मूलभूत संरचना का सहज अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब देश में शहरों और नगरों की संख्या 5,161 थी, तब उसमें से 4,861 शहरों और नगरों में आंशिक रूप से भी सीवेज की व्यवस्था नहीं थी। आज भी इसमें ज्यादा फर्क नहीं आया है। साथ ही हमारे देश की 24 फीसदी शहरी आबादी झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को अभिशप्त है।

खुली जगहों और पार्क के मामलों में भी शहरों की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती, क्योंकि हमारे देश में प्रति व्यक्ति केवल 2.7 वर्ग मीटर स्थान ही उपलब्ध है, जबकि बुनियादी सेवा मापदंड के आधार पर प्रति व्यक्ति कम से कम नौ वर्ग मीटर स्थान होना चाहिए। पश्चिमी देशों में यह आंकड़ा 16 वर्ग मीटर का है।
अपने शहरों की दशा सुधारने को लेकर हम कितना चिंतित है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि हम सालाना केवल 300 शहरी योजनाकार ही तैयार कर पाते हैं। इनमें से भी ज्यादातर निजी क्षेत्रों में चले जाते हैं। दूसरी ओर हमारे शहरों के नगर निकायों की आमदनी भी अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। हमारे देश में म्यूनिसिपल राजस्व की जीडीपी में केवल 0.75 की भागीदारी है, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा नौ फीसदी, जर्मनी में आठ फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में छह फीसदी और ब्राजील में पांच फीसदी का है।

इसलिए अंधाधुंध शहरीकरण के इस दौर में न केवल इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि हम अपने शहरों को कैसे सजाएं-सवारें, बल्कि हमें इसके लिए नगरपालिकाओं की आमदनी बढ़ाने पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि इसके बिना न तो शहर में आधारभूत संरचना विकसित की जा सकेगी और न ही बुनियादी सुविधाओं का विकास हो पाएगा।