शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

आर्थिक दिशा बदलनी होगी

सीताराम येचुरी

उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर इतना उबाल देखने को मिल रहा है और इसके इतने शाब्दिक घात-प्रतिघात हो रहे हैं, तो यह स्वाभाविक है। आने वाले दिनों में यह शोर और भी बढ़ जाने वाला है। इसके कारण एक नहीं, कई हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों का हमेशा से राष्ट्रीय राजनीति पर भारी असर पड़ता आया है। उत्तर प्रदेश अब भी देश का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है।

अकसर लोकसभा में इस राज्य के सांसदों की संख्या का केंद्र सरकार के गठन तथा उसके नेतृत्व पर सीधा असर पड़ता है। देश को अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इसी राज्य ने दिए हैं। फिर मौजूदा हालात में, अगर उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा आती है, तो चुनाव के नतीजों का, और नतीजे आने के बाद बहुमत का जुगाड़ करने के लिए होने वाले जोड़-तोड़ तथा गठजोड़ों का, केंद्र के गठबंधन के संतुलन पर काफी असर पड़ने जा रहा है।

संसद का बजट सत्र अब इन नतीजों के बाद, और इसके साथ ही पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर तथा गोवा के भी चुनाव नतीजों के बाद शुरू होगा। जाहिर है, पूरे देश को इन चुनावी नतीजों का इंतजार रहेगा। फिर भी यह गौर करने वाली बात है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए-द्वितीय जैसी दूसरी कोई सरकार शायद ही इस देश को इससे पहले देखने को मिली होगी। ऐसा लगता है कि यह सरकार पूरी तरह से अपनी दिशा खो चुकी है। तरह-तरह के घोटालों, धांधलियों तथा विवादों ने भी इस सरकार की नाकेबंदी-सी कर रखी है, वह अलग।

फिर भी सरकार अगर इस तमाम घटनाक्रम के बीच से ही सुरक्षित बच निकलने का भरोसा किए बैठी नजर आती है, तो इसी उम्मीद के सहारे कि विधानसभा चुनाव के मौजूदा चक्र में नतीजे उसके पक्ष में जाने वाले हैं। इसी आधार पर यूपीए सरकार आगामी बजट में उदारीकरण का और आक्रामक हमला छेड़ने की तैयारियां कर रही है। उसे अपेक्षित चुनावी लाभ अगर न मिला, तब भी बढ़ते बजट घाटे पर अंकुश लगाने के नाम पर तो इस एजेंडे को आगे बढ़ाया ही जाना था। बाकी सभी मामलों में भले ही इस सरकार की नैया दिशा खोकर यों ही पानी में हिचकोले खा रही हो, लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के मामले में यह सरकार असाधारण एकाग्रता से जुटी हुई है।

ऐसा लगता है कि यूपीए-द्वितीय की सरकार इस बजट में ऐसे बड़े वित्तीय सुधारों को थोपने का इरादा कर चुकी है, जिन्हें कानून का रूप देने का रास्ता वामपंथी पार्टियों ने रोक रखा था। चूंकि वामपंथी अब सरकार के साथ नहीं हैं, ऐसे में अपनी उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने में सरकार किसी तरह की अड़चन का सामना नहीं कर रही। यह विडंबना ही है कि सरकार खुद अपने ही देश के इस अनुभव से सीखने के लिए तैयार नहीं है कि देश के वित्तीय क्षेत्र के दरवाजे पूरी तरह न खोले जाने का ही यह नतीजा था कि भारत विश्व मंदी के विनाशकारी असर से काफी हद तक सुरक्षित बचा रहा था।

वैसे सरकार अगर यह उम्मीद लगाए बैठी हो कि वित्तीय उदारीकरण के रास्ते पर और भी तेजी से दौड़ने से हमारे देश में विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ जाएगा तथा इस तरह आर्थिक विकास दर ऊपर उठ जाएगी, तो उसकी यह उम्मीद पूरे होने के कोई आसार नहीं हैं। विश्व बैंक ने तो बाकायदा इसका ऐलान ही कर दिया है कि धनी देशों के पास कोई मौद्रिक या राजाकोषीय गोला-बारूद नहीं बचा है, जिसके बल पर वे इस समय भी चालू मंदी के दुश्चक्र को तोड़ने की उम्मीद कर सकते हों। यानी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए आने वाले दिन और कठिन ही होने वाले हैं।

जाहिर है कि आसानी से तथा अपेक्षाकृत सस्ती दर पर पूंजी मुहैया कराने के जरिये आर्थिक विकास दर को गति नहीं दी जा सकती। हां, यह तो तय है कि इस रास्ते पर चलकर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी तथा भारतीय बड़ी पूंजी के भी मुनाफे बढ़ाए जा रहे होंगे। लेकिन जब तक जनता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ती, तब तक लगातार जारी रहने वाली आर्थिक वृद्धि की उम्मीद कोई कैसे कर सकता है?

विद्रूप तो यह है कि आर्थिक चुनौतियों के इस दौर में भी हमारी सरकार ने संपन्नों को अनाप-शनाप कर रियायतें दी हैं। पिछले तीन साल में ही इस मद में करीब 15 लाख करोड़ रुपये की ये रियायतें दी गई हैं। यह भारी धनराशि सरकार को उनसे इकट्ठा करनी चाहिए और इनका उपयोग देश के लिए अत्यावश्यक सामाजिक व आर्थिक बुनियादी ढांचे का निर्माण करने तथा इस क्रम में बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करने के लिए किया जाना चाहिए। इसके जरिये हमारे देश में घरेलू मांग में जो बढ़ोतरी होगी, वही एक स्वस्थ और टिकाऊ आर्थिक वृद्धि दर को जारी रख सकती है। इतना ही नहीं, यह वृद्धि दर कहीं ज्यादा समावेशी भी होगी।

इस समय वैश्विक पूंजीवादी संकट के खिलाफ दुनिया भर में संघर्ष फूट रहे हैं। इन संघर्षों का एक उदाहरण पिछले दिनों ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन के रूप में सामने आया है। इन संघर्षों ने करीब-करीब सभी यूरोपीय देशों में जबर्दस्त हड़तालों तथा विरोध कार्रवाइयों का रूप ले लिया है। इस सबके बावजूद पूंजीवाद दीवार पर सबसे बड़े अक्षरों में लिखी इबारत को भी अनदेखा कर निकल जाने की कोशिश कर सकता है। मार्क्स ने एक मौके पर पूंजीवाद के संबंध में लिखा था कि उसने उत्पादन तथा विनिमय के ऐसे भीमकाय साधन रच दिए हैं कि उसकी स्थिति ऐसे मंत्रसाधक जैसी हो गई है, जो अब पाताल लोक की उन शक्तियों पर काबू नहीं रख सकता, जिन्हें उसने खुद अपने मंत्रों से दूसरी दुनिया से बुलाया था। मौजूदा अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी संकट व्यवस्थागत है। यह किन्हीं व्यक्तियों के लोभ-लालच से पैदा नहीं हुआ है।

बहरहाल, जहां भारत में यह वृहत्तर संघर्ष जारी रहेगा, वहीं फिलहाल यह भी जरूरी है कि सरकार पर इसके लिए जन दबाव डाला जाए, ताकि वह नव उदारवाद की नीतिगत दिशा को बदले और सार्वजनिक खर्चों में बड़े पैमाने पर निवेश करे। तब न सिर्फ अति आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण संभव हो सकेगा, बल्कि और बड़े पैमाने पर रोजगार भी पैदा किया जा सकेगा। आने वाले बजट में ऐसी दिशा देने के लिए मौजूदा सरकार को मजबूर करना चाहिए।

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