शनिवार, 31 मार्च 2012

गरीबी के आंकड़ों की दरिद्रता

सीताराम येचुरी, सांसद और सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो

भारत में गरीबी के आकार को लेकर होने वाली बहस अक्सर अति-यथार्थवादी रूप ले लेती है। यह बहस दिखाती है कि वाकई ‘दर्शन की दरिद्रता’ ही मौजूदा आर्थिक सुधारों को संचालित कर रही है। यह भ्रम खड़ा किया जा रहा है कि मौजूदा विकास पर चलने से हमारे देश में गरीबी के परिमाण में उल्लेखनीय कमी आई है। ऐसा भ्रम आंकड़ों की भारी हेराफेरी के सहारे ही खड़ा किया जा सकता है।


योजना आयोग ने 2009-10 के लिए गरीबी के ताजा आंकड़े जारी किए हैं, वह ऐसी ही एक कसरत है। इन आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच भारत में गरीबी के अनुपात में 7.3 फीसदी की गिरावट हुई थी। यह गणना 2009-10 में शहरों में करीब 28 रुपये प्रति व्यक्ति और गांवों में 22 रुपये प्रति व्यक्ति की खर्च क्षमता को गरीबी की रेखा मानते हुए की गई थी। दरअसल, इस तरह के भारी फर्जीवाड़े के लिए पिछले कुछ अर्से से जमीन तैयार की जा रही थी। पिछले साल मई में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में पक्षकार बनते हुए यह दावा किया था कि भारत के शहरी इलाके में 20 रुपये और ग्रामीण इलाके में15 रुपये प्रतिदिन की आय लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर रखने के लिए काफी है। योजना आयोग के गणित के हिसाब से शहर में 578 रुपये मासिक आय हो, तो उस व्यक्ति को गरीबी की रेखा के ऊपर माना जाएगा। याद रहे कि इसमें घर किराये और आवाजाही के लिए 31 रुपये, शिक्षा के लिए 18 रुपये, दवाओं के लिए 25 रुपये और सब्जी-तरकारी के लिए 36.5 रुपये महीने का खर्चा भी शामिल है। वैसे योजना आयोग खुद यह मानता है कि एक साधारण व्यक्ति के स्वस्थ बने रहने के लिए 2,400 कैलोरी प्रतिदिन का आहार जरूरी है। इतने आहार के लिए 2010 में ही कम से कम 44 रुपये खर्च करने की जरूरत थी। जाहिर है कि अब तक यह जरूरी न्यूनतम खर्च और बढ़ गया होगा तथा सरकार की ओर से योजना आयोग द्वारा पेश किए गए ताजातरीन आंकड़े से कम से कम दोगुना तो जरूर ही बैठेगा। बहरहाल, योजना आयोग ने अपने गणित के आधार पर यह एलान कर दिया है कि गरीबी का अनुपात साल 2004-05 के 37.2 फीसदी से गिरकर वर्ष 2009-10 में 29.8 फीसदी ही रह गया था। वर्तमान सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने गरीबी अनुपात का आंकड़ा 46 फीसदी रखे जाने की सिफारिश की है। जाहिर है कि ये दोनों ही अनुमान अजरुन सेनगुप्ता आयोग के अनुमानों से काफी घटकर हैं, जिसमें यह हिसाब लगाया गया था कि देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोजाना या उससे भी कम में गुजारा करने पर मजबूर है। गौरतलब है कि सेनगुप्ता आयोग का वह आकलन भी पांच साल पहले की ठोस सच्चाइयों पर आधारित था। तब से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार जैसी बढ़ोतरी होती रही है, उसने निश्चित रूप से हालात को बद से बदतर बना दिया है। मामला सिर्फ यही नहीं है कि देश में असमानता तेजी से बढ़ रही है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि आम आदमी की रोजी-रोटी के हिसाब से स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। पी साईनाथ ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह बताया है कि 1972 से 1991 के बीच अनाज तथा दालों की औसत प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 434 ग्राम से बढ़कर 480 ग्राम पर पहुंच गई थी। लेकिन 1992 से 2010 के बीच यही आंकड़ा एक बार फिर गिरकर 440 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है। कहा जा सकता है कि  ऐसा आबादी के बहुत तेजी से बढ़ने के चलते हुआ होगा। बहरहाल, इस धारणा का पूरी तरह से गलत होना इस तथ्य से साबित हो जाता है कि साल 1981 से 1991 के बीच के दस वर्षो में जहां आबादी 2.16 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 3.13 प्रतिशत की औसत दर से बढ़ रहा था। लेकिन कथित आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के शुरू होने के बाद से खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर आबादी में बढ़ोतरी की दर से पिछड़ती चली गई है। वर्ष 1991-2001 के बीच जहां आबादी की वृद्धि दर 1.95 फीसदी चल रही थी, वहीं खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की औसत दर 1.1 फीसदी पर आ गई थी। 2001-11 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि दर और घटकर 1.03 फीसदी ही रह गई, जबकि इस अर्से में आबादी में वृद्धि दर 1.65 फीसदी के स्तर पर चल रही थी। साफ है कि यह कोई सापेक्ष गरीबी के बढ़ने का नहीं, शुद्ध रूप से गरीबी के बढ़ने का मामला है। इस स्थिति को पलटने का एक ही तरीका है कि समूची जनता को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराई जाए, ताकि आम आदमी के लिए बेहतर जिंदगी सुनिश्चित की जा सके। लेकिन बढ़ते राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के नाम पर आज ठीक इन्हीं योजनाओं पर तो कैंची चलाई जा रही है। वर्तमान बजट के दस्तावेज दिखाते हैं कि खत्म हो रहे वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा 5.9 फीसदी के स्तर पर रहा, यानी कुल 5.22 लाख करोड़ रुपये। इसी साल कॉरपोरेट सेक्टर और अन्य संपन्न लोगों पर माफ कर दिया गया कर राजस्व पूरे 5.28 लाख करोड़ रुपये था। अगर इस कर राजस्व को वसूल लिया गया होता, तो कोई  राजकोषीय घाटा रहा ही नहीं होता। उल्टे कुछ बचत ही सरकार के हाथ लगी होती। बहरहाल, नवउदारवादी दर्शन राजकोषीय घाटे को कम किए जाने की वकालत तो करता है, लेकिन संपन्नों को दी जाने वाली ऐसी रियायतों को छीनने के रूप में यह घाटा कम किया जाना उसे मंजूर नहीं है। आखिरकार उसकी नजर में इस तरह की रियायतें तो संवृद्धि के लिए दिए जाने वाले ‘प्रोत्साहन’ हैं। इसलिए राजकोषीय घाटे को तो गरीबों को दी जाने वाली रियायतों को कम करने के जरिये ही नीचे लाना होगा। ये सब्सिडियां तो वैसे भी उसके हिसाब से अर्थव्यवस्था पर ‘बोझ’ ही हैं। इस तरह, ईंधन सब्सिडी में 25,000 करोड़ रुपये की और उर्वरक सब्सिडी में 6,000 करोड़ रुपये की कटौतियां की जानी हैं। ज्यादातर सब्सिडियां खासतौर पर गरीबी रेखा के नीचे जीने-मरने वालों तक सीमित कर दी गई हैं, इनमें कटौती का सबसे आसान तरीका यही है कि गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की संख्या ही घटा दी जाए। योजना आयोग के फर्जीवाड़े का ठीक यही मकसद है।

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