शुक्रवार, 21 सितंबर 2012


मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 1

[10 फरवरी, 2012 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित नवीन बाबू स्मृति व्याख्यान में यॉन मिर्दल द्वारा दिये गये भाषण का पहला भाग]
myrdalcover.indd
सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि मैं बोल किसकी ओर से रहा हूं। मैं कम्यूनिस्ट हूं। मगर लगभग 60 साल से एक गैर-पार्टी कम्युनिस्ट रहा हूं। इसके कारणों की चर्चा मैं अपनी अनेक पुस्तकों में कर चुका हूं। मतलब यह कि मैं किसी संगठन विशेष का प्रवक्ता नहीं हूं और जो बातें मैं कह रहा हूं उन के लिए और कोई नहीं बल्कि मैं जिम्मेदार हूं।
इधर हाल ही में मेरी एक किताब रेड स्टार ओवर इंडिया—ऐज द रेचेड ऑफ द अर्थ आर राइजिंग प्रकाशित हुई है। यह मेरे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के आमंत्रण पर दंडकारण्य के छापामार क्षेत्र के दौरे पर आधारित है। इसमें मैंने बताया है कि कैसे जंगलों से होते हुए लंबी यात्रा तय करने के बाद जब रात में हम दंडकारण्य के एक कैंप में पहुंचे और चाय पी रहे थे तो जंगल के बीच से एक टोली निकलकर हमारी ओर बढ़ती दिखाई दी। थोड़ी देर बाद मेरी समझ में आया कि ये भाकपा (माओवादी) के महासचिव गणपति और उनके कॉमरेड हैं।
फिर उनके साथ हुई चर्चा में मैंने स्वीडन जैसे छोटे से साम्राज्यवादी देश में पिछली एक सदी में युद्ध और साम्राज्यवाद के खिलाफ राजनीतिक कार्य के हमारे दोनों तरह के अनुभवों —सकारात्मक और नकारात्मक — के बारे में बतलाने की कोशिश की। अपनी 16 दिन की यात्रा की समाप्ती और औपचारिक विदाई के दौरान मुझ से श्रमिक वर्ग और योरोप की वर्तमान स्थिति के बारे में भी पूछा गया।
उस सभा में हमने दुनिया के हमारे हिस्से के मौजूदा हालात पर कुछ और औपचारिक चर्चा की। जैसे कि गहराते आर्थिक और सामाजिक संकट, बढ़ती बेरोजगारी और सशक्त किंतु मुख्यत: स्वत:स्फूर्त लोकप्रिय जनसंघर्षों के बारे में।
वहां सरकारों की विध्वंसकारी आर्थिक नीतियों और पारराष्ट्रीय (ट्रांसनेशनल) पूंजी का विरोध करने वाले तरह-तरह के नए संगठन हैं जो ज्यादातर इंटरनेट के जरिये बने हैं। ये संगठन सरकारों के मौजूदा और भविष्य के हमलों के खिलाफ संघर्ष के मामले में कितने कारगर सिद्ध हो पाते हैं, यह तो समय ही बता पाएगा। संगठनों का यह ढीला-ढाला रूप सरकारी दमन से अपनी रक्षा करने में कारगर है। पर इसके साथ ही इससे सचेत किस्म की सामूहिक कार्रवाई असंभव हो जाती है। पिछली लगभग आधी सदी से, जब से औपनिवेशीकरण के खात्मे की शुरूआत हुई या कम से कम औपचारिक तौर पर शुरूआत हुई, तब से हमारे यहां के देशों में अनेक एकता संगठन बनाए गए हैं। ये तरह-तरह के हैं। इनमें से कुछ वास्तविक और राजनीतिक महत्त्व के सिद्ध हुए हैं। पार्टी के स्तर पर भी विभिन्न समूह हैं। इनमें से कई समूह बड़े हिम्मती हैं, लेकिन ज्यादातर में संकीर्णतावादी कमियां पाई जाती हैं और ये अभी तक तो मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाए हैं।
तथाकथित ‘वामपंथ’ की पारंपरिक और आधिकारिक पार्टियों, सामाजिक-जनवादी, लेबर और भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टियों की बात करें, तो वे मजदूर वर्ग को बेहाल कर देने वाले आज के संकट के विरुद्ध कोई पारंपरिक किस्म की सुधारवादी नीति तक नहीं बना पाई हैं।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वीडन की भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टी की ही तरह ये सभी राज्य द्वारा वित्त-पोषित हैं न कि अपने सदस्यों के आर्थिक योगदान से चलती हैं। यही वजह है कि अपनी संरचना के स्तर पर ही इन संगठनों में वह सामथ्र्य नहीं रह गयी है कि वे साम्राज्यवाद के नए युद्धों को जबानी समर्थन देने से ज्यादा कुछ भी कर पायें। विचारधारात्मक रूप से भी इन्होंने स्वयं को पूरी तरह मुक्त कर लिया है। चाहे पारंपरिक किस्म के सुधारवादी हों या किसी हद तक क्रांतिकारी – आर्थिक कारणों से ही इन्होंने ना केवल अखबार-पत्रिकाएं निकालना और पुस्तक बिक्री केंद्र बंद किए हैं बल्कि इन्होंने अपना सैद्धांतिक अध्ययन भी बंद कर दिया है। केवल इक्का-दुक्का सदस्य ही कहीं-कहीं अपने तयीं स्थानीय पैमाने पर अध्ययन-गोष्ठियों (स्टडी सर्किल)को जीवित रखे हुए हैं। राज्य द्वारा पोषित ये कार्यकर्ता और बाकी सदस्य इस प्रकार विचारधारात्मक रूप से अस्पष्ट से नारीवादी और जर्मन मुहावरे में कहा जाए तो बहुत हुआ तो – रिव्योल्यूज्जर- जैसे यानी क्रांति-से हैं।
वर्ग समाज के इस दौर में आप अपनी निगाह रोम साम्राज्य पर डालें या मुगल समाज पर, चाहे गृह-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के उस स्वर्ण-काल देखें या आज के भारत को, आप वर्गों को संघर्षरत ही पाएंगे। यहां तक कि अगर आप नाजी जर्मनी जैसी कठोर फासीवादी तानाशाही के आधिकारिक (ऑफिशियल) समाज का विश्लेषण करने लगेंगे, जहां कि न केवल कम्युनिस्ट और समाजवादी, बल्कि उदारपंथी प्रवृत्तियों को भी प्रतिबंध और दमन का सामना करना पड़ता था, तो भी आपको देखेंगे कि किस तरह वर्ग संघर्ष उनकी नीतियों को निर्धारित करता है। हर स्तर पर।
इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनके पार्टी संगठन में साम्राज्यवादी समूहों की घुसपैठ हो चुकी है या आंशिक तौर पर उनकी गिरफ्त में आ चुके हैं। पचास के दशक में ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के संगठनों के साथ सी.आई.ए. ने ऐसा ही कर रखा था। पिछले साल की गर्मियों के जर्मनी के एक ऐसे ही उदाहरण को लिया जा सकता है, जब बुंदरसरबेक्रिसेस शेलोम दर लिंक्सजुजेंद नामक युवा आंदोलन ( एक संसदीय राजनीतिक पार्टी की संघ-स्तरीय युवा शाखा) के अंदर शियनवादी एवं इजराइल से प्रेरित एक दक्ष धड़े ने उसके संसदीय समूह पर कब्जा कर लिया। इन धड़ों को फिलिस्तीन के पक्ष में काम करनेवाले समूहों को पार्टी-विरोधी करार देने में सफलता मिली और अब इस साल सर्दियों में ”पार्टी-विरोधी आचरण” की परिभाषा में इन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध का मुकाबला कर रही सीरिया और ईरान की जनता को समर्थन देना भी शामिल करा दिया है।
एक विशेषता यह भी है कि किसी हद तक जनाधार वाले, मुख्यत: उदारपंथी किस्म के शांतिवादी संगठन, जो कि कभी स्वतंत्र और ईमानदार रहे, या तो बेहद कमजोर हो चुके हैं या फिर जो ”मानवतावादी दखल” कहलाता है उन कार्यों को ही समर्थन देने वाले समूहों में तब्दील हो चुके हैं।
आप मेरी पुस्तक में देखेंगे कि शुरू से अंत तक मैंने इस सवाल की बराबर चर्चा की है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आखिरकार विगत् सत्तर वर्षों से मैंने इन आंदोलनों को न केवल देखा है, बल्कि इनमें कई तरह से भाग भी लिया है और इस तरह मुझे दोनों ही तरह के संघर्षों का तजुर्बा है जिनमें अक्सर विजय और पराजय भी मिली है।
दंडकारण्य के जंगल में एक रात मैं लेटे-लेटे मन ही मन एक ऐसी रचना का पाठ कर रहा था जो हमारे हालात का मेरी समझ से बहुत सही चित्रण करती है:
वह ‘एन डाई नाशजेबोरेनेन’ शीर्षक एक कविता है जिसे तीस के दशक में बर्तोल्त ब्रेख्त ने डेनमार्क में अपने निर्वासन के दौरान रचा था। अंग्रेजी में इसका अनुवाद अक्सर टू द पोस्टेरिटी (आने वाली पीढिय़ों के नाम) शीर्षक से किया जाता है। परंतु मुझे लगता है कि साम्राज्यवादी मुल्कों की हमारी पीढ़ी के लिए इस अनुवाद ने सबसे अमूल्य पंक्तियों को छोड़ दिया था। वे हैं:
जिनजेन विर डॉश, ओफटर एल्स डाई शूहे डाई लेंडर वेशलेंड bertolt-brecht
डुस्र्च डाई क्रिएग डर क्लासेन वर्जवेफेल्ट
वेन डा नुर अनरेशत वार अंड केइन इंपोरुंग।

इसका शाब्दिक अर्थ होगा:
युद्धों से होते हुए चलते रहे हम वर्गों के बीच
मुल्कों से ज्यादा जूतों को बदलते -
हताश होते हुए , पाया कि वहां केवल अन्याय है और नहीं है बगावत।

मैं उन रातों में ‘जन मुक्ति छापामार सेना’ के युवा आदिवासी कॉमरेडों के बगल में लेटा, अपने स्लीपिंग बैग में जगा हुआ, हमारी इसी त्रासद ऐतिहासिक परिस्थिति के कारणों के बारे में सोचता रहा।
[Photo Source] आखिर क्यों ‘केवल अन्याय है और नहीं है बगावत’ ? बीते सौ से भी ज्यादा वर्षों से – तथाकथित ‘वामपंथ’ से जुड़े राजनीतिक आंदोलनों में भी – यही केंद्रीय सवाल रहा है। योरोप में 1848 की क्रांति की पराजय, 1870 में फ्रांस और प्रशा के बीच हुए युद्ध, 1841 के कम्यून की हार के बाद के क्रूरतापूर्ण दमन और 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के संदर्भ में हम इसी सवाल पर ठोस रूप से चर्चा करते आए हैं। साम्राज्यवादी राज्यों का मजदूर वर्ग इन पराजयों और युद्धों को रोक पाने में अक्षम सिद्ध हुआ है। 1914-18 के दौरान का मुख्यत: सामाजिक-जनवादी मजदूर वर्ग लाखों की तादाद में फ्लैंडर्स में अपनी मौत की ओर कोई विरोध किए बिना बढ़ता चला गया —वैसे ही जैसे बूचडख़ाने की ओर बछड़े जाते हैं।
हमारे मुल्कों में तब से लेकर आज तक के इस पूरे कालखंड की विशेषता प्रदर्शन व राजनीतिक तथा आर्थिक संघर्ष ही रही है। कई बार बड़ी-बड़ी आंशिक जीतें हुई हैं जैसे कि स्वीडन में तीस के दशक में नाजियों द्वारा पे्ररित प्रतिक्रियावाद की पराजय; 1936 में फ्रांस में ‘पाप्यूलर फ्रंट’ की जीत; पचास के दशक में तब संयुक्त राज्य अमेरिका की परमाणु युद्ध की योजना को रोकने वाला शांति आंदोलन; अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का वह आंदोलन जिसने पचास वर्ष पहले दक्षिण-पूर्वी एशिया की समूची जनता के खिलाफ युद्ध छेडऩेवाले अमेरिकी साम्राज्यवादियों को रोक दिया था। इन संघर्षों से जनता को जो भी हासिल हुआ, हमें न तो उसे भूलना चाहिए और न ही नजरअंदाज करना चाहिए।
मगर जैसा कि हम सब जानते ही हैं, कई निर्णायक पराजय भी हुई हैं। जर्मनी में हिटलरी ताकतों का सत्तासीन होना; स्पेन में फ्रांको की जीत; सोवियत संघ में सत्ता का रंग उतरना और फिर अध:पतन और विघटन; और अब, आज के नए साम्राज्यवादी युद्धों को रोकने के लिए मजदूर वर्ग की संगठित न हो पाने की असमर्थता।यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे साम्राज्यवादी मुल्कों का मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने में अब तक नाकाम साबित हुए हैं। त्रासद बात यह भी है कि वे या तो सक्रिय रूप से या फिर चुप्पी साधकर शासक वर्ग की विध्वंसकारी नीतियों का समर्थन करते रहे हैं।
लेकिन ऐसा हुआ क्यों? इसका एक उत्तर वह है जिस पर जुलाई, 1920 में ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की दूसरी कांग्रेस में ‘राष्ट्रीय एवं औपनिवेशिक प्रश्न के लिए आयोग’ में व्लादिमीर इल्यीच लेनिन और मानबेन्द्र नाथ राय (एम.एन. राय) ने चर्चा की थी।
राय का मत था: ”औपनिवेशिक जनता के शोषण के क्रम में योरोपीय साम्राज्यवाद अपने यहां के नगरीय (मेट्रोपोलिटन) सर्वहारा को कई सारे फायदे पहुंचाने की क्षमता रखता है। “
leninनिश्चय ही लेनिन को यह समस्या नजर आ रही थी। कुछ ही वर्ष पहले जब विश्वयुद्ध का सामना करते हुए अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन पतन का शिकार हुआ था तब इस महाविपदा के विरुद्ध लेनिन ने न केवल सघन रूप से कार्य किया, बल्कि यह बात भी दर्ज की कि:
”हमारे आयोग में इंग्लैंड की समाजवादी पार्टी के साथी क्वेल्च ने इस बारे में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि सारा ब्रितानवी मजदूर वर्ग अंग्रेज शासन के खिलाफ किसी भी गुलाम देश के विद्रोह के मौके पर उन मुल्कों की मदद करने को गद्दारी मानेगा।”
लेकिन लेनिन इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं थे कि यह स्थिति ”सामान्य मजदूरों” की है। बल्कि उनका कहना था कि यह्र केवल ”मजदूरों के अभिजनों” की है और इसका वास्तविक समाधान नए इंटरनेशनल द्वारा इसे बदलने की जिम्मेदारी में है:
”कम्युनिस्ट पार्टियों के सिर्फ अपने ही देश में नहीं, वरन् औपनिवेशिक मुल्कों में भी और खास तौर से औपनिवेशिक अवाम को अपनी गुलामी के अधीन दबाये रखने के लिए शोषक राष्ट्रों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले सैनिकों के बीच किए जाने वाले क्रांतिकारी कार्यों के महत्त्व पर मैं बल देना चाहता हूं। “
मुड़कर देखने पर मालूम होता है कि लेनिन ने जिस तरह का अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन विकसित करने का प्रयास किया वह इंसानियत के बेहतर भविष्य के लिए होने वाले संघर्षों के लिहाज से बड़ा ही वीरोचित था। मगर ”औपनिवेशिक और निर्भर देशों” की समूची जनता के संघर्ष के साथ जिस जुझारू एकजुटता की जरूरत थी उसकी पूर्ति करने में वह आंदोलन कामयाब नहीं हो सका, जैसा कि लेनिन बल देते थे।
इसीलिए 1924 में जब हो ची-मिन्ह ने ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की पांचवीं विश्व कांग्रेस के दौरान साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी ताकतों की कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से सच्ची एकजुटता के अभाव की आलोचना की, तो उनकी इस बात को ऐतिहासिक रूप से उचित ही माना जाना चाहिए।
इसके कारणों और यह समझने के लिए कि इसका हम सबके एक-सामुहिक भविष्य के लिए क्या तात्पर्य है, यह जरूरी है कि हम कुछ कदम पीछे की ओर लौटें, ताकि हम आज के दौर पर विहंगम् दृष्टि डाल सकें और फिर इसे करीब से भी देखें।
मार्क्स यह कहते हुए सजग थे कि मैं पहला व्यक्ति नहीं हूं जिसने समझा हो कि समूचा इतिहास असल में वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। तब एंगेल्स ने, जब उनका प्राक्-इतिहास का पहला वास्तविक अध्ययन प्रकाशित हुआ, यह निष्कर्ष निकाला कि मार्क्स का यह कथन समूचे लिखित इतिहास के लिए सही है। अर्थात यह वर्ग समाज के प्रारंभ से सत्य है।
वर्ग समाज के इस दौर में आप अपनी निगाह रोम साम्राज्य पर डालें या मुगल समाज पर, चाहे गृह-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के उस स्वर्ण-काल देखें या आज के भारत को, आप वर्गों को संघर्षरत ही पाएंगे। यहां तक कि अगर आप नाजी जर्मनी जैसी कठोर फासीवादी तानाशाही के आधिकारिक (ऑफिशियल) समाज का विश्लेषण करने लगेंगे, जहां कि न केवल कम्युनिस्ट और समाजवादी, बल्कि उदारपंथी प्रवृत्तियों को भी प्रतिबंध और दमन का सामना करना पड़ता था, तो भी आपको देखेंगे कि किस तरह वर्ग संघर्ष उनकी नीतियों को निर्धारित करता है। हर स्तर पर। बंदी शिविरों (कंसनट्रेशन कैंप) में कार्यरत गार्डों के भी शासकों के साथ वर्ग हितों के ही अंतर्विरोध हैं।
मार्क्स ने अपने समय में जो समझा वह यह था कि पूंजीवाद के उदय और पूंजीपति वर्ग की विजय ने एक बढ़ते हुए ‘मुक्त’ वेतन कमानेवालों के वर्ग का निर्माण किया—ऐसे सर्वहाराओं का, जिन्हें इधर-उधर कहीं नहीं बस सिर्फ सामने की ओर ही बढऩा था। इस तरह उनका संघर्ष आगे चल कर बुर्जुवा वर्ग द्वारा निर्मित समाज की अवधारण के ही खिलाफ संघर्ष बना।
योरोप में इस परिवर्तनकारी (रेडिकल) चुनौती को बारहवीं और सत्रहवीं सदियों के बीच तब एक स्वरूप मिला जब गरीब किसानों ने सामंती ताकतों के विरुद्ध बेहद हिंसक और क्रूरतापूर्ण युद्धों का सिलसिला छेड़ रखा था। इन संघर्षों में अपनी राष्ट्रीय और धार्मिक जड़ों के आधार पर यूरोप के इन गरीब किसानों ने जो विचारधारा बनाई थी वह उन्नीसवीं सदी के चीन में ताइपिंग विद्रोह के किसान क्रांतिकारियों की विचारधारा से मेल खाती है। यह कोई चकित होने वाली बात नहीं है। समान संघर्षों से समान विचारधाराएं उत्पन्न होती हैं।
मैंने अपनी किताब में, भारत के नक्सलवादी संघर्ष के दौरान हुए विचारधारात्मक विकास को, इसकी आम तौर पर मार्क्सवादी, माओवादी जड़ों को और इस क्रांतिकारी व्यवहार के जरिये सिद्धांत को लगातार तराशे जाने के संदर्भ में, इस पर भी चर्चा की है।
फ्रेडरिक एंगेल्स की निगाह में पांच सौ साल पहले के योरोप के किसान-युद्ध प्रारंभिक क्रांतिकारी युद्ध थे; इनकी असफलता अपरिहार्य थी। लेकिन मैं इस बारे में निश्चित नहीं हूं। हम अगर इनकी तुलना मजदूर वर्ग के वर्तमान युद्धों के साथ के साथ करें, तो अवश्य ही इनके लक्ष्य सीमित कहलाएंगे। लेकिन स्वीडन और स्विट्जरलैंड में उल्टा वे विजयी हुए और इसने इन समाजों को ऐसा रूप दिया जो कि सामान्य तौर पर योरोपीय महाद्वीप से काफी भिन्न है।
यह बात कि दौर विशेष की सीमाओं को लांघना संभव नहीं होता, जैसा कि हेगेल ने लिखा है, सच ही है। ऐसा करना अपनी साया से भागने की कोशिश जैसा होगा। परंतु इस वर्तमान को परिप्रेक्ष में समझना संभव है, यह पता लगाने के लिए कि हमारे वर्तमान दौर की कुछ विशेषताएं दरअसल किस जमाने की हैं।
जारी,,,,,,,,,, (समयांतर से साभार) 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें