बुधवार, 11 मई 2016

शिक्षक की पुनर्बहाली जरूरी

भ्रष्टाचार के विरूद्ध जंग जनता लड़े

भ्रष्टाचार का जहर देश के रग-रग में समाया हुआ है और तमाम उपाय अभी तक नाकाफी ही साबित हुए हैं. जिम्मेदार देशवासियों सहित न्यायपालिका भी इस जानलेवा विषबाधा की गंभीरता से परिचित है. इसी का परिणाम है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने नाराजगी की चरम सीमा में जाकर भ्रष्टाचार को ‘बड़े सिर वाला राक्षस’ करार देते हुये नागरिकों से सीधा संवाद किया, साथ ही सलाह भी दी कि अब एकसाथ आकर अपनी सरकारों को बताएं कि सारी सीमाएं टूट चुकी हैं, भ्रष्टाचार की सड़ांध खत्म हो ही जानी चाहिए और सरकारों को विवश करने नागरिक असहयोग आंदोलन चलाएं, टैक्स देना बंद कर दें. लोकशाही अण्णा भाऊ साठे विकास महामंडल में 385 करोड़ रूपये के गबन की सुनवाई के दौरान न्यायपालिका की यह झल्लाहट वस्तुत: देश के हर नागरिक के आक्रोश की अभिव्यक्ति है. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा से आवाजें उठती रही हैं, लेकिन समाज के प्रति दुराचरण प्रभु-वर्ग के लिए आभूषण बन गया और सिस्टम का हिस्सा बनाने की कोशिशें चलती रही हैं. हर स्तर पर भ्रष्टाचार की बातें आम बात है और तंत्र में शामिल लोगों के लिए हर आम और खास को लूटना धर्म तथा पीडि़तों के लिए नियति बन गई. इस नासूर के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर गोलबंदी अण्णा हजारे ने की, जो महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ गांधीवादी तरीके से युद्ध के प्रतीक बन गए थे. दिलचस्प बात है कि देश का चप्पा-चप्पा, हर गांव, हर शहर आंदोलन से जुड़ा और लोगों को मुखर मंच मिला. कहीं न कहीं से शुरूआत की बात उठी और सरकारी स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन-लोकपाल की मांग पर जोर दिया गया. इस आंदोलन में व्यवस्था पर सवाल उठाए गए और तंत्र में सुधार के लिए अरङ्क्षवद केजरीवाल ने राजनीतिक दल बनाने के साथ दिल्ली में सरकार भी बना ली. ये दोनों पड़ाव थे भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के, लेकिन कष्टप्रद प्रक्रिया और इसके अंतर्विरोधों ने आंदोलन की निरंतरता खो दी और दिल्ली में मामला सिर्फ उम्मीदों तक सीमित है. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा इस साल के लिए जारी भ्रष्ट देशों की सूची में भारत को 76 वें स्थान पर रखा गया है, इस लिहाज से स्थिति सुधरी हुई दिखाई देती है. परन्तु सच्चाई यह है कि सर्वेक्षण के लिए बनाए गए मापदंडों में भारत वहीं का वहीं खड़ा है और दूसरे देशों के ज्यादा भ्रष्ट होने की मेहरबानी के चलते हम अपनी स्थिति में सुधार महसूस कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद और गंभीर स्थिति है. राजनीतिक दलों सहित संसद और सत्ता केंद्रों को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में हमेशा से अरूचि रही है, इसलिए संबंधित कड़े कदम किसी भी स्तर पर उठते दिखाई नहीं पड़ते. उल्टे हर कदम पर भ्रष्टाचार की बू आती है. एनडीए सरकार ने पारदॢशता को लेकर जितनी ऊंची उम्मीदों के साथ काम करना शुरू किया था, पारदॢशता की स्थिति बनाने में उतनी ही फिसड्डी साबित हुई है. न्यायपालिका की टिप्पणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हर स्तर पर पोल खोल दी है और इस तल्खी ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनता के मिजाज को मुखर अभिव्यक्ति दी है. 

कारोबार जगत में पस्त होते दिग्गज

कारोबार की दुनिया में भयानक युद्ध होता है और कोई योद्धा किसी दिग्गज को धराशायी कर, उसको अपने अधीनस्थ बना मध्ययुगीन दृश्यों को ताजा कर देता है. आज कारोबार जगत और उसकी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले उत्तेजित और उद्वेलित हैं. सिर्फ पांच महीने पहले कारोबार के मैदान में उतरी अल्फाबेट, महाकाय एप्पल को पछाडक़र दुनिया की सबसे मूल्यवान कम्पनी बन गई. वैश्विक बाजार वित्तीय पूंजी और तकनालॉजी का दिलचस्प और बेरहम अखाड़ा बन गया है. वित्तीय पूंजी के वर्चस्व और मार्केटिंग की रणनीति हमेशा से चौकाती रही हैं. 
यह घटना पहली बार नहीं हुई है, इससे पहले भी बड़े उलटफेरों में माइक्रोसॉफ्ट ने आईबीएम को परास्त करने का कारनामा दिखाया था, तो एप्पल ने माइक्रोसाफ्ट को 2010 में पटखनी दी थी. इसी एप्पल को उम्र के लिहाज से एक शिशु कम्पनी के हाथों मात खाना, वाकई हैरतअंगेज और मानीखेज है. आज बाजार की ताकतों का वास्तविक नियंत्रण शेयर बाजारों में होता है और सोमवार को अमेरिकी बाजार की भारी खरीद-फरोख्त ने दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन और तकनालॉजी कम्पनी गूगल को अल्फाबेट के अधीन कर दिया. अपने लांच के साथ ही गूगल की मोबाइल आपरेटिंग सिस्टम एंड्रायड दुनिया में नंबर एक बन गई थी, लेकिन एप्पल जब सैमसंग के साथ मुकदमें में फंसी तो नवीनतम तकनीक देने में पिछड़ती रही. कुल मिलाकर स्थिति यह है कि आज का उपभोक्ता, बाजार से प्रतिदिन नवीनतम की मांग करता है और नया न दे पाने की स्थिति में बाजार पुरानी कंपनियों को पीछे धकेल देता है, नए दिग्गज आ जाते हैं. 
कारोबार जगत का लक्ष्य अकूत मुनाफा कमाना होता है लेकिन इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसे हर क्षण मेहनत करनी पड़ती है. यदि किसी बड़ी सफलता और काम को लंबे समय के लिए भुनाने की कोशिश करें तो अर्श से फर्श पर आ जाने में देर नहीं लगती. नए उद्योगों की सफलताओं की कहानियों में अल्फाबेट मील का पत्थर है तो भारत जैसे विकासशील देशों के उद्यमियों के बीच उम्मीद का संचार भी करता है. कारोबार जगत में ऊंचाइयां हासिल करने के लिये नवीनतम ज्ञान और तकनीक का सतत प्रवाह जरूरी है. नए उद्यमियों के लिए प्रधानमंत्री द्वारा घोषित स्टार्टअप योजना जहां ठोस आधार प्रदान करती है तो अल्फाबेट सहित पहले की कम्पनियों की गतिविधियां आगे बढऩे और उस तरह गलतियां न करने की हिदायत देती हैं. साथ ही सावधान भी करती है कारोबार जगत का ‘मत्स्य-न्याय’ उन्हें अस्तित्वहीन भी कर सकती है. भारत में सफलताओं की ढेरों कहानियां हैं. 
ऑनलाइन व्यापार के क्षेत्र में एक कमरे से शुरू हुए उद्यम अमेरिकी कम्पनियों को भी डराने में सक्षम हैं, लेकिन आजू-बाजू की छोटी कम्पनियों को उदरस्थ करने में भी माहिर होती जा रही हैं. किसी बने बनाए रास्ते पर चलने की जगह नई राह बनाने वाली स्थिति ही कारआमद साबित होती है. सब कुछ अनिश्चित होने के बाद भी यह कारोबार जगत की सच्चाई है कि स्थिरता के लिए नए ज्ञान नई तकनालॉजी के साथ नवीनतम मार्केटिंग पद्धति जरूरी अवयव हैं. इसके बाद मध्ययुगीन युद्धों के परिणाम की तरह कभी भी जीतने, गुलाम होने या मारे जाने के लिए तैयार रहना होता है. 

गरीब-वंचित तबकों में बढ़ रहा तनाव

छत्तीसगढ़ के संतुष्ट, निश्छल जीवन का राज यह माना जाता है कि यहां तमाम अभावों के बाद भी लोग तनावग्रस्त नहीं रहते. यह बात अब बीते जमाने की हो गई है. शहर ही नहीं, बल्कि सुदूर ग्राम्यांचल तक अब तनाव पसरा हुआ है. समाचारों के अवलोकन के समय सबकी जान हलक पर इसलिए आ जाती है क्योंकि उनमें बुजुर्ग मां को बेटी ने जहर देकर फांसी लगा ली, 35 वर्षीय युवक दिलीप विश्वकर्मा ने फांसी लगाकर जान दे दी, पत्नी ने दुख में कलाई काट ली, दो बहनों और भाई ने फांसी लगाकर खुदकुशी की -जैसे समाचार शामिल होते हैं. ये घटनाएं सिर्फ आज की हैं लेकिन इस तरह की हृदय-विदारक वारदातों को रोज अंजाम दिया जा रहा है. आखिर वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से तनावग्रस्त होकर लोग अवसाद की स्थिति में पहुंचकर आत्महत्या के लिए विवश होते हैं. निश्चित रूप से किशोरवय छत्तीसगढ़ के लिए यह बेहद संवेदनशील मामला है. बहुमूल्य जीवन को खत्म करने की प्रवृत्ति शहरों तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी व्याप्ति गांव-गांव तक है. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के साथ विकास की अपनी अपेक्षाएं थी, और उस दिशा में काम भी हो रहा है लेकिन तनाव और अवसाद की स्थिति साफ इंगित करती है कि विकास में हिस्सेदारी गरीब और वंचित तबके की अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है. इस तरह की प्रवृत्तियों के लिए सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक स्तर पर समग्र रूप से पड़ताल करने की आवश्यकता है. तीनों ही स्थितियां बहुत गहरे तक एक दूसरे से जुड़ी हैं. छग जैसे छोटे राज्य का निर्माण ही इसीलिए हुआ है कि बेहतर शासन-प्रशासन यहां के आम-आदमी को उन्मुक्त सामाजिक जीवन, बेहतर आॢथक परिस्थिति और स्वच्छ राजनीतिक माहौल उपलब्ध कराए. दुर्भाग्य से इन सभी मोर्चों पर अभी तक सकारात्मक काम नहीं हो पाया है. छग के बड़े हिस्से में अभी तक उद्योग-धंधों का विकास नहीं हुआ है, जहां रोजगार की संभावनाएं है वहां मेहनत करने वालों को सुरक्षा की गारंटी नहीं है. श्रम कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका है. गांव के खेतिहर मजदूरों को रोजगार और कृषि को फायदे का व्यवसाय बनाना तो दूर उनकी हालत बदतर ही हुई है, जिसका परिणाम कर्ज में डूबे और अकाल से त्रस्त किसानों की सिलसिलेवार आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है. नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा है, विद्याॢथयों को वांछित शिक्षा भी नहीं. स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम से भी प्रदेश पिछड़ा हुआ है. स्मार्ट कार्ड की सुविधा के बावजूद भी गंभीर मरीज के सामने पूरा परिवार असहाय होता है और बेटी विवशता में मां को जहर देकर खुदकुशी कर लेती है. आॢथक मोर्चे का तनाव घर तक आता है और जब सब रास्ते बंद मिलते हैं तो सामूहिक आत्महत्या जैसी घटना सामने आ जाती है. निश्चित रूप से यह तस्वीर हृदय विदारक ही नहीं, बेहद चिंता का विषय है. आखिर क्यों गरीब और वंचित तबके में तनाव बढ़ रहा है? इसके सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल और तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है. समाज और सरकार को व्यापक और दूरंदेशी नजरिए से इस मुद्दे को संबोधित करने की जरूरत है. 

पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है?

छत्तीसगढ़ की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, 
व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है?
 दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है. आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.

‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय

भारत में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.

सम्पत्ति कर में भारी वृद्धि औचित्यहीन

प्रदेश के नगरीय निकायों में सम्पत्ति कर में एकमुश्त पचास फीसदी की बढ़ोतरी से लोग उद्वेलित हैं और राजनीतिक दल आंदोलित. आखिर बीस साल बाद एकमुश्त बढ़ोतरी का औचित्य क्या है? इस सवाल से आम और खास सभी परेशान हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि प्रदेश के नगरों को आबंटित राशि का पूरा उपयोग न होने और नियोजित विकास के अभाव में केंद्र सरकार द्वारा जारी सूची में छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर को स्मार्ट सिटी के दायरे में नहीं रखा गया है. इस बात से किसी को भी इनकार नहीं है कि प्रदेश के शहरों के विकास और विस्तार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके स्वत: की स्त्रोतों से आमदनी बढऩी चाहिए, लेकिन सवाल यह भी है कि एकमुश्त वृद्धि क्यों? 
यह सर्वविदित है कि राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव जैसे मौैकों को ध्यान में रखकर जनता पर पडऩे वाले भार को टाल दिया जाता है. इसके साथ ही यह भी कहना गलत नही हैं कि अचानक दी गई रियायतों को मुफीद समय पर ब्याज समेत वापस लेने की परंपरा सिर्फ परेशान करती है. यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि शहरों में रहने वाले नागरिकों से लगातार करों के जरिए वसूल की जाने वाली राशि का सदुपयोग होता है या नहीं? 
क्या शहर का मतलब गौरवपथ में करोड़ों रूपए फूंक देना और गलियों का टूटा फूटा होना तो नहीं? मुख्य मार्गों पर झिलमिलाती रोशनी और मोहल्लों में अंधेरा तो नहीं? यह भी तथ्य छिपा नहीं है कि आए दिन साफ-सफाई के नाम पर करोड़ों रूपए की मशीनें खरीदी जाती हैं और फिर उसका स्थान सिर्फ कबाडख़ानों में होता है. जनता से कर के रूप में वसूली की जाने वाली राशि से इस भयावह दुरूपयोग की अभी तक किसी जवाबदेही तय की गई होगी, एेसा कोई प्रसंग सामने नहीं आया है. अभी भी शहरों में रहने वालों को पीने का साफ पानी नगरीय निकाय उपलब्ध नहीं करा पाए और राजधानी रायपुर सहित छग के शहरों में प्रदूषित जल के कारण पीलिया व उल्टी दस्त की बीमारियां महामारी के रूप में प्रकट होती हैं. नगरीय निकायों के द्वारा जनता की सम्पत्ति का सदुपयोग आखिर कैसे हो, इस प्रश्न पर कार्य-नीति के अभाव ने अभी तक करदाता नागरिकों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा है और चौक-चौराहों सडक़ों के सौंदर्यीकरण से ठेकेदारों की पौ-बारह ही ज्यादा होती रही है. संपत्ति कर देने के मामले के मामले में आम शहरी तो अपना दायित्व निभाता है लेकिन प्रभुत्वशाली लोग औने-पौने राशि देकर अपना काम निकाल लेते हैं.
 यह सुनिश्चित करना फौरी जरुरत है इस तरह का भेदभाव न हो और समान रूप से टैक्स वसूली हो. निश्चित रूप से एकमुश्त सम्पत्ति कर बढ़ाने के औचित्य पर सवाल उठाना अनुचित नहीं है साथ ही प्रदेश के विपक्ष को भी इस बात की जिम्मेदारी लेनी होगी कि शहरों की दुर्दशा के हिस्सेदार वे भी रहे हैं. विकास के लिए कोष चाहिए लेकिन उसे धीरे-धीरे बढ़ाना था साथ ही धन राशि के सदुपयोग और जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा के दायित्व को भी निभाना था. 

लोकतंत्र को तार-तार न होने दें

‘गण’ से ही सशक्त बनेगा ‘गणतंत्र’

नेताजी पर अवांछित राजनीति न हो

बहुप्रतीक्षित दस्तावेजों के जारी होने के बाद अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर कई तरह की बातें आ रही हैं. पं. जवाहर लाल नेहरू की 1945 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर कांग्रेस-भाजपा के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू हो गया है. सारी घटनाओं को उसके परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है. दूसरे विश्वयुद्ध में दुनिया दो हिस्सों में बंट गई थी, एक ओर जर्मनी के नेतृत्व में धुरी-राष्ट्र जिसमें इटली जापान आस्ट्रिया प्रमुख थे, दूसरी ओर ब्रिटेन के नेतृत्व में रूस, फ्रांस आदि थे. अमेरिका बाद में मित्र राष्ट्रों के साथ आया, भारत शुरू से इसमें शामिल नहीं था. गांधीजी ने जब युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने का एलान किया और भारतीय नौजवानों की फौज में भर्ती करवाई. कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवादी के विरोध के नाम पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया परंतु व्यक्तिगत रूप से बहुत से कम्युनिस्ट भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे.
चूंकि भारत मित्र राष्ट्रों में था इसलिए जापान या जर्मनी से सहायता लेकर ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध लडऩा, परोक्ष रूप से फासीवाद का समर्थन था जबकि सुभाष बाबू घोषित रूप से फासिज्म के खिलाफ थे और इसीलिये हिटलर से उन्हें कोई बड़ी सहायता नहीं मिली, हां, एक जापानी जनरल ने आजाद हिंद फौज को ट्रेनिंग और असलहा दिया था. बाद में स्तालिन ने सुभाष बाबू को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नायक मानकर उन्हें रूस आने की इजाजत दी. फासिस्टों पर न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चला जिसमें जीवित मृत सभी प्रमुख फासिस्टों के नाम हैं. सुभाष बाबू उनमें नहीं थे, 
इसका मतलब यह है कि उन्हें युद्ध अपराधी नहीं माना गया. कांग्रेस पार्टी उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती रही है. दस्तावेज आने से धुंध ही छंटनी ही चाहिए और कम से कम उन्हें कांग्रेस के बहाने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को कटघरे में खड़े करने का अधिकार नहीं है जो उसमें शामिल ही नहीं थे. वस्तुत: नेताजी आजादी दिलाने के पक्षधर थे, जिसमें सैन्य, आॢथक और आजादी शामिल थी. नेताजी कांग्रेस के गरम दल के नेता थे और हथियारबंद का युद्ध का आव्हान करते थे. इसी बात पर महात्मा गांधी से उनके मतभेद हुए. 
इस मुद्दे पर किसी को राजनीतिक लाभ के लिए लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती. वस्तुत: इतिहास के नायकों को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय धुरी राष्ट्रों के कहर से दुनिया थर्रा उठी थी. दिलचस्प बात है कि गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि की हैसियत से फ्रांस के प्रधानमंत्री भारत आ चुके हैं और यही फ्रांस फासीवादियों का सबसे अधिक उत्पीडऩ बर्दाश्त करने वाला देश था. इसी का परिणाम है कि फ्रांस सेक्युलरिज्म का सबसे आदर्श उदाहरण है जो धर्म को राजनीति से दूर रखने के विचारों को अमली जामा पहनाता है. जबकि भारत में असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विचारों से प्रेरित हिंसात्मक व्यवहार, फसाद आदि सबसे बड़ी चुनौती हैं. जरूरत इस बात की है कि नेताजी के नाम से राजनीति करने की जगह उनकी विचारधारा और धर्म-निरपेक्षता से केन्द्र सरकार और सभी दल सहमत होकर आचरण करें. 

महा-मंदी की आहट और भारत

समूचे विश्व में विकास का पहिया थम सा गया है और बुद्धिमान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक फिर से दुनिया सन 2008 जैसी मंदी के मुहाने पर आ खड़ी हुई है. स्विटजरलैंड के दावोस में सभी देशों के दिग्गज चिंतित हैं और मंदी के भयपूर्ण वातावरण से मुक्त होने के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं. बीसवीं सदी के आरंभ से ही वैश्विक स्तर पर मंदियों का सिलसिला चलता ही रहा है और दुनिया को नए सिरे से बांटने के लिए विश्व युद्ध भी हुए हैं. आज परिस्थितियां पहले से बहुत अलग हैं और व्यावसायिक वैश्वीकरण और मुक्त-व्यापार की स्थितियों ने किसी भी देश को परेशानी से बचे रहने की गुंजाईश ही नहीं छोड़ी है. अब विकसित देशों में एेसी प्रणाली विकसित की है जिसके तहत देश अपनी विशिष्टताओं को छोडक़र वैश्विक आॢथक प्रणाली की कतार में जा खड़ा हुआ है. भारत अभी भी विकासशील देश है. जब आजादी के बाद भारत के आॢथक भविष्य गढऩे की बात उठी तो दो-ध्रुवीय विश्व की विशेषताओं को अपनाने का निश्चय कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई. सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना समाजवादी देशों की तर्ज पर की गई और आज भी यही क्षेत्र देश की आॢथकी की रीढ़ है. सन 1997 या 2008 की वैश्विक महा-मंदी का असर भारत में इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र बाजार की ताकतों के हाथ में नहीं थी. यह बात निश्चित रूप से देश के सत्ताधारी वर्ग और अर्थजगत के विद्वानों को मालूम है लेकिन नई आॢथक नीति व उदारीकरण ने अब सार्वजनिक क्षेत्र को धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर दिया और इनकी तकदीर वैश्विक वित्तीय पूंजी और शेयर बाजार के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव ने लिखना शुरू कर दिया. दावोस में जिन बातों पर चिंता की जा रही है उनमें चीन के विकास दर का पिछले 25 साल में सबसे कम होना, युआन के अवमूल्यन से दुनिया भर के व्यापार का लडख़ड़ाना, तेल की कीमत का एक साल के दौरान के 70 फीसदी तक गिर जाना, फेडरल बैंक के ब्याज दरों में बढ़ोतरी का निर्णय आदि है, जिसके कारण दुनिया भर में आॢथक गतिविधियां थमती जा रही हैं. बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स के पूर्व चीफ इकानामिस्ट विलियम वाइट ने 2007 की परिस्थितियों का आंकलन कर 2008 की मंदी की सटीक चेतावनी दी थी, उन्होंने ही फिर बैकों को आवश्यक सुझाव देते हुए फिर मंदी के हालात का विश्लेषण किया. इसके बाद भारत सहित सारी दुनिया के शेयर बाजार लगातार लुढक़ रहे हैं. बैकिंग संस्थाओं के पुन: धराशायी होने की गुंजाईश बढ़ी है, जबकि हालात संभालने के विकल्प सीमित हैं. मंदियों के दौर का आना नई आॢथक व्यवस्था और पुरानी नीतियों के मुताबिक भी असहज स्थिति नहीं है, लेकिन भारत जैसे किसी देश की अपनी स्वतंत्र आॢथक प्रणाली का ध्वस्त होना और वैश्विक परेशानी में भागीदार होने की प्रक्रिया पर लगाम लगाया जा सकता था. आज जब सार्वजनिक क्षेत्र को समाप्त करने की मुहिम चल रही है, जरूरत इस बात की है कि उसे बचाएं और सशक्त करें ताकि देश की आॢथकी सुरक्षित रह सके. 

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जरूरी

सारी सीमाएं पार कर दी फिर निर्मम हत्यारों ने, बाचा खान विश्वविद्यालय में आतंकवादियों ने सीमांत गांधी को श्रद्धांजलि देते पाकिस्तान के भविष्य होनहार छात्रों के बीच घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर दो दर्जन से ज्यादा जानें ले लीं. ये वहीं क्रूरतम लोग हैं जो पेशावर के सैनिक स्कूल में डेढ़ सौ से ज्यादा मासूम विद्याॢथयों को मार डाला था, जिनका जनाजा उठाते पाकिस्तान के उनके अभिभावकों सहित विश्व के सभी शांतिकामी लोगों का कलेजा फटा जा रहा था. बाचा खान या बादशाह खान या सीमांत गांधी पेशावर से ही थे. बाचा खान महात्मा गांधी के समकालीन स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और सत्य के आग्रही होने के साथ शांति के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे.
 महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद भी सीमा के दोनों तरफ के लोग बादशाह खान से मिलकर अपनी साध पूरी करते थे. शांति के अग्रदूत की धरती खैबर-पख्तूनवा प्रान्त पाकिस्तान में बहुत अशांत है और आतंकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र भी. इस हिस्से में आतंकियों द्वारा निर्दोष छात्रों को लगातार निशाना बनाना अत्यधिक चिन्ता का कारण बन गया है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान में कई गुनी आतंकी घटनाएं होती हैं और आए दिन आम-नागरिक मारे जाते हैं. भारत की घटनाओं के लिए भी पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों पर ही अंगुलियां उठती हैं और वहीं से प्रशिक्षित आतंकी आमतौर पर मारे या पकड़े जाते हैं. गौरतलब है कि हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी पाकिस्तान को आतंकवादियों का मददगार और पनाहगार देश के रूप में चिन्हित कर वहां के हुक्मरानों को चेतावनी दी कि अपना रवैया बदलें. भारतीय उप महाद्वीप सहित दक्षिण एशिया में आतंकी घटनाओं की वृद्धि चिंताजनक है ही, खुद पाकिस्तान इस आग से झुलस रहा है. 
भले ही बांग्लादेश सहित यह देश भारत का पड़ोसी हो गया हो, रिश्तेदारी सहित सांस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन में एक जैसे हैं. खून चाहे पठानकोट में बहे या पेशावर में दर्द दोनों तरफ के लोगों को एक जैसा होता है. यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि दोनों देशों के शासकवर्ग जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें तकलीफ देने वाले संगठित तंत्र का खात्मा करें. पाकिस्तान के शासक वर्ग हमेशा इस बात को दुहराते हैं कि भारत की अपेक्षा वे आतंकवाद से ज्यादा पीडि़त हैं. इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है, परंतु आतंकी दबाव समूह का नियंत्रण भी स्वीकार कर हर दृष्टि से ढिलाई बरती जाती है और क्रूरतम लोगों वहां प्रोत्साहन मिलता है, यह भी सच्चाई है. 
निश्चित रूप से पाकिस्तान में जम्हूरियत है और इंतखाब भी होते हैं. हुक्मरानों को वहां की बहुसंख्यक जनता, जो बाचा खान को दिल से चाहती है, वहीं चुनकर सत्ता सौंपती है. फिर क्यों मनुष्यता के दुश्मनों के दबाव में सरकार आती है? उन छात्रों को निशाना बनाया जाना किसी भी दृष्टि से असहनीय है जो नए विचार, ज्ञान, विज्ञान से देश के भविष्य को गढऩा चाहते हैं. अब बहुत हो चुका, अब तो सिर्फ इस बात का समय है कि सीमांत गांधी जैसे शंतिकामी महामानवों और आम-आदमी की सुनें और दहशतगर्दी को सभी अर्थों में खत्म करने अभियान चलाएं. 

हवा न हो जाए हवाई निरीक्षण


मतदाताओं के एक-एक वोट हासिल करने की कड़ी मशक्कत के बाद किसी राजनीतिक दल को शासन-प्रशासन चलाने की इजाजत इस उम्मीद के साथ मिलती है कि वह जनता के जीवन को खुशहाल बनाये और प्रशासन को जनोन्मुखी और दुरुस्त. छत्तीसगढ़ के मुखिया का दायित्व तीसरी बार संभाल रहे डॉ. रमन सिंह अचानक एक स्कूल पहुंचे और सच्चाईयों से रूबरू हुए. राज्य के मुखिया की एेसी कार्रवाई प्रशासनिक चुस्ती के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि जनता की जरूरतों का एहसास भी जनता के बीच जाने पर होता है. दुर्भाग्य से सत्ता की राजनीति सत्ताधीशों को जनता से दूर ही कर रही है. कभी सुरक्षा, कभी व्यस्तता या कभी अरुचि के कारण. हमेशा इस बात को जेहन रखना जरुरी है कि अंतत: अंतिम निर्णय जनता के हाथ में ही होता है. राजनेताओं की सादगी और जनता से तादात्म्य अब विलुप्त होती चीज है. 
पार्रिकर या माणिक सरकार जैसे उदाहरण कितने हैं. डॉ. रमन सिंह ग्राम सुराज अभियान के नाम पर निकलते हैं लेकिन लगभग सभी को मालूम होता है कि उस पखवाड़े में किसे क्या करना है! कार्रवाई के नाम पर कुछ छोटे-मोटे अफसर कर्मचारी ही निपट जाते हैं. कार्रवाई हो ही यह जरूरी नहीं है लेकिन जरूरी यह है कि सरकार और उसकी नीतियां-कार्यक्रम जनता तक पहुंचे. जरूरी यह है कि जनता की आवाज, उसके दु:ख दर्द सरकार तक पहुंचे. सरकार की तमाम योजनाओं को जनता तक पहुंचाने वाला तंत्र तो इस मामले में अत्यंत नकारा साबित हुआ है. कहीं भूख से मौत हो जाती है, कहीं किसान आत्महत्या कर रहा है लेकिन एेसे तमाम जरूरी सवालों पर इस राज्य का तंत्र तभी हरकत में आता दिखता है जब कम से कम मुख्यमंत्री उसका संज्ञान लेते हैं. 
प्रशासनिक विकेंद्रीकरण दरअसल व्यावहारिक रूप से अब भी अपनी भावनाओं के अनुकूल जनता तक नहीं पहुचा है. इस राज्य में अफसर ही नहीं मंत्री भी जनता के दुखों से बेपरवाह ही नजर आते हैं. बहुत हो गया तो अपने चुनाव क्षेत्र के कुछ लोगों से मिलकर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री मान लेते हैं. अनेक मंत्रियों के बंगलों में आम आदमी का फटकना भी मुश्किल है लेकिन यहाँ दलाल किस्म के लोग बेधडक़ आते-जाते नजर आते हैं. इस माहौल में डॉ. रमन सिंह का एेसा औचक निरीक्षण सकारात्मक तो है, बस सवाल सिर्फ यही है कि कहीं यह श्रृंगारिक निरीक्षण बस ना रह जाए! मुख्यमंत्री अगर अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर समय-समय पर इस तरह का औचक निरीक्षण करें तो उन्हें पता लगेगा कि मंत्रालय की बैठकों में अफसरों के प्रेसेंटेशन और जमीनी हकीकत में फासला कितना है.
 महासमुंद के बिराजपाली में ही जब मुख्यमंत्री भोजन के लिए  जमीन एक फटे हुए बोरे पर बैठे तब पता लगा कि सर्वशिक्षा अभियान में पैसा नहीं था इसलिए टाट पट्टी की खरीदी नहीं हुई थी. यह उस राज्य का हाल था जहाँ खुद मुख्यमंत्री लगातार शिक्षा की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं और इसीलिए उन्होंने एक ग्रामीण स्कूल का औचक निरीक्षण किया भी. मुख्यमंत्री एेसे दौरे पर समय समय पर निकलेंगे तो राज्य की नब्ज को और बेहतर तरीके से पकड़ सकेंगे. 

भावनात्मक मुद्दों से भला नहीं होगा

राम मंदिर मुद्दे को स्थायी रूप से चुनावी औजार बनाने की मंशा साफ हो चुकी है. मामला अदालत में है और सभी पक्ष न्याय मंदिर की बात मानने का जिक्र करते हैं, लेकिन जब भी चुनाव की आहट होती है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश जैसे राज्य की बात करें तो बार-बार चर्चा शुरु हो जाती है. अयोध्या में शिला-पूजन, दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर मुद्दे पर सेमिनार के बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम नवमीं से हर गांव में राम मंदिर स्थापना का अभियान बनाया है. केन्द्र सरकार खामोश है, इसका साफ अर्थ है कि इस मुद्दे को चर्चा पर लाने में केन्द्र की भी सहमति है. प्रधानमंत्री अभी तक विदेशों व चुनावी सभाओं में बोलते आए हैं ओर ट्विट भी आमतौर पर देश से जुड़े मुद्दों पर नहीं करते. यह सहज संयोग नहीं है कि एकबारगी चौतरफा मंदिर निर्माण के मुद्दे को उठाया जा रहा है. यहां इस बात को जेहन में रखना जरुरी है कि जब भारतीय जनता पार्टी के संसद में सिर्फ 2 संसद थे तो लालकृष्ण आडवानी ने रथ बैठकर अयोध्या कूच किया
, कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहा और देश में उन्माद के वातावरण ने अनगिनत शहरों में साम्प्रदायिक तनाव के साथ धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज की. फलस्वरूप राष्ट्रीय जनता पार्टी को 86 सीटें लोकसभा की मिली. ऐसे प्रयासों अल्प-जीवन होता है लेकिन जब इस दिशा में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक समरता को स्थायी जख्म ही मिलता है. भाजपा ने लगातार मुद्दे बदले, रणनीति बदली और जब विकास की बातें की तो एनडीए की पहली सरकार अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी. फिर क्यों देश के आर्थिक विकास और जनता को राहत देने वाले मसलों से किनारा कर भावनात्मक मुद्दों को उछालने की जरुरत आ पड़ी है?  आज देश के विकास गति ठहरी हुई है, 
जनता को राहत मिलना तो दूर उनकी कठिनाईयां बढ़ी हैं. रोजगार के अवसर दूर ही होते जा रहे हैं, किसानी सजा हो गई है और किसान आत्महत्या कर हैं. नतीजा, दिल्ली फिर बिहार में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गुजरात और महाराष्ट्र की ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में केन्द्र सरकार की नीतियों को मतदाताओं ने नकार दिया और भाजपा चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बेहद सुनियोजित तरीके से भावनात्मक मुद्दों को उठाया जा रहा है. राम अयोध्या के ही घर-घर में नहीं बसते, उसकी व्यापकता पूरे देश के जन मानस में है. पठन-पाठन, शोध के केन्द्र विश्वविद्यालय में अयोध्या और मथुरा-काशी की बात होने लगे तो सचेत हो जाने का समय है. देश अब फिर से साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा सहने के लिए तैयार नहीं है. देश के गांव, शहरों के किसानों और काम करने वालों को रोजगार की जरुरत है. नई पीढ़ी को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सर्वसमावेशी विकास चाहिए. ऐसी स्थिति में देश की सौहाद्र्र की परम्परा का अनुपालन करते सत्ता काम करे और एेसी कोशिशों को लगाम लगाने के लिए सचेत प्रयासों का भरोसा जनता को दे.

रविवार, 13 मार्च 2016

आहत हैं, तो नीति बदलें

अमेरिका के कैलिफोॢनया में हुई गोलीबारी की घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी से राष्ट्रपति बराक ओबामा बेहत आहत-मर्माहत हैं. उनके बयान को विश्व से सबसे पुराने लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखने से सर्वथा उचित प्रतीत होता है. उन्होंने भरोसा जताया है कि आम और खास अमेरिकी, लोगों को उनकी धाॢमक आस्था के आधार पर हिंसा का शिकार नहीं बनाएगी. उन्होंने मुस्लिम समुदाय की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता भी जताई और स्पष्ट शब्दों में कहा है कि संघीय सरकार सहयोग देगी. अर्नेस्ट के माध्यम से दिए गए बयान में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ किया अल-कायदा और आईएस जैसे समूहों से लड़ाई विश्व के आम मुसलमानों से युद्ध नहीं है. यहां दिलचस्प एेतिहासिक सन्दर्भों की चर्चा आवश्यक है, अमेरिकी राष्ट्रपतियों के बयान, जनतांत्रिक मूल्यों की चर्चा और व्याख्याएं उनकी करनी के प्रतिकूल ही रही हैं. 
अमेरिका की वर्चस्ववादी-विस्तारवादी रणनीति दो-ध्रुवीय विश्व के समय से साफ रही हैं. तत्कालीन यूएसएसआर के समय कोल्डवार ने कई दशक पहले समूचे विश्व को दीर्घकालीन खतरे की ओर धकेल दिया था. एक ओर अरब देशों के तेल भंडार पर कब्जा करने की मुहिम और समाजवादी खेमे को कमजोर करने के लिए जो कारगुजारियां की गई थी, उससे अब लोग परिचित होने लगे हैं. अरब देशों में ईरान के शाह से लेकर मिस्त्र सीरिया आदि देशों में समर्थक शासकों और उनकी निरकुंशता के विरूद्ध जनता के विद्रोह ने अमेरिका रणनीति को प्रभावित किया और अल-कायदा आईएसआईएस जैसे संगठनों को पल्लवित-पुष्पित किया. अमेरिका के पूर्व और मौजूदा विदेश मंत्रियों सुश्री कोंडालिजा राइज और हिलेरी क्ंिलटन ने इस बात की ताईद की है कि अल-कायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों को अमेरिका ने अपने आॢथक हितों और वैश्विक रणनीति के तहत जन्म दिया, पाला-पोसा इस्तेमाल किया. अल-कायदा को लाल रूस को खत्म करने अहम रणनीतिक देश अफगानिस्तान में अरब देशों से भेजा, जहां तालिबान के साथ मिलकर सोवियत संघ के विरूद्ध मोर्चा लिया गया, वही अल-कायदा अमेरिका में वल्र्ड ट्रेंड सेंटर की तबाही का कारण बना. 
इतना नहीं मुस्लिम आतंकवाद शब्द को स्थापित करने के लिये सतत प्रयास चलते रहे और बीस साल बाद इस कथित आतंकवाद को विश्व-पटल पर स्थापित करने में सफलता पाई. वल्र्ड ट्रेंड सेंटर की तबाही के बाद जिस तरह से अमेरिका में मुस्लिम समुदाय के व्यवहार हुआ, जनता में नफरत फैली, मीरा नायर की फिल्म रिलक्टेंट फंडामेंटिलिस्ट बखूबी बयान करता है. इतना ही नहीं, हिंदुस्तानी सिक्ख भी सिर्फ अपनी केश-दाढ़ी के कारण हिंसा के शिकार हुए. आईएसआईएस की गतिविधियां अमेरिका-पश्चिमी हितों को साधने तक सीमित थी, जो नई मुसीबत के रूप में सामने आ गई. 
अधुनातन हथियार, भीषणतम निर्मम हत्यारों से सजी सेना अब भस्मासुर साबित हो गई है. अल-कायदा के खिलाफ लंबी जंग में अमेरिका और पश्चिमी देशों के लाखों सैनिक और अकूत धनराशि खर्च हो रही है. इसका प्रतिरोध इन्हीं देशों की जनता कर रही है. अमेरिकी गलतियों का नतीजा और स्याह पहलू यह भी है कि मुस्लिम बहुल देशों में यह कौम ज्यादा मिलिटेंट होती जा रही है, वहीं अन्य देशो में बेहद असुरक्षित महसूस कर रही है. ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया सहित यूरोपीय देशों में खूंखार आतंकी संगठनों के पैरोकार-मददगारों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. इस दशा में अमेरिकी राष्ट्रपति का बयान बेहद मानीखेज है, लेकिन दशकों से पड़ी खटास के लिए मामूली कवायद है, अगर धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रतिबद्धता दिखाई जाती है तो अमेरिका और साथी देशों को अपनी पूरी वैश्विक रणनीति को बदलने की तुरंत पहल करनी चाहिए. तमाम सामरिक विस्तारवादी गतिविधियों पर तत्काल विचार करने की आवश्यकता है.

अनुत्पादक सम्पदा का इस्तेमाल जनता की बेहतरी के लिए हो

भारतीय परम्परा में आभूषणों, कीमती धातुओं के प्रति आसक्ति हमेशा से रही है. निश्चित रूप से सोना-चांदी सम्पन्नता का प्रतीक रहा है, लेकिन घरों में संग्रहित यह सम्पदा अनुत्पादक भी है. भारतीय घरों में रखी इस अकूत सम्पदा को देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार ने स्वर्ण मौद्रिकीकरण की योजना पेश की. इस योजना को जिस तरह का प्रतिसाद मिलने की उम्मीद जताई गई थी, परिणाम उसके उलट रहा. सोने और आभूषणों के मोहपाश में जकड़े आम और खास भारतीयों ने लाभ हासिल करने जरा भी रूचि नहीं दिखाई. अब योजना को एक नया कंधा मिल सकता है, देश के अमीर तिरूपति बालाजी मंदिर ने 1320 करोड़ रूपए से भी अधिक कीमती 5.5 टन सोने को जमा कराने की मंशा जताई है. मंदिर ट्रस्ट को ब्याज स्वरूप अतिरिक्त राशि भी मिलेगी और यह सोना सरकारी योजनाओं का हिस्सा भी बन सकती है. 
देश में लाखों मंदिर हैं, लेकिन सिर्फ दस सबसे समृद्ध मंदिरों की चर्चा करें तो 50 हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति वाले बालाजी मंदिर के मुकाबले तिरूअनंतपुरम स्थित पद्नाभ स्वामी मंदिर की संपत्ति और स्वर्ण भंडार सवा लाख करोड़ रूपए से भी अधिक है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भारी रकम दान स्वरूप आता है. सांई बाबा मंदिर में प्रतिवर्ष 350 करोड़ का दान श्रद्धालु समर्पित करते हैं. सिद्धि विनायक मंदिर, वैष्णो देवी मंदिर, सोमनाथ मंदिर, गुरूवायूर मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मिनाक्षी अम्मन मंदिर में हजारों करोड़ रूपए के सोने सहित नगद राशि का चढ़ावा आता है. इसी तरह देश के दूसरे महत्वपूर्ण समुदाय मुस्लिम धर्मावलंबियों की धाॢमक संपत्ति वक्फ बोर्डों के अधीन है. सच्चर कमेटी के अनुसार 4.9 लाख से अधिक पंजीकृत वक्फ संपत्तियां हैं, जो बाजार मूल्य के लिहाज से 1.2 लाख करोड़ रूपए से अधिक है. स्वतंत्र और राज्यों से मिल रहे आंकड़ों के मुताबिक वक्फ संपत्तियां वस्तुत: कई लाख करोड़ रूपए की हैं. भारत में चर्च की संपत्ति कई बड़े औद्योगिक घरानों की कुल जमा पूंजी से भी ज्यादा है. यह कड़वी सच्चाई है कि मंदिरों, वक्फ बोर्डों, मिशनरियों सहित सिक्ख, जैन व अन्य धार्मिक समूहों के पवित्र स्थलों में अकूत सम्पदा है, लेकिन हर समूह का साधारण व्यक्ति जिसमें किसान, नौजवान, श्रमिक, मध्यवर्ग, महिलाएं शामिल हैं, घोर अभाव, परेशानियों और गरीबी से जूझ रहे हैं. विश्व के किसी भी धर्म के नबियों, ऋषियों, अवतारों की शिक्षाओं की बात करें तो सभी ने एक स्वर से मनुष्य की मुक्ति और उनकी बेहतरी की बात ही नहीं की, अपितु पूरे जीवन काल में संघर्ष किया, पुरानी शिक्षाओं से बेबहरा हो जाने के बाद भी एक सभ्य समाज की अपेक्षा कम से कम यह होती है कि सभी को भोजन मिले, जीवन-यापन के लिए काम और वेतन मिले, शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों. जीवन में बेहतरी और समृद्धि की कामना लेकर धर्मस्थलों में प्रार्थना और भेंट देने वाला आम आदमी लगातार दरिद्रावस्था की ओर ही जा रहा है. वहीं धर्मस्थलों की सम्पदा अनुपयोगी पड़ी हुई है. सरकार को विकास के लिए सम्पत्ति की जरूरत होती है, स्वर्ण मौद्रिक योजना की मंशा नागरिकों और संस्थाओं के पास रखे 22 से 23 हजार टन सोने को अर्थव्यवस्था में शामिल करने की है. 
इस दिशा में बालाजी मंदिर ने रूचि दिखाई है. यदि आस्था केंद्रों की संपत्ति उनकी समितियों या सरकारी योजनाओं में भागीदारी के जरिए बाहर आती है तो स्वागत योग्य कदम होगा. भारत में गरीबी इतनी भयावह है कि यदि ईश्वर, खुदा, गॉड, गरीब-वत्सल हैं तो मंदिरों, मठों, वक्फ, मिशनरी संस्थाओं की अथाह सम्पदा पड़ी सड़ क्यों रही है. किसी भी एक समूह की संपत्ति से गांव के गरीबों को रोजगार देने वाली मनरेगा योजना को दस साल तक संचालित करने योग्य राशि मिल सकती है. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित गंभीर समस्याओं का समाधान हो सकता है. इस विषय पर चर्चा करते समय इस बात की ताकीद जरूरी है कि देश में मुक्त अर्थव्यवस्था, उदारीकरण जनता की पक्षधरता खोती जा रही है, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य के बजट में निरंतर कटौतियां हो रही हैं. इस दशा में अहम सवाल यह भी है कि अनुपयोगी पड़ी संपत्ति बाहर आए, अर्थव्यवस्था को गतिशील करे, साथ ही शासन की जन-कल्याणकारी भावना को विलोपित होने से भी रोके. 

बड़े ब्रांड का छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए तेरह साल हो गए और अधिकतम समय 12 वर्ष डा. रमन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजर रहा है. इस बीच राज्य में अभूतपूर्व प्रगति हुई है, निश्चित रुप से इस बात के लिए मौजूदा मुख्यमंत्री की प्रशंसा की जानी चाहिए. राजधानी सहित शहरों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं उपलब्ध कराने में बहुत ध्यान दिया गया है, नए औद्योगिक क्षेत्रों का विकास हुआ है, जिसमें रायगढ़ और जांजगीर-चाम्पा जिले उल्लेखनीय हैं. 
राजधानी रायपुर में तो नए रायपुर की संकल्पना को साकार किया जा रहा है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेलकूद के लिए संसाधन जुटाए गए हैं. व्यवसाय के क्षेत्र में वैश्विक महाकाय कम्पनियां भी अब छत्तीसगढ़ की ओर रुख कर रही हैं, मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनी रायपुर में स्टोर खोलने जा रही है. कोई भी बड़ी कम्पनी जब किसी स्थान पर अपना व्यवसाय कर विस्तार करती है तो संबंधित स्थान के लोगों की आय, खरीद की क्षमता, खान-पान की प्रकृति और समृद्धि का ठोंक-बजाकर आंकलन करने के बाद ही फैसला लेती है. लगातार राजधानी सहित कतिपय शहरों में नामचीन कम्पनियों का आना इस बात का संकेत देती है कि छग के शहरों में समृद्धि बढ़ी है. इस समृद्धि का स्वागत होना चाहिए, लेकिन छग की विकास यात्रा की समग्रता से समीक्षा भी किए जाने की जरुरत है.
इस लिहाज से छत्तीसगढ़ भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है. यहां वनांचल में आदिवासी हैं तो प्रदेश का सबसे बड़ा हिस्सा किसानों, खेतिहर मजदूरों, गरीबों का है. सिंचाई की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है, इसका सबूत अल्प वर्षा के कारण सूबे के 117 तहसीलों का सूखाग्रस्त घोषित होना है. रोजगार के लिए प्रदेश के बड़े हिस्से में उद्योग-व्यवसाय भी नहीं हैं. राज्य सरकार ने अपनी ओर से अकालग्रस्त किसानों को 50 फीसदी फसल नुकसान पर मुआवजा देने की बात की है, तो मनरेगा के दिनों को सौ से बढ़ाकर 150 दिन करने का एेलान किया है. दूसरी ओर समृद्धि और विपन्नता की तस्वीर इतनी भयावह है कि फसल बर्बाद होने और कर्ज से डूबकर जान दे देने वाले किसानों के लिहाज से प्रदेश चौथे स्थान पर आता है. महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के किसान-समाज के साथ बदहाली में छग कदमताल कर रहा है. शहरों, खासतौर पर राजधानी की सूरत बदलने और बड़े ब्रांडो का आकर्षण केन्द्र बनने से ही प्रदेश की समृद्धि का समुचित आंकलन संभव नहीं है. समय की जरुरत है कि गांव-गांव तक समृद्धि पहुंचे और अंतर्राष्ट्रीय बड़े ब्रांड पूरे छत्तीसगढ़ के हर कोने पर अपने उत्पाद पहुंचाएं. प्रदेश में दो तस्वीर दिखाई न दे, इसके लिए बेहद जरुरी है कि किसानों, गांव के गरीबों को तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जिससे समृद्धि का समान बंटवारा हो.

बस्तर की पत्रकारिता और चुनौतियां

संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है, और पत्रकारिता ने तो भारत के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहित हर मोर्चे पर मुखरता से हस्तक्षेप करते हुए लोकतंत्र के प्रहरी होने की भूमिका का निर्वाह किया है. इस पेशे में बेबाकी और आलोचना प्रमुख तत्व हैं, और किसी भी संस्थान, सत्ता व अन्य क्षेत्रों को आलोचना सहने के लिए तैयार रहना चाहिए. इन दिनों बस्तर में पत्रकारिता को लेकर जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए शासन-प्रशासन के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन किसी भी दशा में यह मामला उत्पीडऩ तक पहुंच जाना और पत्रकारों का आंदोलित होना चिंता का विषय है. बस्तर में प्रशासन द्वारा पत्रकारों पर दबाव और उन पर आरोप लगाकर जेल भेज देने का मामला देश ही नहीं विदेशों तक चर्चा का विषय बन गया है और धुर-नक्सली क्षेत्र के खबरनवीसों के साथ सैकड़ों की संख्या में पत्रकार और बुद्धिजीवी आ खड़े हुए हैं. 
बस्तर में दो पत्रकारों की गिरफ्तारी के विरूद्ध जेल-भरो आंदोलन चल रहा है. बस्तर के पत्रकार संतोष यादव को नक्सली गतिविधियों में संलिप्त रहने के आरोप में अक्टूबर के महीने में गिरफ्तार कर लिया गया, तो जुलाई माह में एक अखबार के प्रतिनिधि सोमारू नाग को इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इन पत्रकारों पर ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत कार्रवाई की गई है, जिसे मानवाधिकार संगठनों टाडा और पोटा से भी खतरनाक कानून करार दिया है. इस अधिनियम का देश के नामी पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी ने छग की राजधानी में मुखर विरोध किया था. बस्तर नक्सली गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है और आए दिन यहां भयावह हिंसाचार होते हैं. आंदोलनरत पत्रकारों की मानें तो वहां के स्थानीय सक्षम अधिकारी अपने खिलाफ समाचार लिखने के कारण इन दो पत्रकारों पर वह कार्रवाई की है, वह भी उस कानून के तहत जिसे नक्सली समस्या से निबटने के लिए बनाया गया है. दूसरी ओर पत्रकारों के समक्ष बड़ी चुनौती यह भी है कि नक्सल संगठन के लोग भी पत्रकारों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनके खिलाफ कुछ न लिखा जाए, एेसा नहीं होने पर पत्रकारों को नक्सलियों से प्रताडि़त होना पड़ा और हत्याएं तक हुई हैं. वस्तुत: बस्तर की पत्रकारिता ‘इधर कुंआ उधर खाई’ जैसी है. 
सरकार ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस को इतने अधिकार सौंप रखे हैं कि उसका दुरूपयोग आसानी से किया जा सकता है. जबकि बस्तर जैसे इलाके में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष नीति बनाए जाने की जरूरत है ताकि वे खबरों का तथ्यपूर्ण संकलन सुरक्षित तरीके से कर सकें. यह इन बातों के मद्देनजर जरूरी लगता है कि 2013 में पत्रकार नेमीचंद जैन पर पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में जेल में डाला, वहीं श्री जैन की हत्या नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर कर दी. सांई रेड्डी की हत्या भी नक्सली हिंसा में जान गंवा चुके हैं. वस्तुत: यहां पत्रकार न सिर्फ बेहद असुरक्षित हैं, बल्कि प्रशासन व नक्सलियों के बीच पिस रहे हैं. पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करते हैं और प्राप्त तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकते. इस स्थिति में माओवादी और प्रशासन दोनों को ही आलोचना का शिकार होना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में पत्रकारिता की प्रवृत्ति लगभग यही है. एेसी स्थिति में बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में पत्रकारों को सुरक्षा की दरकार है, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकारों की जमात रहबरों पर विश्वास नहीं कर पा रही है. यहां बेहद जरूरी है कि प्रशासन संवेदनशीलता से काम करे और समाज के लोगों की सुरक्षा का दायित्व संभालने के साथ ही समाचारों के संकलन करने वालों से अन्याय न हो, यह भी सुनिश्चित करे. 

पीडि़तों को न्याय कैसे मिले?

त्तीसगढ़ में रसूखदार व्यक्ति अभिषेक मिश्रा की हत्या की गुत्थी पुलिस ने 44 दिन बाद सुलझा ही ली और आरोपियों के रूप में पकड़े गए लोगों में से सभी पीडि़त और भयादोहन का शिकार निकले. निजी कालेज समूहों में ऊंचा ओहदा रखने वाले शंकराचार्य के डायरेक्टर की हत्या बहुचॢचत फिल्म दृश्यम के तरीके से की गई. हत्याकांड की चर्चा में बहुत से विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं, जो समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र सहित पुलिस-तंत्र पर सवाल-दर-सवाल दागते नजर आते हैं. लंबे समय से ‘आपत्तिजनक जरूरतों’ के लिए लगातार भयावह प्रताडऩा के शिकार परिवार आखिर क्यों अपनी फरियाद लेकर पुलिस के पास नहीं गया और अपराध का प्रतिकार अपराध के जरिए करने विवश हुए? आमतौर पर पुलिस-तंत्र अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने और आम-नागरिकों को भयमुक्त जीवन देने के लिए होता है. लेकिन धरातल पर स्थिति उल्टी है. 
अगर ये कहा जाए कि अपराधियों को पुलिस का खौफ नहीं, बल्कि आम-आदमी के मन-मानस में पुलिस के प्रति डर की भावना है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. कतिपय पुलिस के जवानों, अधिकारियों ने अपनी हरकतों से एेसे वातावरण को बना दिया है, जहां अपराध और अपराधियों का संरक्षण होता है. समाज का प्रभुत्वशाली तबका मनमाफिक प्राथमिकी दर्ज कराने और पीडि़तों को थाने के स्तर पर न्याय से वंचित करने में सफल हो जाता है. आरोपियों के पक्ष में थाने में भीड़ का दबाव बनाना और समाज और राजनीति के क्षेत्रों के लोगों का किसी न किसी के पक्ष में सक्रिय होना रोजमर्रा की बात हो गई है. विवेचना में त्रुटि प्रभुत्वशाली वर्ग के आरोपियों में पक्ष में होती है वे और न्यायालय से बेदाग बरी हो जाते हैं. कुल मिलाकर पुलिस और समाज के बीच अविश्वास की खाई निरंतर गहरा रही है. यह बात दहला देने वाली है कि अभिषेक मिश्रा हत्याकांड का आरोपी कहता है, ऊंची पहुंच वाले व्यक्ति की पुलिस के पास शिकायत उल्टी पड़ सकती है और उनकी हत्या कराई जा सकती थी. 
जनता और पुलिस के बीच विश्वास कायम रखने संवाद स्थापित करने पुलिस मित्र योजना, ग्राम रक्षा समितियां, शांति समिति जैसे संगठनों का फिलहाल अस्तित्व ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इस तरह की कवायदें सामानान्तर पुलिस व्यवस्था बन आरोपियों-पीडि़तों के दोहन का जरिया बन गई थी. बहुचॢचत अभिषेक मिश्रा हत्याकांड ने तमाम सवालों पर नए सिरे से बहस की जरूरत को रेखांकित किया है कि आखिर कब तक लोग अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए तंत्र से ही भयभीत रहेंगे. पूरे देश में कमोबेश हालात यही है और सवालों के जवाब ढूंढने ही पड़ेंगे. प्रधानमंत्री की मौजूदगी में देश भर के पुलिस प्रमुखों ने मंथन किया, वहां भी पुलिस की छवि को लेकर चिंता जाहिर की गई. एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि अपराध का प्रतिकार अपराध न हो और पीडि़तों को न्याय मिले, यह सुनिश्चित हो. 

जीवन रक्षक दवाएं सर्व-सुलभ बने

ठंड, धूप, हवा, भूख, बीमारियां, भेदभाव नहीं करती. इनके लिए अमीर-गरीब मायने नहीं रखता. जिस सामाजिक ढांचे में हम रहते हैं, वहां विषमता की खाई इतनी गहरी है कि बीमारियों से मरने वालों की तुलना में उपचार न करा सकने वालों की मौत कई हजार गुनी अधिक है. निश्चित रूप से रोगग्रस्त होने के लिए कारण होते हैं, लेकिन वे सारे कारण हमारी व्यवस्था के अंदर ही देखे जा सकते हैं. गंभीर बीमारियों के लिए तो कारणों की तलाश अभी भी चिकित्सा विज्ञान के विद्वतजन अभी भी कर रहे हैं. देश में अब विश्वस्तरीय चिकित्सा सुविधाएं और दवाएं हर प्रमुख श्हरों में उपलब्ध हैं, लेकिन उसका लाभ सिर्फ सम्पन्न भारत के लोगों को मिल रहा है. कई दशकों से सरकारों ने जन-औषधि सुलभ कराने की योजनाएं बनाई है, जिसका क्रियान्वयन नीति और नीयत के अभाव में सहीं ढंग से नहीं हो सका. 
चीन के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है और अन्य उपभोक्ता सामग्रियों की तरह दवाईयों का कारोबार भी अरबों रूपए का है. दवा व्यवसाय में न्यूनतम मुनाफा सौ फीसदी से शुरू होकर अनंत की सीमा को छूता है. मूल-औषधि यानि जेनेरिक दवाइयों के मामले में भारत आज तक जरूरी आधारभूत संरचना और प्रयोगशालाओं का विकास-विस्तार नहीं हो सका है, फलस्वरूप विदेशी कंपनियों पर हमेशा से निर्भरता रही है. दवा कम्पनियां इस बात का लाभ लेते हुए अतिशय मुनाफा बटोरती हैं. ब्रांडेड दवाओं और जेनेरिक दवाओं के बीच मूल्य का अंतर हमेशा से सौ प्रतिशत से ज्यादा ही रहा है, फिर भी आक्रामक मार्केटिंग ने मरीजों ने सबसे महंगी दवाइयां लेने के लिए विवश किया. 
जन-स्वास्थ्य आंदोलन जैसी मुहिम, जो पुणे से बिलासपुर के गनियारी जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में फैली हैं, सस्ती चिकित्सा का मार्ग दशकों पहले से दिखा दिया है. अ.भा. आयुर्विज्ञान संस्थान में हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड ने कैंसर की दवाओं को 95 फीसदी तक सस्ती दर पर उपलब्ध कराकर फिर नई राह दिखाई है. केंद्र सरकार को एम्स के डायरेक्टर ने प्रस्ताव भेजकर रायपुर तक 60 से 90 फीसदी सस्ती दवाओं का आउटलेट खोलने की योजना बनाई है, इसकी जितनी भी सराहना की जाए कम है. यद्यपि जेनेरिक दवाओं का प्रचलन बहुत पुराना है लेकिन इसके बारे में दुष्प्रचार भी बहुत किया जाता है. यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जेनेरिक के नाम पर अमानक दवाओं ने भी अपना वर्चस्व बनाया है, जिसके कारण पेंडारी नसबंदी कांड में महिलाओं की मौतों समेत मोतियाबिंद आपरेशन के बाद आंखों की रोशनी जाने जैसे आंख-फोड़वा कांड भी हो चुके हैं. आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि मानक दवाओं को अमृत फार्मेंसी की तर्ज पर सर्व-सुलभ बनाया जाए ताकि कैंसर, हृदय रोग, किडनी रोग, फेफेड़े, गॉल ब्लेडर सहित अन्य बीमारियों के उपचार की लागत 8 से 10 लाख रूपए के स्थान पर डेढ़ लाख तक की जा सके. साथ ही साथ अमानक दवाओं के कारोबार को खत्म करने के लिए सभी कड़े कदम उठाए जाएं ताकि उपचार के नाम पर मुनाफाखोरों की हत्यारी मुहिम पर रोक लगाई जा सके. 

अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम जरूरी

भावनात्मक मुद्दों से भला नहीं होगा

राम मंदिर मुद्दे को स्थायी रूप से चुनावी औजार बनाने की मंशा साफ हो चुकी है. मामला अदालत में है और सभी पक्ष न्याय मंदिर की बात मानने का जिक्र करते हैं, लेकिन जब भी चुनाव की आहट होती है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश जैसे राज्य की बात करें तो बार-बार चर्चा शुरु हो जाती है. अयोध्या में शिला-पूजन, दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर मुद्दे पर सेमिनार के बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम नवमीं से हर गांव में राम मंदिर स्थापना का अभियान बनाया है. केन्द्र सरकार खामोश है, इसका साफ अर्थ है कि इस मुद्दे को चर्चा पर लाने में केन्द्र की भी सहमति है. प्रधानमंत्री अभी तक विदेशों व चुनावी सभाओं में बोलते आए हैं ओर ट्विट भी आमतौर पर देश से जुड़े मुद्दों पर नहीं करते. यह सहज संयोग नहीं है कि एकबारगी चौतरफा मंदिर निर्माण के मुद्दे को उठाया जा रहा है. 
यहां इस बात को जेहन में रखना जरुरी है कि जब भारतीय जनता पार्टी के संसद में सिर्फ 2 संसद थे तो लालकृष्ण आडवानी ने रथ बैठकर अयोध्या कूच किया, कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहा और देश में उन्माद के वातावरण ने अनगिनत शहरों में साम्प्रदायिक तनाव के साथ धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज की. फलस्वरूप राष्ट्रीय जनता पार्टी को 86 सीटें लोकसभा की मिली. ऐसे प्रयासों अल्प-जीवन होता है लेकिन जब इस दिशा में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक समरता को स्थायी जख्म ही मिलता है. भाजपा ने लगातार मुद्दे बदले, रणनीति बदली और जब विकास की बातें की तो एनडीए की पहली सरकार अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी. फिर क्यों देश के आर्थिक विकास और जनता को राहत देने वाले मसलों से किनारा कर भावनात्मक मुद्दों को उछालने की जरुरत आ पड़ी है?  आज देश के विकास गति ठहरी हुई है, जनता को राहत मिलना तो दूर उनकी कठिनाईयां बढ़ी हैं. रोजगार के अवसर दूर ही होते जा रहे हैं, किसानी सजा हो गई है और किसान आत्महत्या कर हैं. नतीजा, दिल्ली फिर बिहार में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गुजरात और महाराष्ट्र की ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में केन्द्र सरकार की नीतियों को मतदाताओं ने नकार दिया और भाजपा चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. 
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बेहद सुनियोजित तरीके से भावनात्मक मुद्दों को उठाया जा रहा है. राम अयोध्या के ही घर-घर में नहीं बसते, उसकी व्यापकता पूरे देश के जन मानस में है. पठन-पाठन, शोध के केन्द्र विश्वविद्यालय में अयोध्या और मथुरा-काशी की बात होने लगे तो सचेत हो जाने का समय है. देश अब फिर से साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा सहने के लिए तैयार नहीं है. देश के गांव, शहरों के किसानों और काम करने वालों को रोजगार की जरुरत है. नई पीढ़ी को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सर्वसमावेशी विकास चाहिए. ऐसी स्थिति में देश की सौहाद्र्र की परम्परा का अनुपालन करते सत्ता काम करे और एेसी कोशिशों को लगाम लगाने के लिए सचेत प्रयासों का भरोसा जनता को दे.

लिट्टी-चोखे पर टैक्स लगेगा?

देश के बाजार में विदेशी मिठाईयों को बनाने वाली वालमार्ट, मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट जैसे दैत्यों को तमाम सुविधाओं के साथ कारोबार करने की दावत और हमारी देसी मिठाईयों, समोसे पर लक्जरी टैक्स! वह भी उस राज्य में जहां के राजनेताओं के साथ नारों में समोसा शब्द दशकों से जुड़ा है. ठेठ गंवई अंदाज को अपनी राजनीतिक शैली बनाने वाले बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव की सत्ता में वापसी हुई है. तब भी और अब भी, उनके समर्थक नारे लगाते हैं- जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू. यह विडंबना ही है कि देशज व्यंजनों पर उन्हीं की कुदृष्टि पड़ी है. भारत निश्चित रूप से दो भाग में बंटा है और एक सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत का है जो बेहद अभाव, कष्टों के बावजूद अपने पारंपरिक व्यंजनों, आहार प्रणाली के सहारे खुश रहता है. 
उसकी क्रय सीमा सीमित है लेकिन वैविध्य का भंडार है. इस ग्रामीण भारत की चिंता बिहार में ही सबसे ज्यादा की गई है और हाल में संपन्न हुए चुनाव में नई आॢथक नीति व उदारीकरण सहित कार्पोरेट जगत के पैरोकारों को मतदाताओं ने परास्त कर अपने जैसे दिखने वाले देसी मिजाज के लोगों को पुन: शासन चलाने का दायित्व सौंपा. देश में सभी दल भारतीय परंपराओं की वकालत करते हैं, एक दल तो कुछ ज्यादा ही तरजीह देता है, लेकिन दिल्ली के घंटाघर के पास सुप्रसिद्ध सौ साल पुरानी मिठाई की दुकान बंद हो जाती है. ग्रामीण भारत की बेहतरी और उनकी परंपराओं की दुहाई में जुबानी जमाखर्च करने वाले राजनीतिक दल क्या सत्ता में आने के बाद देश के करोड़ों छोटे हलवाईयों, मिठाई वालों को बचाने का उपक्रम नहीं कर सकती? उत्तर सीधा न मिलेगा. राजकोष को भरने की होड़ में नए-नए रास्ते ढूंढे जा रहे हैं. मिठाईयों, समोसे, निमकी, कचौड़ी, चनाचूर गरम, भुजिया, दालमोठ, तले हुए आलू के चिप्स, नमकीन मूंगफली को लक्जरी आयटम घोषित कर दिया गया और इन पर 13.5 प्रतिशत टैक्स लेने का निर्णय ले लिया गया है. मतलब साफ है- इन पारंपरिक मिठाईयों-नाश्तों को आम-आदमी की पहुंच से बाहर करना और छोटे कारीगरों को बेरोजगार करना. इसका फायदा मैक-डोनाल्ड, पिज्जा हट, केएफसी आदि को देना लगता है, जिन्हें मान-मनुहार कर देश में लाया गया है ताकि कारोबार कर मुनाफा कमा सकें. क्या अब बिहार में अगला निशाना लिट्टी-चोखा भी होगा? इनकी भी दुकानें जहां-तहां मिल जाती हैं और घरों में भी यह नियमित रूप से बनाई जाती हैं. भारत वैविध्यपूर्ण देश है और उतनी विविधता हमारे खानपान में है. हर मोड़ पर भुजिया, समोसा और मिठाई की दुकानों से लोगों का पेट भरता है और करोड़ों लोग अपना घर-बार चलाते हैं. 
यह न सिर्फ परंपराओं, खान-पान की संस्कृति पर प्रहार है, बल्कि विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के मकसद से किया गया उपक्रम प्रतीत होता है. देसी और गंवई जनता का प्रतिनिधि बनकर ग्रामीण भारत पर अनावश्यक भार डालना किसी की दृष्टि उचित नहीं कहा जा सकता. भारतीय परम्पराओं को बचाने की कवायद में हमारे खान-पान की शैलियाँ भी शामिल हैं जिन्हें सुरक्षित रखना जरूरी है, लेकिन दुर्भाग्य से ठीक उल्टा काम किया जा रहा है.

जनता की आमदनी पर कैंची!

खबरें आ रही हैं कि केंद्र सरकार भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत पत्र पर ब्याज दरों को घटाने की तैयारी में है. यह खबर पुष्ट भले न हो, लेकिन नई आर्थिक नीति के जानकार इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि मौजूदा आॢथक माडल के विकास का एक आयाम जनता की आमदनी पर नियंत्रण करना भी है. अभी तक मिल रही सुविधाओं में कटौती पूंजी के केन्द्रीकरण के लिए जरूरी है. भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत पत्र सहित तमाम छोटी बचत योजनाओं का ताल्लुक सीधे देश के करोड़ों लोगों से होता है. अर्थशास्त्र की भाषा बहुत कठिन होती है, उसे समझना सबके लिए सहज नहीं है, लेकिन एक बात बहुत साधारण सी लेकिन महत्वपूर्ण है कि जो विद्वता और योजनाएं देश की जनता की कठिनाइयां बढ़ाए, उनकी आमदनी घटाए- वह किस काम का? देश में बहुत बड़ी आबादी गरीब और निम्न मध्य वर्ग से ताल्लुक रखती है. इनमें से भी एक छोटा समूह ही बचत योजनाओं के जरिए अपने आने वाले वर्षों की जरूरतों के ताने-बाने बुनता है. यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत जनता की बचत पर कैंची चलाने की कोशिश करता है तो लोक-कल्याण की भावना का विलुप्तीकरण हो जाता है. 
इस देश में सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में हैं, किसी निराश्रित या जीवन के चौथे चरण में पहुंचे लोगो को सरकार चार दिन की भी सुरक्षा देने में असमर्थ है, इस दशा में छोटी बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने का औचित्य समझ से परे है. बाजार के नियामक शक्तियों का अधिपत्य सरकार पर है और इनका दबाव उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देना है. वित्त मंत्रालय खास प्रोडक्ट के लिए खास रेट तय करने की योजनाएं बना रहा है, ताकि बाजार सरकार और सक्षम लोगों को लाभ मिल सके. गौरतलब है कि भारत में बहुसंख्यक लोग अभी भी उपभोक्ता नहीं हैं और उनकी क्रय क्षमता न के बराबर है. वे जरूरी रोजमर्रा की चीजों से इसलिये वंचित रहते हैं कि उन्हें खरीद भी नहीं पाते. दालों सहित तेल, सब्जी की मंहगाई बढऩे पर उसे अपनी थाली में शामिल करना छोड़ देते हैं. 
एेसी स्थिति में भारत को चीन के बाद सबसे बड़ा बाजार मानने में हर्ज नहीं है, तब भी लोगों को आॢथक रूप से मजबूत बनाएं बगैर उपभोक्ता नहीं बनाया जा सकता. भारत में कृषि हमेशा घाटे का सौदा रही है और कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करते हैं. देश की ग्रामीण आबादी सिर्फ मनरेगा और कृषि मजदूरी से जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी जुगाड़ पाती है. लगातार लोग अन्य राज्यों में विषम परिस्थितियों के बावजूद रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं. नौजवानों को काम की तलाश बनी हुई है. स्वास्थ्य सुविधाएं सबको सुलभ नहीं है. इन सब स्थितियों के मद्देनजर कर्मचारियों की भविष्य निधि और गाढ़ी कमाई के पैसे से की जा रही छोटी बचत योजनाओं के ब्याज पर कटौती की योजनाएं बनाना किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराई जा सकती. सरकारों को बाजार का विकास करना है तो देश के आम लोगों को आॢथक रूप से सशक्त करना होगा और सर्व-समावेशी योजनाओं के निर्माण पर ध्यान देना पड़ेगा. 

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जरूरी

सारी सीमाएं पार कर दी फिर निर्मम हत्यारों ने, बाचा खान विश्वविद्यालय में आतंकवादियों ने सीमांत गांधी को श्रद्धांजलि देते पाकिस्तान के भविष्य होनहार छात्रों के बीच घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर दो दर्जन से ज्यादा जानें ले लीं. ये वहीं क्रूरतम लोग हैं जो पेशावर के सैनिक स्कूल में डेढ़ सौ से ज्यादा मासूम विद्याॢथयों को मार डाला था, जिनका जनाजा उठाते पाकिस्तान के उनके अभिभावकों सहित विश्व के सभी शांतिकामी लोगों का कलेजा फटा जा रहा था. बाचा खान या बादशाह खान या सीमांत गांधी पेशावर से ही थे. बाचा खान महात्मा गांधी के समकालीन स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और सत्य के आग्रही होने के साथ शांति के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे. महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद भी सीमा के दोनों तरफ के लोग बादशाह खान से मिलकर अपनी साध पूरी करते थे. शांति के अग्रदूत की धरती खैबर-पख्तूनवा प्रान्त पाकिस्तान में बहुत अशांत है और आतंकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र भी. इस हिस्से में आतंकियों द्वारा निर्दोष छात्रों को लगातार निशाना बनाना अत्यधिक चिन्ता का कारण बन गया है.
 भारत के मुकाबले पाकिस्तान में कई गुनी आतंकी घटनाएं होती हैं और आए दिन आम-नागरिक मारे जाते हैं. भारत की घटनाओं के लिए भी पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों पर ही अंगुलियां उठती हैं और वहीं से प्रशिक्षित आतंकी आमतौर पर मारे या पकड़े जाते हैं. गौरतलब है कि हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी पाकिस्तान को आतंकवादियों का मददगार और पनाहगार देश के रूप में चिन्हित कर वहां के हुक्मरानों को चेतावनी दी कि अपना रवैया बदलें. भारतीय उप महाद्वीप सहित दक्षिण एशिया में आतंकी घटनाओं की वृद्धि चिंताजनक है ही, खुद पाकिस्तान इस आग से झुलस रहा है. भले ही बांग्लादेश सहित यह देश भारत का पड़ोसी हो गया हो, रिश्तेदारी सहित सांस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन में एक जैसे हैं. खून चाहे पठानकोट में बहे या पेशावर में दर्द दोनों तरफ के लोगों को एक जैसा होता है. यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि दोनों देशों के शासकवर्ग जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें तकलीफ देने वाले संगठित तंत्र का खात्मा करें. पाकिस्तान के शासक वर्ग हमेशा इस बात को दुहराते हैं कि भारत की अपेक्षा वे आतंकवाद से ज्यादा पीडि़त हैं. इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है, परंतु आतंकी दबाव समूह का नियंत्रण भी स्वीकार कर हर दृष्टि से ढिलाई बरती जाती है और क्रूरतम लोगों वहां प्रोत्साहन मिलता है, 
यह भी सच्चाई है. निश्चित रूप से पाकिस्तान में जम्हूरियत है और इंतखाब भी होते हैं. हुक्मरानों को वहां की बहुसंख्यक जनता, जो बाचा खान को दिल से चाहती है, वहीं चुनकर सत्ता सौंपती है. फिर क्यों मनुष्यता के दुश्मनों के दबाव में सरकार आती है? उन छात्रों को निशाना बनाया जाना किसी भी दृष्टि से असहनीय है जो नए विचार, ज्ञान, विज्ञान से देश के भविष्य को गढऩा चाहते हैं. अब बहुत हो चुका, अब तो सिर्फ इस बात का समय है कि सीमांत गांधी जैसे शंतिकामी महामानवों और आम-आदमी की सुनें और दहशतगर्दी को सभी अर्थों में खत्म करने अभियान चलाएं. 

भारत से विदेश जा रही पूंजी

भारत मेें पंूजी निवेश के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेशी दौरे किए. उन्होंने सभी देशों में व्यापारिक कूटनीति ही अधिक की और पूंजी निवेश के लिए विश्व के अनेक देशों के व्यवसायियों को आमंत्रित किया. इसके साथ ही उन्होंने भरोसा दिलाया कि उन्हें अनुकूल वातावरण मिलेगा. प्रधानमंत्री की कवायद का व्यापक पैमाने पर स्वागत भी हुआ, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा अवधि बीतने के बाद भी विदेशी निवेश की रफ्तार धीमी ही बनी हुई है. निश्चित रुप से इसका कारण घरेलू मोर्चे पर तैयारी का न होना है. यह विडंबना ही है कि इस मामले में ठीक उल्टी बात हो रही है. भारत की आर्थिक गतिविधियों का पल-पल का हाल देने वाले शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत पूंजी निवेशकों ने सिर्फ 7 महीने में 2 अरब डॉलर देश से बाहर भेज दिया. वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व पिछले दो दशक से बढ़ा है. इसके साथ ही भारत विदेशी निवेशकों के लिए सबसे पसंदीदा स्थान रहा है. 
साल भर पहले तक रेमिटेंस की रकम भारतीय रिजर्व बैंक ने सवा लाख डॉलर निर्धारित की थी, जो जुलाई 2015 से ढाई लाख डॉलर कर दी गई. इसके बाद संस्थागत विदेशी निवेशकों द्वारा पैसे विदेश भेजने की रफ्तार तीव्र गति से बढ़ी और 66.5 करोड़ से बढक़र 2 अरब डॉलर तक जा पहुंची. इसका जबर्दस्त असर रुपये की सेहत पर पड़ा है. आमतौर पर शेयर बाजार से वित्तीय पूंजी निकालने से मुद्रा कमजोर होती है, लेकिन विदेश भेजी जाने वाली रकम ज्यादा ही असर डाल रही है. रिजर्व बैंक द्वारा रेमिटेंस स्कीम में ढील दिए जाने के पीछे व्यावसायिक रुप से उदार बनना था, परन्तु विदेशों में रहने वाले भारतीय निवेशक अपना पैसा तेजी से वापस मंगा रहे हैं. 
इसके अतिरिक्त एनआईआर अपनी परिसम्पत्तियां भी बेच रहे हैं तथा टैक्स संबंधी मुश्किलों की आशंका के चलते भारत में पैसा लगाने से भी कतरा रहे हैं. शेयर बाजार सहित भारत में तमाम तरीके से निवेश की जरुरतों से किसी को इनकार नहीं है. यदि धरातल पर स्थिति विपरीत दिखाई देती है, तो भारत के नीति नियंताओं को इसकी समीक्षा करने की जरुरत है. यह भी सच है कि नई सरकार के गठन के बाद गंभीरता से काम सिर्फ उद्योग जगत के लिए हुआ है और वह भी देश की सवा सौ करोड़ आबादी की दुश्वारियों की कीमत पर. आश्चर्यजनक बात है कि इसके बाद भी भारत में निवेश और औद्यौगिक विकास का मामला एक कदम आगे बढऩे की बजाय दो कदम पीछे हटता दिखाई देता है. वास्तव में ऐसे कदमों के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते और पक्ष में अनेक तर्क गढ़े जा सकते हैं. लेकिन अब मूल्यांकनकर्ता सतर्क हो गए हैं और रणनीति के खोखलेपन को महसूस कर रहे हैं. यह भी उतना ही सच है कि देश में आबादी के समूचे हिस्से को उनके हक की खुशहाली नहीं मिली है, जनता की आर्थिक ताकत ही देश के शेयर बाजारों को परवान चढऩे देने और विकास को गति देने के लिए पर्याप्त होगी.

‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय

भारत में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. 
यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. 
मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.

पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है

छत्तीसगढ़ की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? 
सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. 
मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है? दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है.
आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.

यमुना की भी चिंता जरुरी

सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है और गंगा-जमुनी तहजीब का भी. धार्मिक परम्पराओं में नदी का विशेष महत्व है. स्नान, कर्मकांड, विशाल मेले, कुंभ आदि सब नदियों के तट पर ही होते हैं. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि प्राचीन परम्पराओं के निर्वाह के नाम पर हम प्रकृति की रक्षा के दायित्व से मुकरते भी रहे हैं. इन्हीं बातों पर बहस के साथ अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का भव्यतम आयोजन दिल्ली में यमुना तट पर आरंभ हो गया. 
विश्व संस्कृति महोत्सव कराने के पीछे कारण यह बताया गया है कि श्री श्री की संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं और भारतीय संस्कृति और भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर है. आयोजन के लिए देश की राजधानी और यमुना तट का चयन ही विवाद का कारण बना. पिछले कई दशक से नदियों की दुर्दशा और गंदगी पर चिंता जताई जा रही है. एनडीए की वाजपेयी सरकार ने नदियों को जोडऩे की योजना बनाई थी, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पवित्र नदियों खासतौर पर गंगा की सफाई के लिए विशेष योजना बनाई है. प्रधानमंत्री ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी प्रस्तुत की है. ऐसी स्थिति में जब वाकई संस्कृति, सभ्यता की धरोहर नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो तो यह भी जरुरी है कि हम अपनी आस्था, उत्सवधर्मिता को व्यक्त करने का तरीका बदलें. तटों को लेकर सावधानी बरतने की चिंता से ही नदियों का भला नहीं होगा. 
श्री श्री के आयोजन को लेकर जिस तरह की चिंताएं व्यक्त की गई, उसमें यमुना के डूब वाले भूकम्प और बाढ़ की दृष्टि के संवेदनशील इलाके शामिल हैं. इसके अलावा किसानों की फसल काटकर जमीन के इस्तेमाल से लेकर विभिन्न अस्थायी निर्माण कार्य सहित तट पर बने शौचालयों से यमुना के प्रभावित होने की आशंका है. आयोजक पर्यावरण व यमुना नदी की हानि की संभावना से इंकार कर रहे हैं, जबकि इन तर्कों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल सहमत नहीं है और पांच करोड़ रुपये के जुर्माने के साथ कार्यक्रम की अनुमति दे दी. सवाल यह भी है कि अनुमानित 35 लाख लोगों की भागीदारी वाले आयोजन से संभावित पर्यावरण की क्षति को पांच करोड़ रुपये से कैसे बचाया जा सकता है. किसी भी आयोजन के पूर्व और बाद की स्थिति में नुकसान हमेशा चिरस्थायी होता है. केन्द्र सरकार की ओर से कहा गया है कि श्री श्री का आयोजन सांस्कृतिक विविधताओं का उत्सव है, यह भारत को प्रसिद्धि दिलायेगा, अत: इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए. अन्य तर्कों में यह भी शामिल है कि कुंभ जैसे आयोजन के लिए सेना की मदद ली जाती है तो पुल बनाने पर आपत्ति क्यों? मामला तर्क-वितर्क का नहीं, पक्षधरता का है. सरकारों पर यह जिम्मेदारी आयद होती है कि भारत को प्रसिद्धि भी मिले और समय की जरुरतों का ध्यान भी रखा जाये. पर्यावरण से लेकर विश्व के सभी देशों सहित भारत भी चिंतित है, इस लिहाज से कोई अन्य बेहतर स्थल का चयन भी हो सकता था. बहरहाल बॉलीवुड स्तर के चकाचौंध के साथ विविधताओं का उत्सव आरंभ हो चुका है, आनंद लें, पर्यावरण की चिंता भी होती रहेगी.

मिले इंसानी हक

हर साल की तरह रस्मी आयोजनों के साथ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस गुजर गया और तमाम सवाल जहां के तहां पड़े रह गए. मई दिवस की तरह संघर्ष की कोख से जन्मे इस दिवस को महिलाओं के साथ गैर-बराबरी और प्रताडऩा के खिलाफ जागरण और संघर्ष का हथियार बनाया गया था. अब यह दिवस बाजार के हवाले होता जा रहा है. गहनों-कपड़ों पर भारी छूट सहित सौन्दर्य उत्पादों पर शानदार ऑफर देकर बाजार अपना हिस्सा मांगता है. किन्हीं उपलब्धियों को लेकर कतिपय महिलाओं का सम्मान किया जाता है तो संसद से लेकर शहरों के सभागृहों तक मातृ-शक्ति का गुणगान किया जाता है.
 इस साल भी बातें अलग नहीं थीं. 1908 में अमेरिका के कपड़ा कारखाने की हड़ताल से लेकर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर रोटी और शांति की मांग को लेकर रूसी महिलाओं के जुलूस की एेतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर महिला दिवस स्त्रियों की अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक है और मातृशक्ति से इंसानी वजूद हासिल करने का संघर्ष है. भारतीय संदर्भों में यह दिवस बहुत ही औपचारिक है. अभी भी संसद में महिला आरक्षण बिल लटका हुआ है और इस अध्यादेश में पेंच फंसाने वाले पुरूष प्रभुत्व समाज के प्रतिनिधि ही हैं जो स्त्री के दोयम दर्जे पर रखने के हामी हैं या उन पर बलात्कार जैसी भयावह प्रताडऩा के लिए दोषियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए लड़कियों को ही सुधर जाने की हिदायत देते हैं. कानून से लेकर समूची व्यवस्था इस कदर सड़ चुकी है कि उत्पीडऩ की शिकार महिला थक-हारकर जुल्म से लड़ते हुए खुद को मिटा डालने पर विवश हो जाती हैं. 
मध्यकालीन मूल्यों से मस्तिष्क इस तरह जकड़ा हुआ है कि महिलाओं को पुष्ट-बलिष्ठ बनाने की जगह जीरो फिगर की ओर प्रेरित कर कुपोषित-कमजोर बनाए रखने की कोशिश की जाती है ताकि उस पर अधिकार कायम रहे. महिलाओं के उत्पीडऩ की स्थिति यह है कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 फीसदी किशोरियां यौन हिंसा का शिकार बन जाती हैं तो दूसरी ओर इसी उम्र समूह की आधी से ज्यादा लड़कियां अपने माता-पिता के हाथों शारीरिक प्रताडऩा झेलती हैं. भारत में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को विदेश से भी आने वाली महिलाओं ने महसूस किया है, भारत को शानदार देश लेकिन महिलाओं के लिए बेहद असुरक्षित करार दिया है. महिला दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया है, लेकिन समूचे विश्व में लैंगिक समानता का प्रश्न ठिठका हुआ है. 
भारत में महिलाओं के प्रति कितनी गंभीरता है इस बात का अंदाजा प्रधानमंत्री के भाषण से भी लगाया जा सकता है जो उनके सशक्तिकरण, नेतृत्व क्षमता सहित मल्टी टास्ंिकग प्रतिभा का जिक्र करते हैं, लेकिन संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे पर मौन साध लेते हैं. महिला दिवस पर आज की सबसे भीषण समस्या यौन ङ्क्षहसा है. इसके खिलाफ पहलकदमी की जा सकती थी, लेकिन यह प्रमुख चर्चा का विषय भी नहीं बन सकी. महिलाओं को सम्मान, स्तुतिगान की जरूरत नहीं है बल्कि उन्हें असमानता और प्रताडऩा से मुक्ति की दिशा में ठोस समाधान चाहिये. आशावान होने की जरूरत है कि एक दिन यह लक्ष्य हासिल करने निर्णायक संघर्ष होगा और विवशताएं खत्म होंगी.