रविवार, 13 मार्च 2016

‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय

भारत में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. 
यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. 
मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.

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