बुधवार, 11 मई 2016

शिक्षक की पुनर्बहाली जरूरी

भ्रष्टाचार के विरूद्ध जंग जनता लड़े

भ्रष्टाचार का जहर देश के रग-रग में समाया हुआ है और तमाम उपाय अभी तक नाकाफी ही साबित हुए हैं. जिम्मेदार देशवासियों सहित न्यायपालिका भी इस जानलेवा विषबाधा की गंभीरता से परिचित है. इसी का परिणाम है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने नाराजगी की चरम सीमा में जाकर भ्रष्टाचार को ‘बड़े सिर वाला राक्षस’ करार देते हुये नागरिकों से सीधा संवाद किया, साथ ही सलाह भी दी कि अब एकसाथ आकर अपनी सरकारों को बताएं कि सारी सीमाएं टूट चुकी हैं, भ्रष्टाचार की सड़ांध खत्म हो ही जानी चाहिए और सरकारों को विवश करने नागरिक असहयोग आंदोलन चलाएं, टैक्स देना बंद कर दें. लोकशाही अण्णा भाऊ साठे विकास महामंडल में 385 करोड़ रूपये के गबन की सुनवाई के दौरान न्यायपालिका की यह झल्लाहट वस्तुत: देश के हर नागरिक के आक्रोश की अभिव्यक्ति है. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा से आवाजें उठती रही हैं, लेकिन समाज के प्रति दुराचरण प्रभु-वर्ग के लिए आभूषण बन गया और सिस्टम का हिस्सा बनाने की कोशिशें चलती रही हैं. हर स्तर पर भ्रष्टाचार की बातें आम बात है और तंत्र में शामिल लोगों के लिए हर आम और खास को लूटना धर्म तथा पीडि़तों के लिए नियति बन गई. इस नासूर के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर गोलबंदी अण्णा हजारे ने की, जो महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ गांधीवादी तरीके से युद्ध के प्रतीक बन गए थे. दिलचस्प बात है कि देश का चप्पा-चप्पा, हर गांव, हर शहर आंदोलन से जुड़ा और लोगों को मुखर मंच मिला. कहीं न कहीं से शुरूआत की बात उठी और सरकारी स्तर के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन-लोकपाल की मांग पर जोर दिया गया. इस आंदोलन में व्यवस्था पर सवाल उठाए गए और तंत्र में सुधार के लिए अरङ्क्षवद केजरीवाल ने राजनीतिक दल बनाने के साथ दिल्ली में सरकार भी बना ली. ये दोनों पड़ाव थे भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के, लेकिन कष्टप्रद प्रक्रिया और इसके अंतर्विरोधों ने आंदोलन की निरंतरता खो दी और दिल्ली में मामला सिर्फ उम्मीदों तक सीमित है. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा इस साल के लिए जारी भ्रष्ट देशों की सूची में भारत को 76 वें स्थान पर रखा गया है, इस लिहाज से स्थिति सुधरी हुई दिखाई देती है. परन्तु सच्चाई यह है कि सर्वेक्षण के लिए बनाए गए मापदंडों में भारत वहीं का वहीं खड़ा है और दूसरे देशों के ज्यादा भ्रष्ट होने की मेहरबानी के चलते हम अपनी स्थिति में सुधार महसूस कर रहे हैं. यह बेहद हास्यास्पद और गंभीर स्थिति है. राजनीतिक दलों सहित संसद और सत्ता केंद्रों को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में हमेशा से अरूचि रही है, इसलिए संबंधित कड़े कदम किसी भी स्तर पर उठते दिखाई नहीं पड़ते. उल्टे हर कदम पर भ्रष्टाचार की बू आती है. एनडीए सरकार ने पारदॢशता को लेकर जितनी ऊंची उम्मीदों के साथ काम करना शुरू किया था, पारदॢशता की स्थिति बनाने में उतनी ही फिसड्डी साबित हुई है. न्यायपालिका की टिप्पणी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हर स्तर पर पोल खोल दी है और इस तल्खी ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध जनता के मिजाज को मुखर अभिव्यक्ति दी है. 

कारोबार जगत में पस्त होते दिग्गज

कारोबार की दुनिया में भयानक युद्ध होता है और कोई योद्धा किसी दिग्गज को धराशायी कर, उसको अपने अधीनस्थ बना मध्ययुगीन दृश्यों को ताजा कर देता है. आज कारोबार जगत और उसकी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले उत्तेजित और उद्वेलित हैं. सिर्फ पांच महीने पहले कारोबार के मैदान में उतरी अल्फाबेट, महाकाय एप्पल को पछाडक़र दुनिया की सबसे मूल्यवान कम्पनी बन गई. वैश्विक बाजार वित्तीय पूंजी और तकनालॉजी का दिलचस्प और बेरहम अखाड़ा बन गया है. वित्तीय पूंजी के वर्चस्व और मार्केटिंग की रणनीति हमेशा से चौकाती रही हैं. 
यह घटना पहली बार नहीं हुई है, इससे पहले भी बड़े उलटफेरों में माइक्रोसॉफ्ट ने आईबीएम को परास्त करने का कारनामा दिखाया था, तो एप्पल ने माइक्रोसाफ्ट को 2010 में पटखनी दी थी. इसी एप्पल को उम्र के लिहाज से एक शिशु कम्पनी के हाथों मात खाना, वाकई हैरतअंगेज और मानीखेज है. आज बाजार की ताकतों का वास्तविक नियंत्रण शेयर बाजारों में होता है और सोमवार को अमेरिकी बाजार की भारी खरीद-फरोख्त ने दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन और तकनालॉजी कम्पनी गूगल को अल्फाबेट के अधीन कर दिया. अपने लांच के साथ ही गूगल की मोबाइल आपरेटिंग सिस्टम एंड्रायड दुनिया में नंबर एक बन गई थी, लेकिन एप्पल जब सैमसंग के साथ मुकदमें में फंसी तो नवीनतम तकनीक देने में पिछड़ती रही. कुल मिलाकर स्थिति यह है कि आज का उपभोक्ता, बाजार से प्रतिदिन नवीनतम की मांग करता है और नया न दे पाने की स्थिति में बाजार पुरानी कंपनियों को पीछे धकेल देता है, नए दिग्गज आ जाते हैं. 
कारोबार जगत का लक्ष्य अकूत मुनाफा कमाना होता है लेकिन इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसे हर क्षण मेहनत करनी पड़ती है. यदि किसी बड़ी सफलता और काम को लंबे समय के लिए भुनाने की कोशिश करें तो अर्श से फर्श पर आ जाने में देर नहीं लगती. नए उद्योगों की सफलताओं की कहानियों में अल्फाबेट मील का पत्थर है तो भारत जैसे विकासशील देशों के उद्यमियों के बीच उम्मीद का संचार भी करता है. कारोबार जगत में ऊंचाइयां हासिल करने के लिये नवीनतम ज्ञान और तकनीक का सतत प्रवाह जरूरी है. नए उद्यमियों के लिए प्रधानमंत्री द्वारा घोषित स्टार्टअप योजना जहां ठोस आधार प्रदान करती है तो अल्फाबेट सहित पहले की कम्पनियों की गतिविधियां आगे बढऩे और उस तरह गलतियां न करने की हिदायत देती हैं. साथ ही सावधान भी करती है कारोबार जगत का ‘मत्स्य-न्याय’ उन्हें अस्तित्वहीन भी कर सकती है. भारत में सफलताओं की ढेरों कहानियां हैं. 
ऑनलाइन व्यापार के क्षेत्र में एक कमरे से शुरू हुए उद्यम अमेरिकी कम्पनियों को भी डराने में सक्षम हैं, लेकिन आजू-बाजू की छोटी कम्पनियों को उदरस्थ करने में भी माहिर होती जा रही हैं. किसी बने बनाए रास्ते पर चलने की जगह नई राह बनाने वाली स्थिति ही कारआमद साबित होती है. सब कुछ अनिश्चित होने के बाद भी यह कारोबार जगत की सच्चाई है कि स्थिरता के लिए नए ज्ञान नई तकनालॉजी के साथ नवीनतम मार्केटिंग पद्धति जरूरी अवयव हैं. इसके बाद मध्ययुगीन युद्धों के परिणाम की तरह कभी भी जीतने, गुलाम होने या मारे जाने के लिए तैयार रहना होता है. 

गरीब-वंचित तबकों में बढ़ रहा तनाव

छत्तीसगढ़ के संतुष्ट, निश्छल जीवन का राज यह माना जाता है कि यहां तमाम अभावों के बाद भी लोग तनावग्रस्त नहीं रहते. यह बात अब बीते जमाने की हो गई है. शहर ही नहीं, बल्कि सुदूर ग्राम्यांचल तक अब तनाव पसरा हुआ है. समाचारों के अवलोकन के समय सबकी जान हलक पर इसलिए आ जाती है क्योंकि उनमें बुजुर्ग मां को बेटी ने जहर देकर फांसी लगा ली, 35 वर्षीय युवक दिलीप विश्वकर्मा ने फांसी लगाकर जान दे दी, पत्नी ने दुख में कलाई काट ली, दो बहनों और भाई ने फांसी लगाकर खुदकुशी की -जैसे समाचार शामिल होते हैं. ये घटनाएं सिर्फ आज की हैं लेकिन इस तरह की हृदय-विदारक वारदातों को रोज अंजाम दिया जा रहा है. आखिर वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से तनावग्रस्त होकर लोग अवसाद की स्थिति में पहुंचकर आत्महत्या के लिए विवश होते हैं. निश्चित रूप से किशोरवय छत्तीसगढ़ के लिए यह बेहद संवेदनशील मामला है. बहुमूल्य जीवन को खत्म करने की प्रवृत्ति शहरों तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी व्याप्ति गांव-गांव तक है. छत्तीसगढ़ राज्य बनने के साथ विकास की अपनी अपेक्षाएं थी, और उस दिशा में काम भी हो रहा है लेकिन तनाव और अवसाद की स्थिति साफ इंगित करती है कि विकास में हिस्सेदारी गरीब और वंचित तबके की अभी तक सुनिश्चित नहीं हो पाई है. इस तरह की प्रवृत्तियों के लिए सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक स्तर पर समग्र रूप से पड़ताल करने की आवश्यकता है. तीनों ही स्थितियां बहुत गहरे तक एक दूसरे से जुड़ी हैं. छग जैसे छोटे राज्य का निर्माण ही इसीलिए हुआ है कि बेहतर शासन-प्रशासन यहां के आम-आदमी को उन्मुक्त सामाजिक जीवन, बेहतर आॢथक परिस्थिति और स्वच्छ राजनीतिक माहौल उपलब्ध कराए. दुर्भाग्य से इन सभी मोर्चों पर अभी तक सकारात्मक काम नहीं हो पाया है. छग के बड़े हिस्से में अभी तक उद्योग-धंधों का विकास नहीं हुआ है, जहां रोजगार की संभावनाएं है वहां मेहनत करने वालों को सुरक्षा की गारंटी नहीं है. श्रम कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जा सका है. गांव के खेतिहर मजदूरों को रोजगार और कृषि को फायदे का व्यवसाय बनाना तो दूर उनकी हालत बदतर ही हुई है, जिसका परिणाम कर्ज में डूबे और अकाल से त्रस्त किसानों की सिलसिलेवार आत्महत्या के रूप में सामने आ रही है. नौजवानों को रोजगार नहीं मिल रहा है, विद्याॢथयों को वांछित शिक्षा भी नहीं. स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम से भी प्रदेश पिछड़ा हुआ है. स्मार्ट कार्ड की सुविधा के बावजूद भी गंभीर मरीज के सामने पूरा परिवार असहाय होता है और बेटी विवशता में मां को जहर देकर खुदकुशी कर लेती है. आॢथक मोर्चे का तनाव घर तक आता है और जब सब रास्ते बंद मिलते हैं तो सामूहिक आत्महत्या जैसी घटना सामने आ जाती है. निश्चित रूप से यह तस्वीर हृदय विदारक ही नहीं, बेहद चिंता का विषय है. आखिर क्यों गरीब और वंचित तबके में तनाव बढ़ रहा है? इसके सामाजिक-आॢथक-राजनीतिक कारणों की पड़ताल और तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है. समाज और सरकार को व्यापक और दूरंदेशी नजरिए से इस मुद्दे को संबोधित करने की जरूरत है. 

पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है?

छत्तीसगढ़ की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, 
व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है?
 दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है. आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.

‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय

भारत में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.

सम्पत्ति कर में भारी वृद्धि औचित्यहीन

प्रदेश के नगरीय निकायों में सम्पत्ति कर में एकमुश्त पचास फीसदी की बढ़ोतरी से लोग उद्वेलित हैं और राजनीतिक दल आंदोलित. आखिर बीस साल बाद एकमुश्त बढ़ोतरी का औचित्य क्या है? इस सवाल से आम और खास सभी परेशान हैं. यहां यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि प्रदेश के नगरों को आबंटित राशि का पूरा उपयोग न होने और नियोजित विकास के अभाव में केंद्र सरकार द्वारा जारी सूची में छत्तीसगढ़ के किसी भी शहर को स्मार्ट सिटी के दायरे में नहीं रखा गया है. इस बात से किसी को भी इनकार नहीं है कि प्रदेश के शहरों के विकास और विस्तार की जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके स्वत: की स्त्रोतों से आमदनी बढऩी चाहिए, लेकिन सवाल यह भी है कि एकमुश्त वृद्धि क्यों? 
यह सर्वविदित है कि राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव जैसे मौैकों को ध्यान में रखकर जनता पर पडऩे वाले भार को टाल दिया जाता है. इसके साथ ही यह भी कहना गलत नही हैं कि अचानक दी गई रियायतों को मुफीद समय पर ब्याज समेत वापस लेने की परंपरा सिर्फ परेशान करती है. यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि शहरों में रहने वाले नागरिकों से लगातार करों के जरिए वसूल की जाने वाली राशि का सदुपयोग होता है या नहीं? 
क्या शहर का मतलब गौरवपथ में करोड़ों रूपए फूंक देना और गलियों का टूटा फूटा होना तो नहीं? मुख्य मार्गों पर झिलमिलाती रोशनी और मोहल्लों में अंधेरा तो नहीं? यह भी तथ्य छिपा नहीं है कि आए दिन साफ-सफाई के नाम पर करोड़ों रूपए की मशीनें खरीदी जाती हैं और फिर उसका स्थान सिर्फ कबाडख़ानों में होता है. जनता से कर के रूप में वसूली की जाने वाली राशि से इस भयावह दुरूपयोग की अभी तक किसी जवाबदेही तय की गई होगी, एेसा कोई प्रसंग सामने नहीं आया है. अभी भी शहरों में रहने वालों को पीने का साफ पानी नगरीय निकाय उपलब्ध नहीं करा पाए और राजधानी रायपुर सहित छग के शहरों में प्रदूषित जल के कारण पीलिया व उल्टी दस्त की बीमारियां महामारी के रूप में प्रकट होती हैं. नगरीय निकायों के द्वारा जनता की सम्पत्ति का सदुपयोग आखिर कैसे हो, इस प्रश्न पर कार्य-नीति के अभाव ने अभी तक करदाता नागरिकों को बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा है और चौक-चौराहों सडक़ों के सौंदर्यीकरण से ठेकेदारों की पौ-बारह ही ज्यादा होती रही है. संपत्ति कर देने के मामले के मामले में आम शहरी तो अपना दायित्व निभाता है लेकिन प्रभुत्वशाली लोग औने-पौने राशि देकर अपना काम निकाल लेते हैं.
 यह सुनिश्चित करना फौरी जरुरत है इस तरह का भेदभाव न हो और समान रूप से टैक्स वसूली हो. निश्चित रूप से एकमुश्त सम्पत्ति कर बढ़ाने के औचित्य पर सवाल उठाना अनुचित नहीं है साथ ही प्रदेश के विपक्ष को भी इस बात की जिम्मेदारी लेनी होगी कि शहरों की दुर्दशा के हिस्सेदार वे भी रहे हैं. विकास के लिए कोष चाहिए लेकिन उसे धीरे-धीरे बढ़ाना था साथ ही धन राशि के सदुपयोग और जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा के दायित्व को भी निभाना था. 

लोकतंत्र को तार-तार न होने दें

‘गण’ से ही सशक्त बनेगा ‘गणतंत्र’

नेताजी पर अवांछित राजनीति न हो

बहुप्रतीक्षित दस्तावेजों के जारी होने के बाद अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर कई तरह की बातें आ रही हैं. पं. जवाहर लाल नेहरू की 1945 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर कांग्रेस-भाजपा के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी शुरू हो गया है. सारी घटनाओं को उसके परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है. दूसरे विश्वयुद्ध में दुनिया दो हिस्सों में बंट गई थी, एक ओर जर्मनी के नेतृत्व में धुरी-राष्ट्र जिसमें इटली जापान आस्ट्रिया प्रमुख थे, दूसरी ओर ब्रिटेन के नेतृत्व में रूस, फ्रांस आदि थे. अमेरिका बाद में मित्र राष्ट्रों के साथ आया, भारत शुरू से इसमें शामिल नहीं था. गांधीजी ने जब युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने का एलान किया और भारतीय नौजवानों की फौज में भर्ती करवाई. कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवादी के विरोध के नाम पर भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया परंतु व्यक्तिगत रूप से बहुत से कम्युनिस्ट भारत छोड़ो आंदोलन में कूदे.
चूंकि भारत मित्र राष्ट्रों में था इसलिए जापान या जर्मनी से सहायता लेकर ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध लडऩा, परोक्ष रूप से फासीवाद का समर्थन था जबकि सुभाष बाबू घोषित रूप से फासिज्म के खिलाफ थे और इसीलिये हिटलर से उन्हें कोई बड़ी सहायता नहीं मिली, हां, एक जापानी जनरल ने आजाद हिंद फौज को ट्रेनिंग और असलहा दिया था. बाद में स्तालिन ने सुभाष बाबू को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नायक मानकर उन्हें रूस आने की इजाजत दी. फासिस्टों पर न्यूरेमबर्ग में मुकदमा चला जिसमें जीवित मृत सभी प्रमुख फासिस्टों के नाम हैं. सुभाष बाबू उनमें नहीं थे, 
इसका मतलब यह है कि उन्हें युद्ध अपराधी नहीं माना गया. कांग्रेस पार्टी उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मानती रही है. दस्तावेज आने से धुंध ही छंटनी ही चाहिए और कम से कम उन्हें कांग्रेस के बहाने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन को कटघरे में खड़े करने का अधिकार नहीं है जो उसमें शामिल ही नहीं थे. वस्तुत: नेताजी आजादी दिलाने के पक्षधर थे, जिसमें सैन्य, आॢथक और आजादी शामिल थी. नेताजी कांग्रेस के गरम दल के नेता थे और हथियारबंद का युद्ध का आव्हान करते थे. इसी बात पर महात्मा गांधी से उनके मतभेद हुए. 
इस मुद्दे पर किसी को राजनीतिक लाभ के लिए लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती. वस्तुत: इतिहास के नायकों को इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय धुरी राष्ट्रों के कहर से दुनिया थर्रा उठी थी. दिलचस्प बात है कि गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि की हैसियत से फ्रांस के प्रधानमंत्री भारत आ चुके हैं और यही फ्रांस फासीवादियों का सबसे अधिक उत्पीडऩ बर्दाश्त करने वाला देश था. इसी का परिणाम है कि फ्रांस सेक्युलरिज्म का सबसे आदर्श उदाहरण है जो धर्म को राजनीति से दूर रखने के विचारों को अमली जामा पहनाता है. जबकि भारत में असहिष्णुता, साम्प्रदायिक विचारों से प्रेरित हिंसात्मक व्यवहार, फसाद आदि सबसे बड़ी चुनौती हैं. जरूरत इस बात की है कि नेताजी के नाम से राजनीति करने की जगह उनकी विचारधारा और धर्म-निरपेक्षता से केन्द्र सरकार और सभी दल सहमत होकर आचरण करें. 

महा-मंदी की आहट और भारत

समूचे विश्व में विकास का पहिया थम सा गया है और बुद्धिमान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक फिर से दुनिया सन 2008 जैसी मंदी के मुहाने पर आ खड़ी हुई है. स्विटजरलैंड के दावोस में सभी देशों के दिग्गज चिंतित हैं और मंदी के भयपूर्ण वातावरण से मुक्त होने के उपायों पर चर्चा कर रहे हैं. बीसवीं सदी के आरंभ से ही वैश्विक स्तर पर मंदियों का सिलसिला चलता ही रहा है और दुनिया को नए सिरे से बांटने के लिए विश्व युद्ध भी हुए हैं. आज परिस्थितियां पहले से बहुत अलग हैं और व्यावसायिक वैश्वीकरण और मुक्त-व्यापार की स्थितियों ने किसी भी देश को परेशानी से बचे रहने की गुंजाईश ही नहीं छोड़ी है. अब विकसित देशों में एेसी प्रणाली विकसित की है जिसके तहत देश अपनी विशिष्टताओं को छोडक़र वैश्विक आॢथक प्रणाली की कतार में जा खड़ा हुआ है. भारत अभी भी विकासशील देश है. जब आजादी के बाद भारत के आॢथक भविष्य गढऩे की बात उठी तो दो-ध्रुवीय विश्व की विशेषताओं को अपनाने का निश्चय कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव रखी गई. सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना समाजवादी देशों की तर्ज पर की गई और आज भी यही क्षेत्र देश की आॢथकी की रीढ़ है. सन 1997 या 2008 की वैश्विक महा-मंदी का असर भारत में इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र बाजार की ताकतों के हाथ में नहीं थी. यह बात निश्चित रूप से देश के सत्ताधारी वर्ग और अर्थजगत के विद्वानों को मालूम है लेकिन नई आॢथक नीति व उदारीकरण ने अब सार्वजनिक क्षेत्र को धीरे-धीरे बाजार के हवाले कर दिया और इनकी तकदीर वैश्विक वित्तीय पूंजी और शेयर बाजार के अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव ने लिखना शुरू कर दिया. दावोस में जिन बातों पर चिंता की जा रही है उनमें चीन के विकास दर का पिछले 25 साल में सबसे कम होना, युआन के अवमूल्यन से दुनिया भर के व्यापार का लडख़ड़ाना, तेल की कीमत का एक साल के दौरान के 70 फीसदी तक गिर जाना, फेडरल बैंक के ब्याज दरों में बढ़ोतरी का निर्णय आदि है, जिसके कारण दुनिया भर में आॢथक गतिविधियां थमती जा रही हैं. बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स के पूर्व चीफ इकानामिस्ट विलियम वाइट ने 2007 की परिस्थितियों का आंकलन कर 2008 की मंदी की सटीक चेतावनी दी थी, उन्होंने ही फिर बैकों को आवश्यक सुझाव देते हुए फिर मंदी के हालात का विश्लेषण किया. इसके बाद भारत सहित सारी दुनिया के शेयर बाजार लगातार लुढक़ रहे हैं. बैकिंग संस्थाओं के पुन: धराशायी होने की गुंजाईश बढ़ी है, जबकि हालात संभालने के विकल्प सीमित हैं. मंदियों के दौर का आना नई आॢथक व्यवस्था और पुरानी नीतियों के मुताबिक भी असहज स्थिति नहीं है, लेकिन भारत जैसे किसी देश की अपनी स्वतंत्र आॢथक प्रणाली का ध्वस्त होना और वैश्विक परेशानी में भागीदार होने की प्रक्रिया पर लगाम लगाया जा सकता था. आज जब सार्वजनिक क्षेत्र को समाप्त करने की मुहिम चल रही है, जरूरत इस बात की है कि उसे बचाएं और सशक्त करें ताकि देश की आॢथकी सुरक्षित रह सके. 

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जरूरी

सारी सीमाएं पार कर दी फिर निर्मम हत्यारों ने, बाचा खान विश्वविद्यालय में आतंकवादियों ने सीमांत गांधी को श्रद्धांजलि देते पाकिस्तान के भविष्य होनहार छात्रों के बीच घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर दो दर्जन से ज्यादा जानें ले लीं. ये वहीं क्रूरतम लोग हैं जो पेशावर के सैनिक स्कूल में डेढ़ सौ से ज्यादा मासूम विद्याॢथयों को मार डाला था, जिनका जनाजा उठाते पाकिस्तान के उनके अभिभावकों सहित विश्व के सभी शांतिकामी लोगों का कलेजा फटा जा रहा था. बाचा खान या बादशाह खान या सीमांत गांधी पेशावर से ही थे. बाचा खान महात्मा गांधी के समकालीन स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और सत्य के आग्रही होने के साथ शांति के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे.
 महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद भी सीमा के दोनों तरफ के लोग बादशाह खान से मिलकर अपनी साध पूरी करते थे. शांति के अग्रदूत की धरती खैबर-पख्तूनवा प्रान्त पाकिस्तान में बहुत अशांत है और आतंकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र भी. इस हिस्से में आतंकियों द्वारा निर्दोष छात्रों को लगातार निशाना बनाना अत्यधिक चिन्ता का कारण बन गया है. भारत के मुकाबले पाकिस्तान में कई गुनी आतंकी घटनाएं होती हैं और आए दिन आम-नागरिक मारे जाते हैं. भारत की घटनाओं के लिए भी पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों पर ही अंगुलियां उठती हैं और वहीं से प्रशिक्षित आतंकी आमतौर पर मारे या पकड़े जाते हैं. गौरतलब है कि हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी पाकिस्तान को आतंकवादियों का मददगार और पनाहगार देश के रूप में चिन्हित कर वहां के हुक्मरानों को चेतावनी दी कि अपना रवैया बदलें. भारतीय उप महाद्वीप सहित दक्षिण एशिया में आतंकी घटनाओं की वृद्धि चिंताजनक है ही, खुद पाकिस्तान इस आग से झुलस रहा है. 
भले ही बांग्लादेश सहित यह देश भारत का पड़ोसी हो गया हो, रिश्तेदारी सहित सांस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन में एक जैसे हैं. खून चाहे पठानकोट में बहे या पेशावर में दर्द दोनों तरफ के लोगों को एक जैसा होता है. यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि दोनों देशों के शासकवर्ग जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें तकलीफ देने वाले संगठित तंत्र का खात्मा करें. पाकिस्तान के शासक वर्ग हमेशा इस बात को दुहराते हैं कि भारत की अपेक्षा वे आतंकवाद से ज्यादा पीडि़त हैं. इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है, परंतु आतंकी दबाव समूह का नियंत्रण भी स्वीकार कर हर दृष्टि से ढिलाई बरती जाती है और क्रूरतम लोगों वहां प्रोत्साहन मिलता है, यह भी सच्चाई है. 
निश्चित रूप से पाकिस्तान में जम्हूरियत है और इंतखाब भी होते हैं. हुक्मरानों को वहां की बहुसंख्यक जनता, जो बाचा खान को दिल से चाहती है, वहीं चुनकर सत्ता सौंपती है. फिर क्यों मनुष्यता के दुश्मनों के दबाव में सरकार आती है? उन छात्रों को निशाना बनाया जाना किसी भी दृष्टि से असहनीय है जो नए विचार, ज्ञान, विज्ञान से देश के भविष्य को गढऩा चाहते हैं. अब बहुत हो चुका, अब तो सिर्फ इस बात का समय है कि सीमांत गांधी जैसे शंतिकामी महामानवों और आम-आदमी की सुनें और दहशतगर्दी को सभी अर्थों में खत्म करने अभियान चलाएं. 

हवा न हो जाए हवाई निरीक्षण


मतदाताओं के एक-एक वोट हासिल करने की कड़ी मशक्कत के बाद किसी राजनीतिक दल को शासन-प्रशासन चलाने की इजाजत इस उम्मीद के साथ मिलती है कि वह जनता के जीवन को खुशहाल बनाये और प्रशासन को जनोन्मुखी और दुरुस्त. छत्तीसगढ़ के मुखिया का दायित्व तीसरी बार संभाल रहे डॉ. रमन सिंह अचानक एक स्कूल पहुंचे और सच्चाईयों से रूबरू हुए. राज्य के मुखिया की एेसी कार्रवाई प्रशासनिक चुस्ती के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि जनता की जरूरतों का एहसास भी जनता के बीच जाने पर होता है. दुर्भाग्य से सत्ता की राजनीति सत्ताधीशों को जनता से दूर ही कर रही है. कभी सुरक्षा, कभी व्यस्तता या कभी अरुचि के कारण. हमेशा इस बात को जेहन रखना जरुरी है कि अंतत: अंतिम निर्णय जनता के हाथ में ही होता है. राजनेताओं की सादगी और जनता से तादात्म्य अब विलुप्त होती चीज है. 
पार्रिकर या माणिक सरकार जैसे उदाहरण कितने हैं. डॉ. रमन सिंह ग्राम सुराज अभियान के नाम पर निकलते हैं लेकिन लगभग सभी को मालूम होता है कि उस पखवाड़े में किसे क्या करना है! कार्रवाई के नाम पर कुछ छोटे-मोटे अफसर कर्मचारी ही निपट जाते हैं. कार्रवाई हो ही यह जरूरी नहीं है लेकिन जरूरी यह है कि सरकार और उसकी नीतियां-कार्यक्रम जनता तक पहुंचे. जरूरी यह है कि जनता की आवाज, उसके दु:ख दर्द सरकार तक पहुंचे. सरकार की तमाम योजनाओं को जनता तक पहुंचाने वाला तंत्र तो इस मामले में अत्यंत नकारा साबित हुआ है. कहीं भूख से मौत हो जाती है, कहीं किसान आत्महत्या कर रहा है लेकिन एेसे तमाम जरूरी सवालों पर इस राज्य का तंत्र तभी हरकत में आता दिखता है जब कम से कम मुख्यमंत्री उसका संज्ञान लेते हैं. 
प्रशासनिक विकेंद्रीकरण दरअसल व्यावहारिक रूप से अब भी अपनी भावनाओं के अनुकूल जनता तक नहीं पहुचा है. इस राज्य में अफसर ही नहीं मंत्री भी जनता के दुखों से बेपरवाह ही नजर आते हैं. बहुत हो गया तो अपने चुनाव क्षेत्र के कुछ लोगों से मिलकर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री मान लेते हैं. अनेक मंत्रियों के बंगलों में आम आदमी का फटकना भी मुश्किल है लेकिन यहाँ दलाल किस्म के लोग बेधडक़ आते-जाते नजर आते हैं. इस माहौल में डॉ. रमन सिंह का एेसा औचक निरीक्षण सकारात्मक तो है, बस सवाल सिर्फ यही है कि कहीं यह श्रृंगारिक निरीक्षण बस ना रह जाए! मुख्यमंत्री अगर अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर समय-समय पर इस तरह का औचक निरीक्षण करें तो उन्हें पता लगेगा कि मंत्रालय की बैठकों में अफसरों के प्रेसेंटेशन और जमीनी हकीकत में फासला कितना है.
 महासमुंद के बिराजपाली में ही जब मुख्यमंत्री भोजन के लिए  जमीन एक फटे हुए बोरे पर बैठे तब पता लगा कि सर्वशिक्षा अभियान में पैसा नहीं था इसलिए टाट पट्टी की खरीदी नहीं हुई थी. यह उस राज्य का हाल था जहाँ खुद मुख्यमंत्री लगातार शिक्षा की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं और इसीलिए उन्होंने एक ग्रामीण स्कूल का औचक निरीक्षण किया भी. मुख्यमंत्री एेसे दौरे पर समय समय पर निकलेंगे तो राज्य की नब्ज को और बेहतर तरीके से पकड़ सकेंगे. 

भावनात्मक मुद्दों से भला नहीं होगा

राम मंदिर मुद्दे को स्थायी रूप से चुनावी औजार बनाने की मंशा साफ हो चुकी है. मामला अदालत में है और सभी पक्ष न्याय मंदिर की बात मानने का जिक्र करते हैं, लेकिन जब भी चुनाव की आहट होती है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश जैसे राज्य की बात करें तो बार-बार चर्चा शुरु हो जाती है. अयोध्या में शिला-पूजन, दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर मुद्दे पर सेमिनार के बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम नवमीं से हर गांव में राम मंदिर स्थापना का अभियान बनाया है. केन्द्र सरकार खामोश है, इसका साफ अर्थ है कि इस मुद्दे को चर्चा पर लाने में केन्द्र की भी सहमति है. प्रधानमंत्री अभी तक विदेशों व चुनावी सभाओं में बोलते आए हैं ओर ट्विट भी आमतौर पर देश से जुड़े मुद्दों पर नहीं करते. यह सहज संयोग नहीं है कि एकबारगी चौतरफा मंदिर निर्माण के मुद्दे को उठाया जा रहा है. यहां इस बात को जेहन में रखना जरुरी है कि जब भारतीय जनता पार्टी के संसद में सिर्फ 2 संसद थे तो लालकृष्ण आडवानी ने रथ बैठकर अयोध्या कूच किया
, कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहा और देश में उन्माद के वातावरण ने अनगिनत शहरों में साम्प्रदायिक तनाव के साथ धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज की. फलस्वरूप राष्ट्रीय जनता पार्टी को 86 सीटें लोकसभा की मिली. ऐसे प्रयासों अल्प-जीवन होता है लेकिन जब इस दिशा में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक समरता को स्थायी जख्म ही मिलता है. भाजपा ने लगातार मुद्दे बदले, रणनीति बदली और जब विकास की बातें की तो एनडीए की पहली सरकार अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी. फिर क्यों देश के आर्थिक विकास और जनता को राहत देने वाले मसलों से किनारा कर भावनात्मक मुद्दों को उछालने की जरुरत आ पड़ी है?  आज देश के विकास गति ठहरी हुई है, 
जनता को राहत मिलना तो दूर उनकी कठिनाईयां बढ़ी हैं. रोजगार के अवसर दूर ही होते जा रहे हैं, किसानी सजा हो गई है और किसान आत्महत्या कर हैं. नतीजा, दिल्ली फिर बिहार में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गुजरात और महाराष्ट्र की ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में केन्द्र सरकार की नीतियों को मतदाताओं ने नकार दिया और भाजपा चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बेहद सुनियोजित तरीके से भावनात्मक मुद्दों को उठाया जा रहा है. राम अयोध्या के ही घर-घर में नहीं बसते, उसकी व्यापकता पूरे देश के जन मानस में है. पठन-पाठन, शोध के केन्द्र विश्वविद्यालय में अयोध्या और मथुरा-काशी की बात होने लगे तो सचेत हो जाने का समय है. देश अब फिर से साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा सहने के लिए तैयार नहीं है. देश के गांव, शहरों के किसानों और काम करने वालों को रोजगार की जरुरत है. नई पीढ़ी को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सर्वसमावेशी विकास चाहिए. ऐसी स्थिति में देश की सौहाद्र्र की परम्परा का अनुपालन करते सत्ता काम करे और एेसी कोशिशों को लगाम लगाने के लिए सचेत प्रयासों का भरोसा जनता को दे.